हम सभी लोग धड़ल्ले से अंग्रेजी के शब्द ‘गॉड’ का प्रयोग करते है, जैसे कि हम इस शब्द से पूरी तरह परिचित हैं। लेकिन क्या सचमुच हम इसका अर्थ समझते भी हैं। इसके कई जवाब हो सकते हैं, जैसे अंग्रेजी का शब्द गॉड इस सृष्टि के निर्माता के लिए प्रयोग होता है, जो सर्वोच्च सत्य का प्रतीक है। 

हम लोगों में कुछ इस बात का संदेह करेंगे कि हम सब और यह ब्रह्मांड कहीं और से यहां आया हैं और हमें ‘गॉड’ को उत्तर के रूप में पाना है। उन्हें परम शक्ति और सर्वोच्च सत्य के रूप में देखा जाता है। जिससे सभी अन्य लोग उत्पन्न हुए हैं और लोगों ने उसे अपनी श्रद्धा के अनुसार अपनाया है। निश्चित तौर पर वह एक पुरुष है और कहा जाता है, कि वह हमेशा कुछ खास लोगों से ही बात करते हैं और उन्हें यह निर्देश देते रहते है कि उन्हें मानव जाति से क्या चाहिए।  

वह करुणामय माने जाते हैं और वह उन लोगों से प्यार करते है जो उन पर विश्वास करते है और कुछ खास लोगों द्वारा दिए गए निर्देशों का पालन करते हैं।  लेकिन वह उन लोगो पर बिल्कुल दया नही करते है जो उनके निर्देशों का पालन नही करते हैं। ऐसे लोगों को निश्चित ही नर्क की शाश्वत अग्नि मे जलने के लिए भेजा दिया जाता है। 

अब्राहम द्वारा दी गई भगवान की यह व्याख्या ज्यों की त्यों स्वीकार की जाती है। शायद इसकी वजह है, कि इंसानी सभ्यता का ज्यादातर हिस्सा या तो ईसाई है या फिर मुसलमान। 

इस नजरिए को पीढ़ी दर पीढ़ी लादने के लिए बचपन से ही नर्क की आग का डर दिखाया जाता है। यहां तक कि ज्यादातर वयस्क भी इन विश्वासों पर सवाल नही उठाते क्योंकि यह उनकी मानसिकता में शामिल हो गया है। इस बात पर यकीन करने में सुकून मिलता है, उनके जैसे विश्वास वाले लोगों की संख्या बहुत ज्यादा है। इसलिए इस भगवान की किसी तरह की आलोचना की स्थिति आने पर बलपूर्वक उसकी रक्षा की जा सकती है। 

हालांकि ईसाईयत और इस्लाम दोनों की शुरुआत अब्राहम से ही हुई है और सृष्टि की रचना के बारे में दोनों समान विचार रखते हैं। लेकिन दोनों ही यह दावा करते हैं, कि उनकी ईश्वर ही सच्चा है। 

इसलिए  वह इसे अपना दैवीय आदेश द्वारा दिया गया कर्तव्य मानते हैं, कि पूरी दुनिया को अपने भगवान में विश्वास करने के लिए मजबूर कर दें।  इसका मतलब यह है कि ईसाईयों का दावा है सभी को ईसाई होना चाहिए, जबकि मुसलमानों का दावा है, कि स्वर्ग जाने के लिए सभी को इस्लाम को स्वीकार करना चाहिए। अपने इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए वह क्रूरता की हदें भी पार करने के लिए तैयार होते हैं। 

दोनों ही एकजुट होकर यह दावा करते हैं कि जो लोग कई भगवानों की उपासना करते हैं, वह उनके एकमात्र सच्चे ईश्वर की दृष्टि में सबसे बड़े अपराधी हैं और उन्हें खत्म कर देना चाहिए। यह ऐसे लोगों खास तौर पर हिन्दुओ को बदनाम करना उचित समझते हैं, क्योंकि वह उन्हें ‘मूर्तिपूजक’ के रुप में देखते हैं। 

भगवान की इस अवधारणा की तत्काल समीक्षा की जानी चाहिए- बाहरी रुप से ही नहीं बल्कि आंतरिक रुप से भी। क्या यह संभव है कि सर्वोच्च ईश्वर एक तरह की अति मानवीय इकाई की तरह है, जो अपने अनुयायियों का पक्ष लेता है और दूसरों को क्षमा करने के लिए तैयार नहीं होता है। 

ऐसे में प्राचीन भारतीय विचारों पर गौर किए जाने की जरुरत है। 

प्राचीनकाल में जब ईसाईयत और इस्लाम का कोई अस्तित्व नहीं था, तब वैदिक धर्म, जिसे आजकल हिंदू धर्म के नाम से जाना जाता है, सर्वोच्च सत्य के बारे में उसकी समझ बहुत ही परिपक्व थी। जिसे ब्रह्म के नाम से जाना जाता था। जिसके दूसरे नाम भी हैं, जैसे परमात्मा या तत्।

ब्रह्म व्यक्तिगत नहीं है और ना ही यह कोई अतिमानवीय इकाई है। यह न तो स्त्री है और ना ही पुरुष है। बल्कि यह सबसे सूक्ष्म, अदृश्य, जागृत और सभी का आधार है। ऋषियों ने जिस सत्य पर ध्यान केन्द्रित किया उससे उन्हें गंभीर अंतर्दृष्टि प्राप्त हुई। की अवस्था में कठोर तपस्या के बाद आश्चर्यजनक अंतदृष्टि पाया है। उन्होंने इस बात की उद्घोषणा की, कि ब्रह्म वह नहीं है जिसे आंखें देखती हैं, बल्कि ब्रह्म वह है जिसकी वजह से आंखें देख पाती हैं। ब्रह्म वह नहीं है जिसे मस्तिष्क सोचता है, बल्कि ब्रह्म वह है जिसकी वजह से मस्तिष्क सोच पाने में सक्षम हो पाता है। (केन उपनिषद्)

उन्होंने यह महसूस किया कि यह ब्रह्मांड, ब्रह्म की झूठी अवधारणा है, जो कि पूरी तरह इसपर आधारित है लेकिन यह सत्य नहीं है। 

उदाहरण के तौर पर हम कम रोशनी में रस्सी को साँप समझ लेते है, तो उसे मारने के लिए उछल पड़ते हैं और हमारी धड़कनें तेज हो जाती हैं क्योंकि हम उसे ही सच मानते हैं। लेकिन जैसे ही हम यह समझ जाते हैं कि यह सांप नहीं बल्कि रस्सी है, हमारा सारा डर चला जाता है।

ऋषियों ने एक और उदाहरण देकर समझाया है कि कैसे कई बार सत्य हमारी आंखों के सामने होता है, लेकिन हम उसे देखने से चूक जाते हैं। जब हम किसी मिट्टी के बर्तनों की दुकान पर जाते हैं तो वहां हम कई तरह के पात्र जैसे कप या मग देखते हैं। लेकिन हम उस मिट्टी को नहीं देखते जिससे इन सबका निर्माण हुआ है। यह मिट्टी ही वास्तविक है, जो कि उस अस्थ्यी कप रुपी पात्र का मूल आधार है। जब यह कप टूट जाएगा, तो सिर्फ मिट्टी ही बाकी रहेगी। 

ठीक इसी तरह ब्रह्म ही हमारे व्यक्तित्व का आधार है और जब हमारा अस्तित्व समाप्त हो जाता है तो सिर्फ ब्रह्म ही बाकी रह जाता है। इन ऋषियों के पास अपने विचारों के लिए पर्याप्त सबूत उपलब्ध है। 

ठीक इसके उल्टा ईसाई और इस्लाम धर्मों के गुरु कहानियों की एक किताब पर भरोसा करते हैं। जबकि ऋषियों ने जबरदस्त तरीके से बुद्धिमत्तापूर्वक उस सत्य को हासिल किया, जो कि प्राचीन ग्रंथों में झलकता है। खास तौर पर उपनिषदों में। उदाहरण के तौर पर उनके पास सत्य के लिए एक स्पष्ट मापदंड हैं। 

पहला – अतीत, वर्तमान और भविष्य, हमें हमेशा इनका ध्यान रखना चाहिए। 
दूसरा - इसे दिखाने के लिए चकाचौंध या बाहरी आवरण की जरूरत नही होनी चाहिए यह स्वयं स्पष्ट होना चाहिए।

इन दो मापदंडों ने पूरे ब्रह्माण्ड को असत्य बताते हुए खारिज कर दिया गया। तथ्यों के परे यह हमेशा से नहीं था, इसे चमकदार दिखने के लिए किसी की जरुरत होती है- इसे चेतना की आवश्यकता है। 

तो फिर ब्रह्मांड को सत्य के रुप में खारिज करने बाद आखिर बचता क्या है? ऋषियों का दावा है, कि सब कुछ नष्ट होने के बाद सबसे सूक्ष्म चैतन्य ही आधार के रुप में बच जाता है। इसका अर्थ यह है, कि यही हमारी जागरुकता का मूल स्रोत है। यह किसी अलग स्थान पर रखी हुई कोई अलग वस्तु नहीं है। 

यह सदैव हमारे साथ ही होता है और कई बार यह होता है कि हम सत्य को समझने के लिए अपने अंदर झांकने में चूक जाते हैं। हम यह नहीं जान पाते, कि वह क्या है जो शाश्वत है। वह वास्तविक सत्य जो हमारे अंदरुनी मस्तिष्क की पल-पल बदलती हुई गतिविधियों के भी अंदर स्थित होता है। हमें अपने अंदर इसके लिए समर्पण भाव विकसित करना चाहिए। 

दुर्भाग्यवश हम अपने जागरूकता के इस स्रोत से परिचित होने से चूक जाते है। क्योंकि हम बाहर झांकना ज्यादा पसंद करते हैं और बेहद मुश्किल से कभी कभी अपने मस्तिष्क को शांत करने का प्रयास करते हैं। 

यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है, क्योंकि ऋषियों ने बताया है कि हमारा आंतरिक तत्व ना केवल बहुमूल्य प्रेरणाओं का स्रोत है, बल्कि यह अति आनंददायक भी है। सांसारिक वस्तुओं के जरिए प्राप्त किसी भी खुशी से भी ज्यादा आनंददायक। ऋषियों ने इसे अपने अनुभव के आधार पर बताया है। 

इसलिए अंग्रेजी का शब्द ‘गॉड’ वास्तव में उस सर्वोच्च और आखिरी सत्य को नही दर्शाता है। 

बल्कि इस शब्द में निहित एक महान शक्ति को दिखाता है, जो कि मुख्य रुप से हिंदू धर्म में बताए गए देवताओं की बराबरी का है, जिनके यह दो धर्म बेहद निम्न श्रेणी के हैं। 

वैदिक देवताओं में मुख्य रुप से निजी शक्तियां थीं, जो कि हमारी दुनिया को संचालित करने के उद्देश्य से थीं। इनकी उदारता पर मनुष्यों के जीवन की खुशहाली निर्भर करती थी। 

फिर भी अब्राहमिक देवताओं से अलग इन्होंने कभी अपने आगे सर नहीं झुकाने वाले लोगों को नर्क की शाश्वत अग्नि में झोंकने का दावा कभी नहीं किया। 

यह अजीब बात है कि मुस्लिम और ईसाई धर्म के लोगो को यह अहसास नही है कि उनका व्यक्तिगत और पक्षपात पूर्ण भगवान शाश्वत सत्य तो कतई नहीं हो सकता। वैज्ञानिकों को यह बात पता है। बल्कि कुछ वैज्ञानिक इस बात से पूरी तरह वाकिफ भी हैं कि जिस इस सृष्टि के कारण स्वरुप वह परमसत्य की तलाश कर रहे हैं वह प्राचीन भारत का ब्रह्म ही है। आधुनिक समय के कई बड़े वैज्ञानिक जो कि नाम से यहूदी या ईसाई प्रतीत होते हैं वह प्राचीन भारतीय सनातनी बौद्धिकता से प्रभावित हैं- जैसे  वोल्टेयर, स्कोपेनहॉयर, श्रोएडिंगर, हाइजेनबर्ग, ओपेनहाइमर, आइंस्टीन से लेकर स्टीव जॉब्स और एलन मस्क तक। यह सब भारत के प्राचीन ज्ञान से प्रभावित थे। 

यह संभव है, कि ईसाईयत और इस्लाम के ठेकेदार पादरी और मौलवी इसे स्वीकार करना नही चाहते है। क्योंकि यह विचार उन लोगों के विश्व पटल पर छा जाने की महत्वकांक्षा के विरुद्ध है। 

वह मानते हैं कि उनके भगवान द्वारा नर्क की आग में झोंके जाने की धमकी, जो कि वास्तव में पादरी और मौलवियों के जरिए सामने आता है, वही उनके मत में विश्वास करने वाले लोगों को रास्ते पर बनाए रखने के लिए पर्याप्त है। क्योंकि यह मानवीय बुद्धिमत्ता को एक खास तौर पर बने खांचे में बनाए रखता है, तो कि तर्कवाद के लड़ने में काम आता है।  

लेकिन हिंदुओं ने इस बने बनाए खांचे का त्याग कर दिया है। उन्हें यह नहीं बताया जाता है कि किसपर भरोसा करना है। उनमें से ज्यादातर भगवानों पर भरोसा नहीं करते, लेकिन वह जानते हैं कि ब्रह्म ही सत्य है और भगवान भी उतने ही वास्तविक हैं जितना कि एक व्यक्ति हो सकता है- अर्थात शाश्वत ब्रह्म का अस्थायी स्वरुप। 

यह बौद्धिक स्वतंत्रता ही वह कारण है, जिसकी वजह से पूरी दुनिया में उनकी बुद्धिमत्ता और स्वीकारा और सराहा जाता है- और वह भी इस तथ्य के बावजूद, कि भारतीय छात्रों को एक विदेशी भाषा में अध्ययन की बहुत बड़ी और असमानता भरी मजबूरी से गुजरना पड़ता है। 

मारिया विर्थ
(मारिया विर्थ जर्मन नागरिक हैं, जो कि भारतीय संस्कृति से अभिभूत होकर पिछले 38 सालों से भारत में रह रही हैं। उन्होंने सनातन धर्म के सूक्ष्म तत्वों का गहराई से अध्ययन करने के बाद, अपना पूरा जीवन सनातन मूल्यों की पुनर्स्थापना के कार्य हेतु समर्पित कर दिया है।)