राजनीति में न कोई स्थायी दोस्त होता है न ही स्थायी दुश्मन लेकिन फिर भी सुदृढ़ और मौकापरस्त राजनीति में फर्क जरूर होता है| उत्तर प्रदेश शुरुआत से ही राजनीति का गढ़ रहा है और हो भी क्यों न लोकसभा की 80 सीट अकेले उत्तर प्रदेश में ही है। इसीलिए सभी पार्टियों के लिए यहाँ जीत के लिए स्वाभाविक रुप से जोर लगा रही है। ऐसे में प्रदेश की उन दो पार्टियों का "साथी" बन जाना जो कभी एक दूसरे को फूटी आंख भी नहीं सुहाते थे, बहुत आश्चर्यजनक है।
यूपी की राजनीति शुरुआत से ही जात-पात की लीक पर चलती आई है। जहां एक तरह समाजवादी पार्टी को यादवों और ओबीसी जातियों की पार्टी कहा जाता है वहीं बहुजन समाजवादी पार्टी को निचले दलितों की पार्टी माना जाता है।
बसपा की मुखिया मायावती सपा पर शुरुआत से ही दलित विरोधी सोच रखने और दलितों का शोषण करने का आरोप लगाती रही हैं। यही नहीं भारतीय राजनीति के निम्नतर स्तरों में से एक बदनाम लम्हा उत्तर प्रदेश की राजनीति से ही जुड़ा है जो "गेस्ट हाउस कांड नाम से जाना जाता है।
1993 की उस रात को मायावती कभी नहीं भुला सकतीं। उन्होंने खुद स्वीकार किया है कि अगर उस रात वह मीडिया गेस्ट हाउस के बाहर नहीं होतीं तो शायद वो जीवित न रह पाती। क्योंकि सपा के गुंडों ने बसपा नेताओं की जान लेने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी।
1993 की इस घटना का नतीजा यह हुआ की सपा और बसपा हमेशा के लिए राजनैतिक शत्रु बन गए। यह शत्रुता सिर्फ निजी नहीं बल्कि विचारधारा की भी है |
दूसरी तरफ सपा के मुखिया मुलायम सिंह यादव के लिए मायावती के साथ किसी भी तरह का समझौता तो दूर इसका जिक्र करना भी एक सपने की तरह थी।
राज्य में 2017 के चुनावों से पहले पारिवारिक फूट के चलते सपा के वोटर्स भी बंट गए। जहाँ अखिलेश यादव ने मुलायम की बात न मानते हुए कांग्रेस से हाथ मिला लिया वही चाचा शिवपाल और मुलायम सिंह ने खुद को इससे समझौते से अलग ही रखा जिसने नतीजा ये हुआ की सपा और कांग्रेस के गंठबंधन को मुंह की खानी पड़ी|
तबसे ही सपा की पारिवारिक ने एक राजनीतिक रूप ले लिया है और अब ये जगजाहिर है |
"साथी" सपा के लिए मजबूरी
16वीं लोकसभा के आखिरी सत्र के आखिरी दिन, जब मुलायम सिंह यादव ने संसद में खड़े होकर मोदीजी से कहा की "मेरी ये इच्छा है की आप ही दुबारा प्रधानमंत्री बने" तो मानों विपक्ष में हड़कंप मच गया।
शायद ये भारतीय राजनीति के इतिहास में पहली बार था की किसी विपक्ष के गद्दावर नेता ने हाथ जोड़ कर संसद में किसी सत्ताधारी पार्टी के प्रधानमंत्री से इस तरह कहा हो |
लेकिन इस बात से मुलायम सिंह ने एक बार फिर से पारिवारिक फूट और बसपा-सपा के गंठबंधन से नाराजगी को भी जग जाहिर कर दिया| लेकिन ऐसी क्या मजबूरी हो गयी अखिलेश को बसपा से समझता करना पड़ा?
इसके लिए एक बार फिर से से 2017 के चुनावो को समझना होगा। 2017 में अखिलेश यादव की सरकार को उम्मीद थी की वो हर हाल में चुनाव जीत जाएंगे और अगर एंटी-इंकम्बेंसी का कोई असर रहा तो उसके लिए उन्होंने कांग्रेस से गठबंधन किया था। जिसे उन्होंने नाम दिया था "यूपी को ये साथ पसंद है"।
लेकिन उत्तर प्रदेश की जनता को शायद कांग्रेस की भ्रष्ट छवि और सपा की जातीय सोच का ये साथ पसंद नहीं आया और नतीजा ये हुआ की मोदी लहर के चलते बीजेपी को भारी बहुमत से जीत मिली|
जिसके बाद शायद अखिलेश को समझ आगया की कांग्रेस की छवि के चलते वो उत्तरप्रदेश की जनता को बेवकूफ नहीं बना सकते , इसीलिए 2019 के लोकसभा चुनावो में वो ये जोखिम फिर से नहीं उठाना चाहते।
इसलिए उन्होंने फिरसे पुरानी जातिवादी राजनीती के तरफ रुख करते हुए मायावती के साथ हाथ मिलाया है| सपा ये जानती है कि अगर वो अकेले लड़ती है तो दलित वोटर उसके पक्ष में कभी वोट नहीं करेगा, और वो वोट बीजेपी के पक्ष में जा सकता है।
लेकिन अगर बसपा से गठबंधन होता है तो बीजेपी का वोटर बाँट जायेगा |
इसी का फायदा वो उठाने के लिए पुरानी सारी कड़वाहट को भूलकर सत्ता के लालच में बुआ के चरणों में आ बैठे हैं।
"साथी" बसपा की मजबूरी
2014 के लोकसभा चुनावो में बसपा को एक भी सीट पर जीत नहीं मिली, यहाँ तक की 2017 के प्रदेश चुनावो में बसपा के इतने भी विधायक नहीं जीत पाए कि मायावती को राज्यसभा तक पहुंचा सकें |
फिर भी मायावती ने देश का प्रधानमंत्री बनने के सपने देखने शुरू कर दिया है। जिसके चलते बसपा ने कई और राज्यों में भी पार्टी का विस्तार किया है, मध्य प्रदेश, और राजस्थान के हालिया चुनावो में बेशक बसपा ने क्रमशः 2 और 6 सीटों पर जीत दर्ज की लेकिन चुनाव परिणामों ने मायावती के हाथो में हुकुम का इक्का पकड़ा दिया और कांग्रेस को मायावती की शर्तें मानकर उनसे समर्थन लेना पड़ा।
परन्तु लोकसभा चुनाव के मुद्दे राज्य चुनावो से अलग होते हैं, और मोदी लहर के सामने कांग्रेस की नेतृत्व क्षमता पर पहले ही प्रश्नचिन्ह लगा हुआ है ऐसे में मायावती के पास एक ही चारा है कि अपना अस्तित्व बचने के लिए पिछले सारे जख्म भुलाकर सत्ता के लिए अखिलेश से हाथ मिला लें और जो गलती 2017 के चुनावो में सपा ने की थी कांग्रेस से हाथ मिलकर उसे बिलकुल नहीं दोहराएं।
इसलिए मायावती ने कड़े शब्दों में कांग्रेस को पहले ही न कह दी है, और इसी मौकापरस्ती और सत्तालोभी गठजोड़ को "साथी" नाम दिया गया है |
2017 के विधानसभा चुनाव तक एक-दूसरे को गलियां देने वाले अब एक साथ हैं। जहाँ मायावती सपा को गुंडा पार्टी कहती थी वही अखिलेश बसपा को चोरों की पार्टी बताते थे। ऐसे में अब ये जनता को तय करना है को उन्हें कर्मठ, ईमानदार योगी और मोदी की जोड़ी चाहिए या फिर मौकापरस्त, जातिवाद,भ्रष्ट बुआ-बबुआ का साथ |
लेकिन अब तक के हर सर्वे ने मोदी को ही देश का अदला प्रधानमंत्री बनने को जनता की पहली पसंद बताया है | अब देखना ये होगा की की ये "साथी" कितना दूर तक साथ निभाते है क्योंकि भारतीय राजनीती में मौकापरस्ती और लोभ के तर्ज पर बने हुए रिश्ते जल्द ही दम तोड़ देते हैं |