14 फरवरी को पूरे देश को पुलवामा हमले ने सन्न कर दिया है। इस हमले में अर्धसैनिक बलों के 40 बहादुर जवानों का अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ा था और इस हमले की जिम्मेदारी पाकिस्तान के जैश-ए-मोहम्मद आंतकी संगठन ने ली थी। भारतीय सुरक्षा बलों ने इस हमले के 100 घंटे के बाद अहम कार्यवाही की थी और इस हमले के पीछे के साजिशकर्ताओं को मार गिराया था। हालांकि इसमें हमने भी अपने पांच जवानों को खोया। इस घटना के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने साफ कर दिया कि देश की सुरक्षा की सुरक्षा से जो भी खेलेगा, उसके खिलाफ कड़ी कार्यवाही की जाएगी। 

आंतक की उत्पत्ति

दुखद ये है कि इस तरह के आंतकी हमले भारत के लिए नए नहीं हैं। सातवीं सदी में भी इस तरह की घटनाएं होती थी। मोहम्मद गौरी, मोहम्मद गाजी जैसे निर्दयी लुटेरों ने जेहाद के नाम पर इस देश को लूटा था। इससे पहले अल हिंद में उम्मयद विस्तार किया गया था। अरबियों ने पहली बार 643 वीं शताब्दी में हमला किया था और उन्होंने सिस्तान के जुबुलिस्तान के रूतबिल को हराया था और उसके हिस्से को लूटा था। 

ये साफ है कि पुलवामा हमले के पीछे फिदायीन हमला था और इस तरह की मानसिकता का यह महज एक शोपीस है और ये संदेश देने की कोशिश है। इस हमले के पीछे ये संदेश साफ देने की कोशिश है कि ये लड़ाई गाय के मूत्र पीने वाले यानी हिंदूओं के खिलाफ है, जिन्होंने बाबरी मस्जिद को तोड़ा था। हालांकि इस घटना के बाद पाकिस्तान और वो कश्मीरी जो इस घटना की साजिश के पीछे जिम्मेदार है, उन्हें दंडित किया जाएगा। लेकिन यह महज एक सीमा तक कार्यवाही करने के बराबर होगा। अब समय आ गया है कि हमें मान लेना चाहिए कि कश्मीर में जो कुछ हो रहा है वह केवल कश्मीर की आजादी के लिए नहीं हो रहा है बल्कि ये इस्लाम की लड़ाई हिंदू धर्म के लिए हो रही है।

ये लड़ाई 1989-92 के दौरान कश्मीरी पंडितों की वहां से विदाई के साथ ही शुरू हो गयी थी। लाखों लोग सड़कों पर अल्लाह ओ अकबर के नारे के साथ उतर आए थे और उन्होंने कश्मीरियों को लूट कर मार दिया और उनकी महिलाओं और बच्चों को निर्दयता के साथ मारा और बलात्कार किया। इस हिंसा की शुरूआत 1947 में हो गयी थी जब धर्म के आधार पर देश का बंटवारा हुआ। क्योंकि बड़ी संख्या में मुस्लिम आबादी हिंदू के साथ नहीं रहना चाहती थी। इस कारण विश्व के इतिहास में पहली बार कोई देश(पाकिस्तान) धर्म के आधार पर एक देश के रूप में आया। ये लोग कश्मीर को जिहाद की प्रयोगशाला बनाने के लिए जिम्मेदार थे और जो आज भी चल रहा है। वर्तमान में जम्मू कश्मीर में चल रहा आंतकवाद और परोक्ष लड़ाई 1947 में शुरू हुई लेकिन लंबे अरसे तक नहीं दिखाई दी।

देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू अपने दोस्त शेख अब्दुल्ला के प्रभाव में थे और उन्होंने संविधान में कश्मीर घाटी को सुरक्षित करने के लिए धारा 370 और 35ए को लागू किया। इसके कारण आज तक घाटी में जेहाद जारी है। जबकि उस वक्त के गृहमंत्री सरदार बल्लभ भाई पटेल और ड्राफ्ट कमेटी के अध्यक्ष भीमराव आंबेडकर इसके पूरी तरह से खिलाफ थे। लेकिन जवाहर लाल नेहरू ने जैसे तैसे अपने दोस्त की मदद एन. गोपालस्वामी अय्यंगर की मदद से लागू किया। अय्यंगर नेहरू के कैबिनेट में बिना मंत्रालय के मंत्री थे। आंबेडकर ने कश्मीर को विशेष औहदा देने का विरोध किया और अंतत: नेहरू जीते और इसे लागू किए रखा। जबकि इससे भी बुरा तब हुआ जब नेहरू की बेटी इंदिरा गांधी ने संविधान को बदलकर इसे देश को सेक्यूलर और सोशलिस्ट कर दिया।

इसके कारण पूरे देश का कुल संस्थागत विनाश का मार्ग प्रशस्त हो गया। वोट-बैंक की खेती करने के लिए धर्मनिरपेक्षता के विकृत संस्करण का समर्थन करने के लिए, देश के इतिहास का निर्माण किया गया। जिसने पीढ़ियों को बौद्धिक रूप से नपुंसक बना दिया। शिक्षा में धोखाधड़ी के लिए धन्यवाद, सैकड़ों कश्मीरी अब भारत में मौजूद हैं। यह कोई आश्चर्यचकित करने वाला नहीं कि कांग्रेस के वर्तमान अध्यक्ष भी कहते हैं कि उनकी पार्टी एक विशेष समुदाय की है। शैक्षिक संस्थान 1947 से ही जिहाद को प्रसारित करने में बहुत अहम भूमिका निभा रहे हैं और खासतौर से अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय। दुर्भाग्यपूर्ण ये है कि एएमयू के नौजवान अभी तक गलत रास्ते पर जा रहे हैं।

विश्वविद्यालय के छात्र जिन्होंने वहां पर शिक्षा हासिल की और हासिल कर रहे हैं वह आंतकी से प्रेरित फिलोसफी को कश्मीर समेत देश के अन्य हिस्सों में प्रसारित कर रहे हैं।  इसके अलावा जमात ए इस्लामी के द्वारा कश्मीर घाटी में संचालित मदरसे नए बच्चों का ब्रेनवॉश कर रहे हैं जो आंतक को फैलाने का इनका दूसरा हथियार हैं। पिछले कई सालों से घाटी में चलाए जा रहे तथाकथित सामाजिक संरक्षण आंदोलन के नाम पर कट्टरता फैलायी जा रही है।

क्या इसका कोई हल है? या फिर इसे बदला जा सकता है?

इसका हल खोजने में यह एक कड़वी गोली हो सकती है। भारत में एक सामाजिक चरित्र नहीं है और हमें, इस देश के नागरिकों के रूप में, इस पर काम करने की आवश्यकता है। पुलवामा हमलों के बाद देशभक्ति की भावना सबसे अधिक नागरिकों को नजर आ रही थी। दुर्भाग्य से, अभी भी कुछ लोग हैं जो जाति, वर्ग और क्षेत्र के आधार पर कार्रवाई में मारे गए नायकों का विश्लेषण कर रहे हैं। बड़े पैमाने पर शिक्षा के लिए एक निर्विवाद आवश्यकता है ताकि राष्ट्र एक इकाई के रूप में व्यवहार और प्रतिक्रिया दें। भारतीयों को यह पहचानने की जरूरत है कि पुलवामा जैसे हमले एक बड़ी समस्या का एक लक्षण है जो गहरी चलती है। पुलवामा हमलों ने हमें बीमारी से निपटने का मौका दिया है न कि लक्षण से।

हम जानते हैं कि बीमारी कहाँ है और यह एक बार और सभी के लिए इसे समाप्त करने का समय है। इस कठिन समय में हमें भारतीय सेना के साथ एकता के साथ खड़े होना चाहिए और हमे समझा चाहिए कि देश में वर्तमान की समस्या आज से 14 सौ साल पुरानी समस्या की तरह है। प्रत्येक नागरिक को 1947 से वोट बैंक की राजनीति और धर्मनिरपेक्ष तुष्टिकरण के जहरीले पारिस्थितिकी तंत्र से लड़ना चाहिए। इसकी दृढ़ता के साथ सिफारिश की जानी चाहिए कि हिंसा के रास्ते का पालन नहीं किया जाएगा। लोगों को शिक्षित करना सही है। सौभाग्य से, हमारे पास एक दूरदर्शी नेता है जो इस तरह के गहरे संकट से निपटना जानता है। यह महत्वपूर्ण है कि हम इन परीक्षणों के समय में धैर्य, दृढ़ता, प्रतिबद्धता और उत्साह के साथ उसके साथ खड़े हों।

जय हिंद

(ये लेख से व्यक्तिगत विचार हैं और ये जरूरी नहीं है कि माय नेशन इससे सहमत हो)