ताजा सफलताओं के बावजूद, राफेल पर बोला गया राहुल का झूठ 2019 में कांग्रेस को भारी पड़ेगा

By Mayur DidolkarFirst Published Dec 17, 2018, 7:18 PM IST
Highlights

कांग्रेस के रणनीतिकारों को इस बात का संज्ञान लेना चाहिए कि एक राज्य में तीन बार के सत्ता विरोधी रुझान और दूसरे राज्य में बीजेपी के अस्त-व्यस्त चुनाव प्रचार के बावजूद कांग्रेस पार्टी अपने दम पर आधी सीटें भी क्यों नहीं जीत पाई।


मैने एक बार लिखा था कि राहुल गांधी मुझे स्वर्गीय देवानंद के फिल्म असली नकली में निभाए गए चरित्र की याद दिलाते हैं। 
जिसमें एक अमीर आदमी के पोते का चरित्र निभाते हुए देवानंद कहते हैं, अगर मैं कागज पर एक लाइन भी खींच दूं तो लोग कहते हैं कि आपने जो किया उस तरह कोई माहिर चित्रकार भी नहीं कर सकता है।  

देवानंद की ही तरह राहुल गांधी के पास भी मीडिया, अकादमिक या मनोरंजन जगत जैसे अभिजात वर्गों में ऐसे मित्रों की कभी कमी नहीं दिखी।

यानी कि कांग्रेस अध्यक्ष को हमेशा हमेशा से मीडिया का सकारात्मक सहयोग प्राप्त था। यहां तक कि तब भी जब वह अपनी पार्टी को एक चुनावी तबाही से दूसरी तबाही की ओर ले जाते हुए दिख रहे थे। लेकिन यह बिना शर्त दिया जा रहे समर्थन का नकारात्मक पक्ष यह था कि यह चापलूसों द्वारा दिए जा रहे फीडबैक पर आधारित था। 

पिछले सप्ताह की शुरुआत में आए विधानसभा चुनाव के परिणाम के बाद उपरोक्त प्रवृत्ति जबरदस्त तरीके से उछाल भरती हुई दिखी और किसी को भी इसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि गांधी परिवार और उनका विशेष समूह को यह महसूस होने लगा है कि 2019 का चुनाव परिणाम उनके बिल्कुल पक्ष में आने वाला है।

हालांकि इससे कोई इनकार नहीं किया जा सकता है कि मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के चुनाव परिणामों ने कांग्रेस पार्टी को कुछ ज्यादा ही उत्साहित कर दिया है। चुनाव परिणामों के बाद के तीन दिनों में जीओपी के कवच में जबरदस्त तरीके से दरारें दिखाई दीं। 
एक संक्षिप्त विश्लेषण निम्नांकित है-     

इसमें कोई संदेह नहीं है कि जेपीसी जांच की मांग को दोगुनी तेजी से करने के बावजूद राफेल सौदे से संबंधित सभी याचिकाओं को खारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कांग्रेस पार्टी को बड़ा झटका दिया है। 
छोटे राजनीतिक फायदे के लिए कांग्रेस ने जिस ‘विच हंट’ की शुरुआत की उसने उसे खाली कर दिया है।
मैं स्पष्ट तौर पर इन पंक्तियों में नरेन्द्र मोदी पर हमला करने की मूर्खता के बारे में लिखा है। जहां कांग्रेस पार्टी व्यक्तिगत सम्मान के मामले में कमजोर पड़ जाती है।  

इसके पीछे मनोवैज्ञानिक के साथ-साथ रणनीतिक कारण भी थे, जो कि अब कहीं नहीं ठहरते। एनडीए सरकार को सुप्रीम कोर्ट की क्लीन चिट का मतलब साफ है कि इस बार के विधानसभा चुनाव के दौरान चलाया गया राहुल गांधी का अभियान झूठ पर आधारित था(चौकीदार ही चोर है)।
जब वह लोकसभा के लिए जनादेश मांगेंगे, तो आप शर्त लगा सकते हैं कि इस पर सवाल खड़े किए जाएंगे।

सुप्रीम कोर्ट का फैसला ने अपनी प्रकृति के मुताबिक राहुल के लिए नियंत्रण से बाहर था। 

हालांकि वही बात उनके मुख्यमंत्रियों के चयन के बारे में नहीं कही जा सकती है। अब तक जो चयन प्रक्रिया अपनाई गई है उससे जाहिर होता है कि कांग्रेस पार्टी फिर से अपने पुराने तरीकों से फंसकर रह गई है। 

जैसा कि खबरों में दिखा कि राजस्थान के सचिन पायलट के समर्थकों ने हिंसक प्रदर्शन किया और छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल और टीएस सिंहदेव के समर्थकों के बीच झड़पें हुई वह उनकी बुराई को जाहिर करने के लिए पर्याप्त नहीं था, पार्टी ने सोनिया गांधी और प्रियंका वाड्रा को को चयन प्रक्रिया में शामिल किया, जबकि मुख्यधारा का मीडिया यह चला रहा था कि मुख्यमंत्रियों के चुनाव को लोकतांत्रिक तरीके से संपन्न करने के लिए ‘एप्प’ का सहारा लिया जा रहा है। 

आज के महत्वाकांक्षी भारत में एक वोटर, खास तौर पर पहली बार वोट करने वाला युवा इस बात से नाराज हो सकता है कि कि जिस नेता को उसने वोट दिया वह अपनी टोपी हाथ में लेकर अपनी किस्मत पर प्रियंका जैसे शख्स के निर्णय की प्रतीक्षा कर रहा है, जो कि एक पूर्णकालिक राजनेता तक नहीं हैं।  

अगर चयन प्रक्रिया में प्रियंका और सोनिया गांधी का शामिल होना पार्टी अध्यक्ष पद की कमजोरी की ओर इशारा करता है वहीं ज्योतिरादित्य सिंधिया और सचिन पायलट जैसे नेताओं को दरकिनार करके कमलनाथ और अशोक गहलोत का चुनाव पार्टी के पुराने मठाधीशों पर काबू पाने में राहुल गांधी की अक्षमता को दर्शाता है।  

हमने इसकी झलक अहमद पटेल के राज्यसभा चुनाव के दौरान देखी,  हमने इसे कर्नाटक में चलने वाले घात प्रतिघात की प्रक्रिया के दौरान महसूस किया और अब हम राहुल की इस अक्षमता को फिर से देख रहे हैं।

जब तक राहुल गांधी जीत के लिए इन पुराने मठाधीशों पर निर्भर होते हुए दिखेंगे तब तक वह अपने हिस्से की मांग करते रहेंगे।  

विशेष तौर पर इस मामले में हमने युवा नेताओं को महत्वपूर्ण भूमिका प्रदान करने में राहुल गांधी के अंदर एक असुरक्षा की भावना देखी। 

मध्य प्रदेश में यह मुद्दा ज्यादा बुरा मोड़ लेता हुआ दिख रहा है जहां कमलनाथ के उपर 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद दिल्ली में हुए भयावह दंगों में शामिल होने का आरोप दोहराया जा रहा है। 

59 साल के शिवराज सिंह चौहान और 65 साल की वसुंधरा राजे की जगह 47 साल के सिंधिया और 41 साल के पायलट को मुख्यमंत्री बनाने से 13 करोड़ पहली बार मतदान करने वाले युवा मतदाताओं के सामने एक मजबूत उदाहरण पेश किया जा सकता था। 
लेकिन इसकी बजाए राहुल गांधी ने उन नेताओं को सत्ता सौंपी, जो कि पहले से सत्तासीन नेताओं से भी ज्यादा उम्र के हैं। 

राहुल गांधी को यह मौका गंवाने की भी जिम्मेदारी लेनी होगी, जिस तरह वो चुनाव परिणाम के बाद जीत का सेहरा अपने सिर बंधवा रहे हैं। 

पुराने मठाधीशों को हटाने में राहुल की नाकामी और युवा नेताओं की जगह उन्हें प्रश्रय देना कांग्रेस पार्टी को महंगा पड़ सकता है। पार्टी में अंदरखाने की जानकारी रखने वाले लोग ही इस राज को जान सकते हैं। 

फिर भी पिछले अनुभवों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि यह इसलिए हुआ क्योंकि अभियान के नेतृत्वकर्ता के तौर पर राहुल में आत्मविश्वास की कमी साफ दिखाई देती है(हालांकि मीडिया ने उन्हें सिर पर चढ़ा रखा है और पार्टी में उनका कोई प्रतिद्वंदी नहीं है)। कांग्रेस पार्टी यह अच्छी तरह जानती है, जो कि सच भी है कि उसका मुकाबला बीजेपी की दुर्दान्त चुनावी मशीनरी और प्रधानमंत्री मोदी के अटूट करिश्मे से है। इसलिए कांग्रेस को समय समय पर गैर-निर्वाचित संस्थाओं पर ही भरोसा करना होगा। समस्या यह है कि पटेल और सिब्बल चालाक रणनीतिकार तो जरुर हैं लेकिन उनकी सार्वजनिक छवि अपेक्षा के अनुरुप बिल्कुल नहीं है।
 
 इसलिए जब तक पार्टी उनकी सेवाएं लेती रहेगी तब तक राहुल कांग्रेस को युवा बना पाने में असफल रहेंगे। 

यह उन चीजों में से एक है जहां उन्हें कार्रवाई से निकालना असंभव है। इसे सरलता से इस तरह समझा जाता है कि जब आप छड़ी का एक छोर को पकड़ते हैं तो आप दूसरे से दूर हो जाते हैं। 

राहुल के सामने 2019 में दो मुख्य चुनौतियां सामने आने वाली हैं। 

मिजोरम में मात खाने के बाद कांग्रेस पूर्वोत्तर से बाहर हो चुकी है। पार्टी को दक्षिण भारत में झटका लग चुका है। कर्नाटक में उसे ज्यादा सीटें मिलने के बावजूद ड्राइविंग सीट पर जूनियर पार्टनर को बिठाना पड़ा। 

तेलंगाना में कांग्रेस की हार ज्यादा नुकसानदेह है क्योंकि उसकी पार्टनर टीडीपी ने मतदाताओं में ज्यादा असंतोष पैदा किया है। 

चंद्रबाबू नायडु का अपनी जमीन खो देना बाकी क्षत्रपों को डरा देगा जब वह कांग्रेस के साथ चुनाव पूर्व समझौते के लिए मेज पर बैठेंगे। 

उत्तर पूर्व और दक्षिण में अपनी जमीन गंवाने के बाद कांग्रेस को आम चुनाव में सिर्फ हिंदी क्षेत्र का ही भरोसा रहेगा। 

इस सूरत में कांग्रेस के पास चुनाव पूर्व समझौते करने के विकल्प सीमित हो गए हैं। क्योंकि राहुल को उत्तर प्रदेश जैसे महत्वपूर्ण राज्यों में गठबंधन के लिए कड़ी कवायद करनी होगी। 

और जाहिर तौर पर दूसरी महत्वपूर्ण चुनौती है संदेश। जनता के बीच दिखाई जा रही भाव भंगिमा को दरकिनार करके पार्टी के रणनीतिकारों को इस बात का संज्ञान लेना चाहिए कि एक राज्य में तीन बार के सत्ता विरोधी रुझान और दूसरे राज्य में बीजेपी के अस्त-व्यस्त चुनाव प्रचार के बावजूद कांग्रेस पार्टी अपने दम पर आधी सीटें भी क्यों नहीं जीत पाई।

छत्तीसगढ़ को छोड़ दें तो कहीं भी कांग्रेस की जीत को जबरदस्त नहीं कहा जा सकता है। 

इसे कतई उत्साहजनक संकेत नहीं कहा जा सकता है जब आप अपने विरोधियो के खिलाफ उस वक्त भी बड़ी जीत दर्ज करने में नाकाम रहते हैं जब उनके विरुद्ध प्रचंड सत्ताविरोधी लहर चल रही हो। 

केंद्र से एनडीए की सरकार को हटाने के लिए कांग्रेस को एक बड़ी जीत की जरुरत थी। क्या कांग्रेस ऐसा संदेश देने में सफल हो पाई, जो अगले लोकसभा चुनाव के लिए कांग्रस के पक्ष में माहौल तैयार कर सके। 

मान लेते हैं कि ‘चौकीदार ही चोर है’ के बनावटी नारे ने विधानसभा चुनाव में काम कर दिया। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने इसकी तो हवा निकाल ही दी है। 
इसका मतलब यह है कि राहुल और उनकी टीम को बिल्कुल नए सिरे से रणनीति बनानी पड़ेगी। यहीं से राहुल की मुश्किल शुरु हो जाएगी। आपने देखा होगा कि दूसरे नेताओं के विपरीत राहुल से कभी भी गंभीरतापूर्वक आर्थिक नीति, रोजगारपक योजनाओं, गोरक्षक और राम मंदिर पर उनके निजी स्टैण्ड से संबंधित सवाल नहीं पूछे गए। 

राहुल 2014 से लगातार मोदी को बुरा बताते आ रहे हैं और मीडिया उनके बयानों को बेहद प्रमुखता से चलाता आ रहा है। अगर हमारी मुख्यधारा की मीडिया सचमुच की पत्रकारिता कर रही होती तो वह राहुल गांधी से उनकी नीतियों के बारे में कठिन प्रश्न पूछती। 

अगले तीन महीनों में, राहुल और उनकी टीम को नई रणनीति के साथ सामने आना होगा। राहुल गांधी को यह साबित करना होगा कि बिना मां और बहन की मदद के भी वह कांग्रेस पार्टी को चला सकते हैं और महत्वपूर्ण निर्णय ले सकते हैं। 

 पुराने मठाधीशों गार्ड को नियंत्रण में रखना और युवा नेतृत्व को प्रेरित करना कि वह राहुल गांधी के नेतृत्व पर भरोसा रखें। क्या ऐसा हो पाएगा? इस प्रश्न के जवाब पर ही 2019 के आम चुनाव में कांग्रेस पार्टी का प्रदर्शन टिका हुआ है। 

मयूर डिडोलकर 

click me!