नई दिल्ली: वायनाड को तमिल और मलयालम के शब्द नाड का विस्तार माना जाता है जिसका अर्थ होता है धान की खेती। कांग्रेस द्वारा राहुल गांधी के अमेठी के साथ केरल की वायनाड से भी चुनाव लड़ने की घोषणा के साथ पूरे देश का ध्यान इस ओर आकर्षित हो गया है। एडक्कल गुफाओं, झरनों वं अन्य पर्यटक स्थलों के कारण प्रसिद्ध वायनाड चुनाव तक मुख्य चर्चा का केन्द्र बना रहेगा।

 वायनाड जिले में ही कबिनी की सहायक नदी करमनतोडु पर निर्मित देश का सबसे बड़ा बांध बाणसुर सागर भी है। इसे एशिया का सबसे बड़ा बांध भी कहा जाता है। चूंकि यहां की कुछ चोटियां समूह समुद्र तल से 2100 मीटर तक उंची हैं, इसलिए यह ट्रैकिंग के लिए भी लोकप्रिय है। 

राहुल गांधी के उम्मीदवार बनने के बाद यह तत्काल राजनीतिक ट्रैकिंग का क्षेत्र भी बन गया है। पार्टी की ओर से कहा गया कि केरल से लगातार आ रही कार्यकर्ताओं की मांग को देखते हुए उन्होंने अमेठी के साथ ही वायनाड से भी चुनाव लड़ने का फैसला किया है। 

अमेठी में 2009 के मुकाबले 2014 में जीत का अंतर काफी कम हो जाने और 2017 में यहां की सारी विधानसभा सीटें हार जाने के तर्क को हम परे रखते हैं। राहुल अमेठी में पराजय के डर से भागेंगे यह नहीं माना जा सकता। तो फिर? 

कांग्रेस के वरिष्ठ नेता एके एंटोनी के अनुसार पिछले कई हफ्ते से मांग उठ रही थी कि राहुल दक्षिण भारत से भी चुनाव लड़ें। केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक से नेताओं के ऐेसे बयान आए जिनमें राहुल गांधी को अपने राज्य से चुनाव लड़ने का आमंत्रण दिया गया था। पार्टी बता रही है कि इन राज्यों के नेताओं ने राहुल से इस संदर्भ में मुलाकातें भी की थीं। 

ऐसे आमंत्रण को सार्वजनिक कराने के पीछे मुख्यतः पार्टियों की राजनीतिक रणनीति की भूमिका सर्वोपरि होती है। इससे एक वातावरण बनाकर घोषणा की जाती है ताकि लगे कि वाकई उनके नेता की इतनी लोकप्रियता है कि कई राज्य एक साथ उनको चुनाव लड़ने के लिए अपने यहां बुला रहे हैं। 

राहुल गांधी को राष्ट्रीय स्तर पर बड़े कद का नेता साबित करना कांग्रेस की राजनीतिक रणनीति है और उसके तहत पिछले तीन सालों में काफी कुछ किया गया है। यह कदम भी उसी रणनीति का अंग है। 

वैसे भी अमेठी के लोगों को सामान्य तौर पर समझाना शायद कठिन होता कि परिवार की परंपरागत सीट के साथ उन्हें दूसरी किसी सीट से लड़ने की आवश्यकता क्यों महसूस हुई। अब वे कह सकते हैं कि जनता और कार्यकर्ताओं की मांग को देखते हुए उन्हें ऐसा करना पड़ा है। 

वैसे नेताओं के दो सीटों से लड़ने का यह कोई पहला मामला नही है। इसलिए राहुल का यह कदम असामान्य नहीं है। किंतु दो स्थानों से लड़ने के पीछे कुछ अन्य कारण भी होते हैं। मसलन, 2014 में नरेन्द्र मोदी वडोदरा और वाराणसी दो जगह से लड़े। वे तब गुजरात छोड़ने का संदेश नहीं देना चाहते थे तथा वाराणसी से पूरे उत्तर प्रदेश में पार्टी के पक्ष में बेहतर माहौल की कल्पना थी। 

निश्चय ही राहुल को लड़ाकर कांग्रेस यह संदेश तो देना ही चाहती है कि उनके नेता की उत्तर के अलावा दक्षिण में भी लोकप्रियता है। किंत इसके साथ दक्षिण के राज्यों में पार्टी के पक्ष में माहौल बनाने की भी सोच निहित होगी। कांग्रेस भारत की सबसे बड़ी पार्टी तभी तक थी जब तक उत्तर के अलावा दक्षिण में भी उसका प्रभाव था। 

1977 में पूरे उत्तर भारत में कांग्रेस साफ हो गई लेकिन आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, केरल एवं तमिलनाडु में पार्टी का प्रदर्शन शानदार रहा। 2009 में यदि कांग्रेस 1991 के बाद पहली बार 200 पार कर पाई तो इसका एक कारण दक्षिण में उसका प्रदर्शन ठीक-ठाक था। केरल में उसे तब 13 सीटें मिलीं थीं। 

कांग्रेस वायनाड के चुनाव के पीछे इसके सांस्कृतिक और भौगोलिक महत्व को उल्लिखित करती है। वास्तव में केरल का भाग होते हुए भी वायनाड सीट की सीमा एक ओर कर्नाटक के मैसूर और पार्टी मानती है कि राहुल का यहां से चुनाव लड़ना एक तरह से पूरे दक्षिण भारत का प्रतिनिधित्व होगा। कर्नाटक में कांग्रेस जद-सेक्यूलर की सरकार है जिसके साथ उसका चुनावी गठबंधन है तो तमिलनाडु में भी वह द्रमुक नेतृत्व वाले गठबंधन में शामिल है। 


कांग्रेस का तर्क मान लेते हैं। किंतु वायनाड ही क्यों का जवाब इतने से नहीं मिलता। कृषि प्रधान क्षेत्र होने के कारण कहा जा सकता है कि राहुल गांधी शायद किसानों को लेकर अपनी संवेदनशीलता दर्शाने के लिए यहां से लड़ रहे हैं। 2018 के बाढ़ के बाद से किसानों की समस्याओं को लेकर यहां लगातार आंदोलन हुए हैं तथा माओवादी गतिविधियों की भी सूचनाएं हैं। लेकिन न तो कांग्रेस ने ऐसा कहा है और न राहुल की यह सोच ही है। 


एक बड़ा कारण तो यही है कि कांग्रेस के लिए यह सुरक्षित सीट है। केरल की वायनाड सीट पर अभी कांग्रेस का कब्जा है। परिसीमन के बाद 2009 में वायनाड अस्तित्व में आया था और तब से दोनों बार उसकी ही विजय हुई। हालांकि 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को वायनाड लोकसभा सीट पर केवल 20,870 वोटों के अंतर से जीत हासिल हुई थी। 


कांग्रेस उम्मीदवार एमआई शानवास को वाममोर्चा (माकपा) के सत्यन मोकेरी से 1.81 प्रतिशत ज्यादा मत मिले थे। शानवास को 3,77,035 और मोकेरी को 3,56,165 वोट प्राप्त हुआ था। इस तरह दोनों के मत क्रमशः 41.2 प्रतिशत और 39.39 प्रतिशत थे। भाजपा के पीआर रस्मिलनाथ को यहां से केवल 80,752 मत हासिल हुआ था। 

लेकिन 2009 में कांग्रेस को यहां 4 लाख 10 हजार 703 वोट मिला था। उसके मुकाबले भाकपा को 2 लाख 57 हजार 264 मत मिला था। जीत हार का अंतर यहां 1 लाख 53 हजार 439 था। भाजपा को केवल 31 हजार 687 मत मिले थे। 2009 में भाजपा को 3.85 प्रतिशत एवं 2014 में 8.83 प्रतिशत मत मिला। यह 2009 में चौथे एवं 2014 में तीसरे स्थान पर थी। 

हालांकि केरल में भाजपा का जनाधार इस बीच काफी विस्तृत हुआ है। बावजूद वह अपने गठबंधन के साथ इस सीटे से बहुत बेहतर प्रदर्शन की उम्मीद नहीं कर सकती। इसलिए हम इसकी चर्चा यहीं छोड़ते हैं। तो सुरक्षित सीट एक प्रमुख कारण लगता है। लेकिन यह सुरक्षित है क्यों?


वस्तुतः मुख्य बात वहां के सामाजिक समीकरण की है। राहुल की उम्मीदवारी की घोषणा होते ही मीडिया में वहां की आबादी का उल्लेख होने लगा है। 2011 की जनगणना के अनुसार वायनाड जिले की कुल आबादी 8,17,420 है। इसमें से 401,684 पुरुष और 415,736 महिलाएं शामिल हैं। जिले की 89.03 प्रतिशत आबादी साक्षर है। वायनाड में हिन्दुओं की संख्या 4 लाख 04 हजार ,460 (49.48 प्रतिशत), मुसलमानों की   2 लाख 34, हजार 85 (28.65 प्रतिशत) एवं ईसाइयों की आबादी 1 लाख 74 हजार 453 (21.34 प्रतिशत) है। यहां अनुसूचित जाति 3.99 प्रतिशत और अनुसूचित जनजाति 18.53 प्रतिशत है। 

यह ऐसा जिला है जहां 96.14 प्रतिशत लोग शहरी इलाकों में तथा केवल 3.86 प्रतिशत ही गांवों में रहते हैं। 


लेकिन यह जानकारी पूरी नहीं है। दरअसल, वायनाड जिला वायनाड संसदीय क्षेत्र नहीं है। इसमें वायनाड एवं मल्लपुरम की तीन-तीन विधानसभा क्षेत्र और कोझिकोड की एक विधानसभा सीट आती है। मल्लपुरम की आबादी में 70.04 प्रतिशत मुस्लिम एवं 27.5 प्रतिशत हिन्दू हैं। यहां 2 प्रतिशत ईसाई भी हैं। 

अगर वायनाड लोकसभा क्षेत्र के समीकरण को देखें तो यहां 56 प्रतिशत मुसलमान एवं 44 प्रतिशत हिन्दू एवं ईसाई हैं। यहां कुल 13 लाख 25 हजार मतदाता हैं। कांग्रेस के नेतृत्व वाली संयुक्त लोकतांत्रिक मोर्चा यानी यूडीएफ में इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग भी शामिल है जिसका यहां अच्छा प्रभाव है।  

कहने का तात्पर्य यह कि यहां की मुस्लिम आबादी राहुल के लिए इसे सुरक्षित सीट बना देती है। इस सच को समझने के बाद आप कांग्रेस की रणनीति को लेकर सही निष्कर्ष निकाल सकते हैं। 

केरल में लोकतांत्रिक मोर्चा एवं वाममोर्चा दोनों के बीच मुस्लिम मतों को लेकर प्रतिस्पर्धा रही है। वहां भाजपा के मजबूत न होने के कारण संघ के कार्यकर्ताओं के बड़े वर्ग का मत भी इन दोनों मोर्चा के उस घटक की ओर जाता था जो मुसलमान उम्मीदवारों को हरा सकते थे। अब स्थिति बदली है। 

पिछले सालों में भाजपा यहां मजबूत हुई है। हिन्दुओं के बड़े तबके का आकर्षण यहां भाजपा है। इसी कारण सबरीमाला पर भाजपा के आक्रामक होने के बाद कांग्रेस पर भी इसी रास्ते आने का दबाव बढ़ा। कांग्रेस ने 2014 की समीक्षा में स्वीकार किया कि पराजय का राष्ट्रीय स्तर पर मुख्य कारण पार्टी की हिन्दू विरोधी एवं मुस्लिमपरस्त छवि बन जाना था। इसका लाभ भाजपा को मिला। इसे खत्म करने के लिए राहुल गांधी की निष्ठावान हिन्दू की छवि निर्माण करने की सुनियोजित कोशिशें हुईं हैं।


पिछले वर्ष तीन राज्यों में विजय के बाद उसे शायद इस रणनीति के सफल होने का अहसास भी हुआ है। इसीलिए प्रियंका वाड्रा को भी उसी रास्ते पर चलाया जा रहा है। किंतु कांग्रेस के हिन्दुत्व की सीमा है। वह चुनावों में मुस्लिम मत खिसक जाने का जोखिम भी नहीं उठाना चाहती। केरल के हिन्दू मतों में भाजपा की  पैठ बढ़ने के बाद चुनाव आते-आते उसे अपना आवरण बदलना पड़ रहा है। आंध्र एवं तेलांगना में भी उसकी यही दशा है। तो राहुल मुस्लिम बहुल क्षेत्र से खड़ा होकर यह संदेश देने की भी कोशिश कर रहे हैं कि कांग्रेस ने उनका साथ छोड़ा नहीं है। इस तरह राहुल का वायनाड से लड़ना कांग्रेस के हिन्दुत्व एवं उसके परंपरागत सेक्यूलरवाद, जिसका व्यवहार में अर्थ मुस्लिमपरस्तता हो गया था, के बीच झूलने का परिचायक है। 


भाजपा ने इस पहलू को मुद्दा बना भी दिया है। इसलिए वायनाड राहुल जीत तो सकते हैं, क्योंकि वहां मुसलमान वामोर्चा की जगह उनको प्राथकमिता देंगे। मुसलमानों को भाजपा के खिलाफ राष्ट्रीय स्तर पर राहुल गांधी ही दिखाई देंगे। किंतु ऐसा न हो कि दूसरे राज्यों में इसके विपरीत संदेश चले जाएं। भाजपा ने इसे जिस तरह मुद्दा बनाया है उसमें इसकी संभावना बढ़ रही है। 


दो नावों की सवारी हमेशा खतरनाक होती है। वामोर्चा के नेताओं ने राहुल एवं कांग्रेस के इस रवैये पर जितना तीखा हमला बोला है उसके मायने भी है। वे प्रश्न उठा रहे हैं कि कांग्रेस को अगर भाजपा के खिलाफ लड़ना है तो उसे यह सीट चुनने की क्या जरुरत थी? यहां तो वह हमसे लड़ रही है, इसलिए हम राहुल को हराने के लिए काम करेंगे। 


नरेन्द्र मोदी और भाजपा के खिलाफ एकजुटता का रोमांस तो पहले ही खत्म हो रहा था, केरल से उसका एक कर्कश स्वर और जुड़ गया है। यह विपक्ष के बिखराव ही नहीं, अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए एक दूसरे के विरुद्ध ही भिड़ जाने का संदेश देने वाला कदम है। इसका कुछ न कुछ असर तो देश भर के मतदाताओं पर होगा। और जो होगा वह कांग्रेस के अनुकूल तो नहीं ही हो सकता। 

राहुल गांधी और कांग्रेस के रणनीतिकारों को न भूलना चाहिए कि सोनिया गांधी को भी 1999 में अमेठी के अलावा कर्नाटक में कांग्रेस के लिए तब तक सबसे सुरक्षित सीट बेल्लारी से लड़ाया गया था। वे वहां से जीतीं और कर्नाटक में उसे 18 सीटें भी मिलीं लेकिन अन्य राज्यों में उसका प्रदर्शन खराब रहा तथा कांग्रेस ने तब तक की सबसे कम 114 सीटें जीतने का रिकॉर्ड बना लिया। 

अवधेश कुमार
लेखक वरिष्ठ पत्रकार और विश्लेषक हैं।