याददाश्त पर थोड़ा जोर डालें, तो ऐसा लगता है। जैसे कल ही की तो बात थी। सन 47 का साल, अफरा तफरी और हायतौबा मची हुई थी। पूरे उपमहाद्वीप के लोग बंटवारे के घाव सहला रहे थे। पूरा देश अलग अलग तरह की मानसिकता के बीच टुकड़ों में बंटा हुआ दिख रहा था।

दिल्ली का सत्ता सदन भी अपनी-अपनी मजबूरियों में घिरा हुआ था। प्रधानमंत्री नेहरु को सामाजिक सद्भाव की फिक्र थी। गृहमंत्री वल्लभभाई पटेल को देश के एकीकरण की चिंता थी। बाहरी आक्रमण का

बहादुरी से मुकाबला करने वाली हिंदोस्तानी फौज आंतरिक विद्रोह और सांप्रदायिक तनाव से जूझ रही थी।  

वित्त मंत्रालय को लगभग खाली खजाने से काम चलाना पड़ रहा था। सन् 1757 में कभी विश्व व्यापार में भारत की हिस्सेदारी 24 फीसदी थी, जो 1947 में मात्र दो फीसदी बच गई थी।

सोने की चिड़िया के पंख नोच लिए गए थे। सत्ता के भूखे गिद्ध इस फिराक में बैठे थे कि कैसे इस चिड़िया के टुकड़े करके अपना पेट भर लिया जाए। कश्मीर, हैदराबाद, जूनागढ़, उत्तरपूर्व जैसे इलाकों में रजवाड़े देश को तोड़ने पर आमादा थे।

यही सब देखते हुए ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री चर्चिल ने कहा था कि ‘भारत को आजादी दी गई तो सत्ता चंद बेईमानों और लुटेरों के हाथ में पहुंच जाएगी और जल्दी ही भारत अपनी  आजादी गंवा बैठेगा’।

विदेशी तो छोड़िए खुद भारतीयों को भी आजादी का मोल पता नहीं था। अक्सर छोटी मोटी समस्याओं पर कई लोग ये कहते हुए सुने जा सकते थे- अरे इससे तो अंग्रेजों का राज ही बेहतर था।

लेकिन देश ने संभलना शुरु कर दिया। आजादी मिलने के तीन सालों के भीतर 26 जनवरी 1950 को देश का संविधान लिखने जैसा जटिल कार्य पूरा कर लिया गया और देश को गणतंत्र घोषित कर दिया गया।  

आज देश को गणतंत्र हुए 69 साल हो चुके हैं। लेकिन अलगाव और आपसी नफरत के गर्म थपेड़े अभी भी कई बार आत्मा को झुलसा देते हैं। कभी कश्मीर का आतंकवाद, नक्सलियों का उग्रवाद, जातीय आदोलनों की आंच, दक्षिण के भाषाई आंदोलन, तो कभी टोपी, दाढ़ी, तिलक जैसे मुद्दों पर एक दूसरे से तकरार मोल लेते हुए लोगों को देखकर तकलीफ होती है। मन में ख्याल आने लगता है कि आखिर हमारा देश कहां जा रहा है।

लेकिन वास्तविकता ये है कि देश को गणतंत्र घोषित हुए मात्र 69 साल ही तो हुए हैं। जरा याद करिए दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र अमेरिका का हाल। जहां आजादी मिलने के नवासी(89) सालों बाद तक गुलामी की अमानवीय प्रथा जारी रही। बाद में अब्राहम लिंकन ने इस जिल्लत से मुक्ति दिलाई। लेकिन इसकी कीमत उन्हें भी जान देकर चुकानी पड़ी थी। 

पड़ोसी देश पाकिस्तान में तो थोड़े अंतराल के बाद हर बार मिलिट्री शासन ही लग जाता है। या फिर सेना और आईएसआई के इशारे पर इमरान खान जैसे कठपुतली शासकों की सरकार बनती है। 

लेकिन भारत में ऐसा नहीं होता। गणतंत्र के सत्तर दशकों में हमने सोलह बार लोकत्तांत्रिक तरीके से सत्ता हस्तांतरण किया है। वह भी बिना खून बहाए हमने 16 बार सत्ता की पूरी चाल चरित्र और चेहरा बदल दिया है। ये उपलब्धि नहीं तो क्या है।

आज जातिवाद, क्षेत्रवाद, धार्मिक संकीर्णता की घटनाओं को देखकर दिल दुखता तो जरुर है। लेकिन मत भूलिए कि देश को गणतंत्र हुए मात्र 69 साल ही हुए हैं। 

जातिवाद के भीषण रोग से ग्रसित जिस देश में छुआछूत जैसे गंभीर सामाजिक बुराइयां मौजूद थीं। उसी देश में बाबा साहेब अंबेडकर के बनाए संविधान को हर समुदाय पवित्र मानता है। भारत जैसे पुरातनपंथी माने जाने वाले देश में दलित और अल्पसंख्यक समुदाय के लोग राष्ट्रपति के पद तक पहुंच सकते हैं। महिलाएं प्रधानमंत्री हो सकती है। दबे कुचले वंचित तबके के लोग सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की कुर्सी को सुशोभित कर पाते हैं। 

ये है हमारे सत्तर सालों की यात्रा। यहां पहुंचकर हम शान से अपना सिर उँचा करके कह सकते हैं- ‘चर्चिल साहब, अगर आज आप जीवित होते तो देख पाते कि जिन्हें आप जंगली कहते थे उन्होंने ऐसा शासन स्थापित किया है कि दुनिया की ऊंचाईयां फीकी पड़ने लगी हैं। हम भारत के लोग भी अपने भाग्य विधाता बन चुके हैं। हमें पश्चिमी सभ्यता की दी हुई बैसाखियां नहीं चाहिए । 

हमारे कदमों में बहुत जान है। हमारी उड़ान के सामने अब छोटा पड़ रहा है यह आसमान। 

हमने अंतरिक्ष में कदम बढ़ा दिये हैं। पूरा संसार सैटेलाइट प्रक्षेपण के लिए हमपर निर्भर करता है। हम एक साथ सबसे ज्यादा सैटेलाइट छोड़ने वाले देश बन चुके हैं। कल ही हमारे बच्चों ने दुनिया का सबसे हल्का सलैटेलाइट बनाकर उसे प्रक्षेपित किया है। 

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आज हम दुनिया की सबसे तेज गति से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था हैं। वैश्विक संगठन हमारी सफलता के बारे में भविष्यवाणियां करने लगे हैं। 
1951 में जहां मात्र 18 फीसदी साक्षरता थी। वहीं अब साक्षरता दर 74 फीसदी है। 

देश की औसत आयु 32 साल से बढ़कर 69 साल हो चुकी है। मार्च 2014 में ही देश पोलियोमुक्त घोषित हो चुका है।

देश के आखिरी गांव तक बिजली पहुंच चुकी है। आयुष्मान भारत योजना की वजह से बेहद गरीब लोगों तक उच्च कोटि की स्वास्थ्य सेवाएं पहुंच चुकी हैं। 

महिलाओं को चूल्हे के धुएं से छुटकारा मिल चुका है। उज्जवला योजना के द्वारा घर घर कुकिंग गैस पहुंचाई जा चुकी है।

देश की छवि सुधारने और स्वास्थ्य के लिए बेहद जरुरी स्वच्छ भारत अभियान इतना सफल रहा है कि वैश्विक संस्थाएं आज हमारी तारीफ कर रही हैं। 

विदेशों में बसे भारतीयों का मान उनके आस पास के समाज में बढ़ गया है। अब भारतीय पासपोर्ट धारक होना सम्मान की बात हो गई है। 

अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष भारतीय अर्थव्यवस्था के उज्जवल भविष्य के बारे में संभावनाएं जता रहा है। 

मेक इन इंडिया के तहत रक्षा उपकरणों सहित कई तरह के जरुरी सामान अब हम खुद तैयार कर रहे हैं।  

 

माना कि अब तक अंधेरा पूरी तरह छंटा नहीं है। अब भी बिना ऑक्सीजन के अस्पतालों में नौनिहाल दम तोड़ देते हैं। सत्ताधीशों की संकीर्ण चालों में उलझकर विकास दम तोड़ने लगता है। देश की सबसे पुरानी पार्टी के शासनकाल में भ्रष्टाचार के नए कीर्तिमान गढ़े जाते हैं। दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों को मुख्यधारा में शामिल होने के लिए जूझना पड़ता है। 

महिलाओं के खिलाफ हिंसा की घटनाएं दिलों को दहला देती हैं। समाज में धन का असमान वितरण है। देश के कई इलाकों में प्रकृति को सामने मनुष्य बेबस महसूस करता है।

लेकिन इसका मतलब ये तो नहीं कि हमारी आजादी और गणतंत्र बेकार चले गए हैं। कभी कभी हमारे कदम लड़खड़ाते तो हैं। लेकिन थोड़ा गिरते थोड़ा संभलते हम लगातार आगे ही बढ़ रहे हैं। 

गिरकर उठना, उठकर संभलना और संभलकर चल पड़ना। ये हम भारतीयों की आदत में शुमार है। दुनिया भले ही मजाक उड़ाए। लेकिन हमने जो भी तरक्की हासिल की है। वह हमारी अपनी निजी उपलब्धि है। 

वरना प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के परमाणु परीक्षण करने के बाद तो दुनिया ने हमपर प्रतिबंध लगा दिए थे। 

लेकिन हमने भी तय कर लिया था कि हमें हाथ नहीं फैलाना है। हमने कहीं से तकनीक की भीख नहीं मांगी। हमने कहीं से उधार मांगकर देश नहीं चलाया।  आज हम जो भी हैं अपने बल बूते हैं।  हमारी तरक्की की गति पर विवाद हो सकता है।  लेकिन कोई ये नहीं कह सकता..कि हमने तरक्की नहीं की है। 

आज भारतीयों के सामने निराशा की कोई खास वजह मौजूद नहीं है। हम आगे बढ़ रहे हैं और हम लगातार आगे बढ़ते रहेंगे।  

आखिर देश को गणतंत्र घोषित हुए मात्र 69 साल ही तो हुए हैं।  माना कि मंजिल अभी तक नहीं मिली, लेकिन रास्ता तो तय हुआ ही है। 

जय भारत...जय भारती....