नई दिल्ली:  पहली चुनौती तो यह है कि देश भक्ति के इस माहौल में विभिन्न राजनैतिक दलों के जाति और क्षेत्र के नाम पर विभाजन जैसे तमाम मुद्दे, जिनके भरोसे वे चुनावी वैतरणी पार करना चाहते थे, परिदृश्य से ओझल हो गये हैं। अब उनकी कोशिश है कि संदेह और भ्रम का कोहरा फैला कर बालाकोट हमले के असर को कम किया जा सके। इतने कम समय में नये मुद्दे तलाश कर उन्हें स्थापित करना उतना ही कठिन है जितना पुराने मुद्दों में फिर से जान डालना।

दूसरा भय है बालाकोट पर हवाई हमला कर एक नायक के रूप में उभरे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के कद को उतना छोटा करना, जिससे एक-दूसरे के कंधे पर सवार हो कर वे उनसे ऊंचे निकल जायें। गठबंधन के सहयोगियों के बीच कोई भी इस कद का नहीं है कि पुलवामा पश्चात के मोदी के बराबर खड़ा हो आंख में आंख डाल कर बात कर सके, वहीं कोई भी अपने कंधे पर किसी को सवार होने देने के लिये भी तैयार नहीं है। अपने राजनैतिक हित के लिये भी नहीं। हर कोई सबसे ऊपर रहना चाहता है ताकि चुनाव बाद ऊपर से सीधे कुर्सी पर छलांग लगा सके।

चुनावी राजनीति में यह सारी स्थिति कमो-बेश बनी ही रहती है, लेकिन इस बार विपक्षी दल चुनावी जीत के लिये जिस नीति की तरफ बढ़ चले हैं वह फूहड़ ही नहीं खतरनाक भी है। इसके लिये उन्होंने इतिहास से सबक लेने के बजाय उसे नकारने की नीति अपनायी। इससे आम जनता के बीच यह भ्रम उत्पन्न हुआ है कि वे मोदी के खिलाफ हैं या देश के। सोशल मीडिया पर इसे साफ तौर पर देखा जा सकता है। समय रहते यदि विपक्ष इसे संभाल नहीं सका तो उसे इसकी बड़ी राजनैतिक कीमत चुकानी पड़ सकती है।

कश्मीर के स्थानीय राजनैतिक दलों, नेशनल कांफ्रेस और पीडीपी का स्टैंड तो जग जाहिर ही है। नेशन कांफ्रेन्स के नेता फारुख अब्दुल्ला ने तो पुलवामा हमले के बाद सर्वदलीय बैठक का उल्लेख करते हुए कहा कि “यह हमारी गलती नहीं है कि हमला हुआ। यह सरकार की गलती है कि उसने वक्त रहते कश्मीरियों की आवाज और मांगें नहीं सुनी”। 
क्या वे यह कहना चाहते थे कि यदि कश्मीरियों की आवाज नहीं सुनी जायेगी तो पाकिस्तान के इशारे पर जैश-ए-मुहम्मद उसका बदला लेगा। 

पिछले साल फारुख अब्दुल्ला ने केन्द्र को चुनौती दी थी कि “कश्मीर में तिरंगा थामने वाला भी नहीं मिलेगा” तो इस बार महबूबा ने इस धमकी को दोहराया। महबूबा सीधे तौर पर अलगाववादी धड़े के साथ खड़ी दिखायी दे रही हैं। केन्द्र द्वारा जमात-ए-इस्लामी पर लगाये गये प्रतिबंध को उन्होंने “हमारे मजहब में दखलंदाजी” बताते हुए “बर्दाश्त न करने” की चेतावनी दी।

पिछले कुछ दशकों में कश्मीर घाटी में जो हालात बने हैं, या कहें कि बना दिये गये हैं, उसमें राजनीति मजहब और अलगाववाद के इर्द-गिर्द घूमती है। केन्द्र को छोटा दिखा कर खुद को ताकतवर साबित करना वहां की राजनीति का पैंतरा है जिसे नजरअंदाज करके पिछले दशक तक दिल्ली ने कामचलाऊ संबंध बनाये रखने की नीति अपनायी। इसके बदले में घाटी के राजनेता भी कश्मीर में अलगाववादी भाषा बोलते थे, जम्मू में सबको साथ लेकर चलने की बात करते थे और दिल्ली आने पर भारतीय हो जाते थे। इस तरह दोनों का काम चलता रहता था। 

लेकिन मोदी सरकार के तौर-तरीके इससे अलग हैं और राजनीति के दोहरे पैमाने उसे मंजूर नहीं हैं। यही जम्मू कश्मीर की राजनीति की हालिया समस्या है।  

जब जम्मू कश्मीर में यह दोहरापन आखिरी सांसें गिन रहा है, देश के विपक्षी दलों की इसे साध कर चुनावी वैतरणी पार करने की कोशिश मझधार में डुबोने वाली साबित होगी। जब पूरा देश देशभक्ति के जज्बे में डूबा है, सेना के ऑपरेशन और उससे मरने वाले आतंकवादियों की संख्या पर सवाल उठा कर विपक्ष इसे झूठा अथवा निरर्थक साबित करना चाहता है। इस अभियान में कांग्रेस के रणदीप सुरजेवाला, पी. चिदंबरम और दिग्विजय सिंह ही नहीं हैं। ममता बनर्जी, नवजोत सिद्धू, अरविन्द केजरीवाल आदि भी इसमें जुगलबंदी कर रहे हैं। 

मीडिया का भी एक तबका इस कोरस में शामिल है। कथित सिविल सोसाइटी और मानवाधिकारवादी भी अपनी पूरी ताकत से इस अभियान में जुटे हैं। भारत में इन्हें कोई सबूत नहीं मिलता तो पाकिस्तानी नेताओं के बयान अथवा विदेशी अखबारों की कतरनें लहराने लगते हैं। महागठबंधन में शामिल नेताओं को  लगता है कि उनका यह दांव सफल होने पर देश की राजनीति फिर से उसी जाति और मजहब पर आ टिकेगी, जिसका उन्हें लम्बा तजुर्बा है। उन्हें यह भी भरोसा है कि आज भले ही महागठबंधन में कोई सहमति नहीं बन सकी हो लेकिन सत्ता की गोंद चुनाव जीतने पर उन्हें एक बनाये रखने में सफल होगी।

अगर वे इस समझ पर भरोसा करके चल रहे हैं तो वे गलत हैं। पीढ़ियों की राजनीति के बाद भी उन्होंने भारत और भारतीय चरित्र को समझने की कोशिश नहीं की है। वे नहीं स्वीकार कर सके हैं कि भारतीय समाज की समझ में राष्ट्र किसी “वाद” का नाम नहीं बल्कि जीवनपद्धति का अभिन्न अंग है। 

यह राष्ट्रीयता का आंदोलन ही था जिसने गांधी और नेहरू को सर-आंखों पर बिठाया था और स्वतंत्र भारत की सत्ता उन्हें सौंप दी थी। यह उनकी देशभक्ति पर विश्वास ही था कि 1962 की पराजय के बाद भी देश ने उनकी गलतियों को माफ कर दिया था और 1967 में नेहरू के उत्तराधिकार को लेकर सामने आयी राजनैतिक कलह के बावजूद कांग्रेस को सत्ता सौंप दी थी।

विपक्ष के महागठबंधन, खास तौर पर राहुल गांधी को यह याद रखना चाहिये कि 1971 में पाकिस्तान के साथ युद्ध की स्थिति में तत्कालीन विपक्ष और उसके नेता स्व. अटल बिहारी वाजपेय़ी ने क्या भूमिका ली थी। उस समय विपक्ष मजबूती के साथ सरकार के साथ खड़ा हुआ था। इससे न केवल इंदिरा सरकार को कठोर निर्णय लेने में मदद मिली बल्कि विपक्ष की भी प्रतिष्ठा बढ़ी। लेकिन राहुल गांधी के नेतृत्व में आज की कांग्रेस जिस तरह चुनावी लाभ के लिये राष्ट्रीयता के ज्वार को निरर्थक विवाद के तिनकों से बांधने की कोशिश कर रही है वह उसके लिये ही आत्मघाती साबित होगा।