केंद्र ने उच्चतम न्यायालय में 1993 में अधिगृहित 67.703  एकड़ जमीन को गैर-विवादित बताते हुए इसे इसके मालिकों को लौटाने की जो अपील की है उस पर उच्चतम न्यायालय को फैसला करना है। 

30 सितंबर 2010 को इलाहाबाद इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 2.77 एकड़ जमीन को विवादित बताते हुए दो हिस्सा हिन्दू पक्षों को और एक हिस्सा मुस्लिम पक्ष के बीच बांट दिया था। केन्द्र की अर्जी को देखें तो उसने केवल 0.313 एकड़ जमीन को ही विवादित बताते हुए शेष संबंधित पक्ष को वापस सौंपने की अपील की है। 

प्रश्न है कि इसमें हो क्या सकता है? 

आइए 33 पृष्ठों की सरकार की याचिका के कुछ बिन्दुओं पर नजर दौड़ाते हैं। 
‘‘केंद्र ने विवादित परिसर समेत कुल 67.703 एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया था। अब हम अतिरिक्त और गैर-विवादित जमीन उनके मूल मालिकों को लौटाने की अनुमति चाहते हैं और यथास्थिति बरकरार रखने के 2003 के उच्चतम न्यायालय के फैसले में बदलाव चाहते हैं।

‘मुस्लिम समाज ने भी 0.313 एकड़ के मूल विवादित क्षेत्र पर ही अपना दावा जताया है, जहां 1992 से पहले विवादित ढांचा मौजूद था।...1993 के कानून के तहत अधिगृहित की गई शेष संपत्ति पर किसी भी मुस्लिम पक्ष की ओर से मालिकाना हक का दावा नहीं किया गया है।...

‘‘जमीनें उनके मूल मालिकों को लौटाने की मांग राम जन्मभूमि न्यास की है। न्यास ने अपनी 42 एकड़ जमीन मांगी है।.. ‘‘सरकार को एक प्लान मैप बनाकर न्यास और अन्य मूल भूमि मालिकों को उनकी जमीन लौटा देने में सैद्धांतिक रूप से कोई आपत्ति नहीं है, बशर्ते विवादित स्थल तक उचित पहुंच बनी रहे।.....

‘‘31 मार्च 2003 के फैसले में उच्च्तम न्यायालय ने सिर्फ विवादित जमीन पर यथास्थिति बरकरार रखने का निर्देश देने की बजाय आसपास की अधिगृहित जमीनों पर भी यथास्थिति बनाए रखने के निर्देश दिए थे।....

‘2003 के निर्देश में भी सुप्रीम कोर्ट ने साफ तौर पर कहा था कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय का फैसला आने तक वहां यथास्थिति बनाए रखी जाए।’

1994 के फारुकी केस में उच्चतम न्यायालय ने कहा था कि अगर केंद्र चाहे तो सेंट्रल एरियाज ऑफ अयोध्या एक्ट के तहत मूल विवाद के 0.313 एकड़ इलाके के अलावा अतिरिक्त अधिगृहित जमीनें उनके मूल मालिकों को लौटा सकता है। गैर-विवादित जमीन लौटाने के फैसले की न्यायिक समीक्षा या उसकी संवैधानिक वैधता जांचने की जरूरत नहीं है।

इसमें कहा गया है कि आवेदक (केंद्र) अयोध्या अधिनियम, 1993 के कुछ क्षेत्रों के अधिग्रहण के तहत अधिगृहित भूमि को वापस करने/ बहाल करने/सौंपने के अपने कर्तव्य को पूरा करने के लिए न्यायालय की अनुमति के लिए यह आवेदन दाखिल कर रहा है। केंद्र ने उच्चतम न्यायालय के इस्माइल फारुकी मामले में फैसले का जिक्र करते हुए कहा कि शीर्ष अदालत ने माना था कि अगर केंद्र अधिगृहित की गई संपत्ति को उनके मूल मालिकों को लौटाना चाहे तो वह ऐसा कर सकता है। 


उसने कहा, ‘एक पार्टी ‘राम जन्मभूमि न्यास’ (जिसकी लगभग 42 एकड़ जमीन अधिगृहित की गई है) ने इस अदालत के संविधान पीठ के फैसले पर भरोसा करते हुए एक आवेदन दायर किया है।’
 
बहुत सारे प्रश्नों तथा आशंकाओं का उत्तर इस याचिका से ही मिल जाता है। यह कहा जा रहा है कि सरकार बिना अध्यादेश लाए गैर-विवादित जमीन पर मंदिर निर्माण का रास्ता साफ करने की कोशिश कर रही है। इसे स्वीकारने में कोई हर्ज भी नहीं है। 

भाजपा ने 2014 के घोषणा पत्र में कहा था कि संविधान के दायरे में अयोध्या के विवादास्पद स्थल पर मंदिर निर्माण का रास्ता तलाशा जाएगा। इस नाते सरकार के इस पहल को सही कहना होगा। 

सरकार की चाहत स्पष्ट है। 0.313 एकड़ की विवादित जमीन पर यथास्थिति बनी रहे, उस पर न्यायालय सुनवाई करे किंतु जिन जमीनों पर विवाद नहीं है उन्हें उनके मूल मालिकों को दे दिया जाए। इसमें से 42 एकड़ जमीन रामजन्मभूमि न्यास की है। 


प्रश्न है कि क्या गैर-विवादित जमीन वापस मिल सकती है? इससे जुड़ा प्रश्न यह है कि क्या उच्चतम न्यायालय गैर-विवादित जमीन को संबंधित मालिकों को लौटा सकता है?

 केन्द्र सरकार की अर्जी के बारे में यह कहा जा रहा है कि वह न्यायालय से उस आदेश को रद्द करने की मांग कर रहा है जिसमें यथास्थिति क़ायम रखने का आदेश है। 


जरा जमीन की स्थिति का समझिए

1993 के अयोध्या कानून के तहत नरसिंह राव सरकार ने 67.703 एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया था। कहा जा रहा है कि विवादित जमीन के आसपास की जमीन का अधिग्रहण इसलिए किया गया था ताकि विवाद के निपटारे के बाद उस विवादित जमीन पर कब्जे या उपयोग में कोई बाधा नहीं हो। हालांकि 1994 के इस्माइल फारुकी मामले में कहा गया है कि यह जमीन इसलिए अधिगृहित किया गया क्योंकि भविष्य में जिसके पक्ष में विवादित परिसर का फैसला आता है उसे वहां तक जाने का स्वतंत्र रास्ता रहे। 

सच यही है कि इसमें से 0.313 एकड़ पर ही विवादित ढांचा था, जिसे 6 दिसंबर 1992 को गिरा दिया गया था। 2.77 एकड़ जमीन तो कल्याण सिंह सरकार ने 1991 में अधिगृहित किया था। रामलला अभी इसी 0.313 एकड़ जमीन के एक हिस्से में विराजमान हैं। 


अनेक लोगों ने इस्माइल फारुखी मामले की जो व्याख्या की है वह सच नहीं है। 1994 में इस्माइल फारूकी पर उच्चतम न्यायालय के फैसले को एक बार फिर से पढ़ने की आवश्यकता है। उच्चतम न्यायालय ने अपने फैसले में कहा था कि विवादित जमीन पर उच्च न्यायालय का फैसला आने के बाद गैर विवादित जमीन को उनके मूल मालिकों को वापिस लौटाने पर विचार कर सकती है। 


इसके पूर्व 1996 में सरकार ने रामजन्म भूमि न्यास की मांग ठुकरा दी थी। इसके बाद न्यास ने उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया जिसे 1997 में खारिज कर दिया गया। 2002 में जब गैर-विवादित जमीन पर पूजा शुरू हो गई तो असलम भूरे ने फिर उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। 


इस याचिका पर सुनवाई के बाद 2003 में उच्चतम न्यायालय ने 67.703 एकड़ पूरी जमीन पर यथास्थिति कायम रखने का आदेश दिया था। असलम भूरे फैसले में उच्चतम ने कहा था कि विवादित और गैर-विवादित जमीन को अलग करके नहीं देखा जा सकता। 


लेकिन इसमें भी साफ लिखा है कि अधिगृहित जमीन को उनके मालिकों को वापस लौटाया जा सकता है, इसके लिए जमीन मालिकों को न्यायालय में अर्जी दायर करनी होगी। तो राम जन्मभूमि न्यास ने अपनी गैर-विवादित जमीन 42 एकड़ पर अपना मालिकाना हक हासिल करने के लिए सरकार से गुहार लगाई और सरकार ने इसी मांगपत्र के आधार पर उच्चतम न्यायालय में अपील की है। 
  
कानूनी स्थिति यही है कि 2010 में उच्च न्यायालय का फैसला जिस 2.77 एकड़ जमीन पर था वो पूरा जमीन विवादास्पद है ही नहीं। विवाद 0.313 एकड़ जमीन का ही है। 1993 में उच्चतम न्यायालय ने इस जमीन पर किसी भी तरह की क्रियाकलाप पर रोक लगाई थी। तो वो कायम रहे। किंतु शेष सारे जमीन पर किसी तरह की गतिविधि को प्रतिबंधित रखना तार्किक नहीं हो सकता। जब केन्द्र केंद्र सरकार यह वचन दे रही है कि विवादित 0.313 एकड़ जमीन पर प्रवेश व निकासी के लिए वह योजना तैयार कर देगी ताकि जमीनी विवाद पर जो भी मुकदमा जीते उसे 0.313 एकड़ जमीन पर जाने- आने में कोई परेशानी नहीं हो तो इसमें समस्या नहीं आनी चाहिए। 


हालांकि फैसला उच्चतम न्यायालय को करना है। अभी तक न्यायालय में जिस तरह मामले को आगे टालने की रणनीति मुस्लिम पक्षकारों ने बरती है उससे हिन्दू समाज में गुस्सा है। सरकार के इस कदम से वह गुस्सा शांत हो सकता है। 


यहां मुस्लिम पक्ष शब्द का उपयोग पूरे मुस्लिम समुदाय के लिए नहीं है। यह केवल उनके लिए है जिनकी राजनीति, सक्रियता, प्रभाव, प्रसिद्धि सब इस विवाद को किसी तरह बनाए रखने में है। ये पूरे मुस्लिम समाज में गलतफहमियां फैलाते हैं और अपनी जिद से हिन्दू समाज के अंदर आक्रोश पैदा करते रहे हैं। केन्द्र के इस कदम का भी ये विरोध कर रहे हैं। 

क्यों भाई? उन जमीनों से आपको क्या लेना-देना है? आपकी लड़ाई जिस 0.313 एकड़ पर है वहां सीमित रहिए। कायदे से मुस्लिम समाज के इन नेताओं को इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले के बाद ही आगे बढ़कर उस स्थान को हिन्दुओं को सौंप देना चाहिए था। 

आखिर तीन न्यायाधीशों में से दो ने तो माना ही था कि मस्जिद मंदिर तोड़कर बनाई गई थी। एक ने कहा कि मंदिर तोड़कर बनाई गई हो इसका पुख्ता प्रमाण नहीं है लेकिन मस्जिद में हिन्दू भवनों के अवशेषों का इस्तेमाल हुआ था। 

उन्होंने भी माना था कि वहां मंदिर का खंडहर था। एक न्यायाधीश ने तो पूरी जमीन हिन्दुओं को सौंपने का फैसला दिया था लेकिन दो ने दो भाग हिन्दुओं एवं एक भाग मुसलमानों को देकर सद्भावनापूर्ण हल का प्रयास किया था। जब वो उसके बाद नहीं मानते आगे क्या मानेंगे? 

गैर विवादित जमीनें रामजन्मभूमि न्यास को यदि उच्चतम न्यायालय दे देता है तो फिर वे वहां निर्माण आरंभ कर सकते हैं। गर्भगृह के लिए उच्चतम न्यायालय के फैसले की प्रतीक्षा करेंगे। 

इस तर्क का कोई मायने नहीं है कि भाजपा को इससे राजनीतिक लाभ हो जाएगा। उसने संघ, विहिप, साधुसंत एवं हिन्दुत्व विचार वाले समर्थको को खुश करने के लिए कदम उठाया है। उद्देश्य जो भी हो यदि यह कानूनी रुप से सही हो तो इसका समर्थन किया जाना चाहिए। बहरहाल, हम उच्चतम न्यायालय के फैसले की प्रतीक्षा करेंगे। 


अवधेश कुमार

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में नियमित रुप से कॉलम लिखते रहते हैं। 
उनके विचार न्याय की मूल अवधारणा को प्रकट करने वाले होते हैं। जिसकी वजह से उनके आलेख मूल संदर्भों और आंकड़ों से लैस होकर पूरी तरह तर्कसंगत हो जाते हैं।