मध्य प्रदेश में हो रहे विधानसभा चुनाव में सभी दल अपने-अपने तरीके से मतदाताओं को लुभाने की कोशिश कर रहे हैं। इसके लिए मध्य प्रदेश की सत्ता में पिछले 15 साल से सत्ता में बैठी भाजपा हो या सत्ता का बनवास झेल रही कांग्रेस। इस चुनाव को लेकर तमाम राजनीतिक विश्लेषक मध्य प्रदेश में भाजपा को सत्ताविरोधी रुझान के नुकसान होने की आशंका जता रहे हैं।

लेकिन इन सब के बीच जो एक सबसे बड़ा अंतर हैं उसे पाटने के लिए भाजपा के पास आरएसएस नाम का एक अस्त्र है जो आने वाले चुनाव में बड़ा अंतर पैदा कर सकता है।

आरएसएस की सबसे बड़ी ताकत है मध्य प्रदेश के आदिवासी जिन्हें आरएसएस की भाषा में वनवासी कहा जाता है। इनकी संख्या मध्यप्रदेश में 23 फ़ीसदी हैं और इनके लिए 47 सीटें सुरक्षित हैं। पिछले तीन विधानसभा चुनावों से आदिवासियों के लिए रिज़र्व सीटों पर बीजेपी बड़े अंतर से जीत हासिल कर रही है।

भाजपा ने 2013 में हुए विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने आदिवासियों के लिए सुरक्षित 47 में से 31 सीटों पर जीत दर्ज की थी। 2008 में भी 47 में से 31 आदिवासी सीटें बीजेपी की झोली में गईं। 2003 में आदिवासियों के लिए 41 सीटें रिज़र्व थीं और बीजेपी ने इसमें 37 सीटें जीती थीं।

हालांकि पहले इन आदिवासी बाहुल्य सीटों पर कांग्रेस का दबदबा रहा है। 1993 में हुए विधानसभा चुनाव में बीजेपी के खाते आदिवासियों के लिए रिजर्व सीटों में से महज तीन सीटें मिली थी। इसी साल कांग्रेस के दिग्विजय सिंह मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री बने थे।

लेकिन सवाल यह उठता है कि अपने 15 साल के शासन में बीजेपी कैसे आदिवासियों को अपने पाले में कर लिया। तो इसका जवाब है आरएसएस जिसने अपनी पकड़ आदिवासियों के बीच इतना मजबूत कर लिया की उसे तोड़ना कांग्रेस के लिए मुश्किल हो रहा है।

दरअसल आरएसएस के संगठन वनवासी कल्याण परिषद ने आदिवासियों के बीच अपने काम से जगह बनाई। वनवासी कल्याण परिषद ने इनके बीच कई धार्मिक अनुष्ठानों का आयोजन कराया। इसके लिए आरएसएस रामायण की पात्र माता शबरी को उदाहरण बनाया और उसी का अनुसरण किया।

शबरी रामायण की एक महत्वपूर्ण पात्र हैं जो मतंग ऋषि की शिष्या थीं। शबरी से मिलने के लिए भगवान राम अपने  बनवास के समय उनकी कुटिया में गए थे। इस यात्रा में जब राम शबरी की कुटिया में पहुंचे तो उन्होंने शबरी के जूठे किए बेर को खाया था। जो भक्ति और सामाजिक समरसता का सर्वोत्तम उदाहरण हैं। इसी को ध्यान में रखकर आरएसएस ने अपनी पैठ बनाने के लिए शबरी कुंभ का आयोजन किया था। 

आरएसएस ने इसलिए आदिवासियों को वनवासी का नाम दिया, क्योंकि वह खुद को उनके साथ जुड़ा महसूस कराना चाहते है।  क्योंकि आरएसएस आर्यों के बाहरी आक्रमण की थ्योरी को नहीं मानती है।

आदिवासी कहने का मतलब है ऐसे लोग जो यहां के मूल निवासी हों। यानी आदिवासी के अलावा बाक़ी लोग बाहर से आकर बसे हैं। इस परिभाषा के मुताबिक आर्य आक्रमण की थ्योरी सही साबित होती है। जिससे आरएसएस को परहेज है।

वनवासियों को प्रभावित करने के लिए आरएसएस ने आदिवासी छात्रों को दूसरे राज्यों की धार्मिक यात्राएं कराने का प्रबंध किया है। सदियों से हाशिए पर रहे आदिवासी इलाक़ों में छात्रावास और पुस्तकालय खोले गए। पुस्तकालय में मिलने वाली किताबें भारत की सनातन परंपरा की ओर प्रेरित करने वाली होती हैं। आरएसएस के छात्रावासों में जो छात्र रहते हैं, आरएसएस उन्हें अपनी विचारधारा हिसाब से प्रशिक्षित भी करता है। आरएसएस के इन्हीं जमीनी कार्यों का फायदा चुनाव में बीजेपी को मिलता आया है।