फ्रांस के पूर्व राष्ट्रपति फ्रैंकोइस होलांदे भले ही कह रहे हों कि 2015 में नरेंद्र मोदी सरकार के सुझाव पर ही अनिल अंबानी को राफेल विमानों के निर्माण के लिए एक साझेदार के तौर पर लिया गया लेकिन हकीकत यह है कि दसॉल्ट एविएशन  ने 2013 में ही रिलायंस समूह को भारत में अपने सहयोगी के तौर पर चुन लिया था। तब दसॉल्ट 126 विमानों के सौदे में सबसे कम बोली लगाने वाली कंपनी के रूप में सामने आई थी। 

2013 में दसॉल्ट के चीफ एक्जीक्यूटिव ऑफिसर (सीईओ) एरिक ट्रैपियर ने इस रिपोर्टर से एक इंटरव्यू के दौरान कहा था कि मुकेश अंबानी की रिलायंस इंडस्ट्री इस विमान सौदे में हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड (एचएएल) के साथ महत्वपूर्ण सहयोगी हो सकती है। इसे उस समय के टेंडर के अनुसार सहयोगी बनाया गया था। 

उस समय ट्रैपियर ने कहा था कि दसॉल्ट रिलायंस इंडस्ट्री के साथ एक संयुक्त उपक्रम कपनीं बनाने के लिए समझौते पर काम कर रही है। इसकी लागत 25 बिलियर डॉलर से अधिक हो सकती है। 

2013 में बंगलूरू में हुए एयर शो के दौरान ट्रैपियर ने कहा था, 'हमारी रिलायंस कंपनी के साथ विशेष साझेदारी है। एक निजी कंपनी होने के नाते रिलायंस रक्षा क्षेत्र में प्रवेश करना चाहती है और हम इस साझेदारी का समर्थन कर रहे हैं। हम भारत में रिलायंस के साथ मिलकर एक संयुक्त उपक्रम (जेवी) कंपनी बनाएंगे।'

दोनों पक्ष राफेल विमानों  के पंखों का निर्माण भारत में करने के लिए एक समझौते पर हस्ताक्षर करने के लिए भी सहमत हुए थे, इससे रिलांयस इंडस्ट्री का रक्षा क्षेत्र में प्रवेश होना था। 

फ्रांसीसी कंपनी ने कहा था कि डील पर साइन हो जाने के बाद संयुक्त उपक्रम (जेवी) कंपनी खोली जाएगी। फ्रांस 2013 में इस समझौते पर हस्ताक्षर की उम्मीद कर रहा था, लेकिन हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड (एचएएल) और दसॉल्ट एविएशन के बीच कुछ मुद्दे हल ने होने के कारण यह सौदा परवान नहीं चढ़ पाया। 

हालांकि, बाद में अंबानी भाइयों ने अपने-अपने लिए बिजनेस के क्षेत्रों का बंटवारा करने का फैसला लिया। बड़े भाई मुकेश अंबानी ने रक्षा क्षेत्र से निकल गए। ऐसे में परिवार में बनी सहमति के चलते अनिल अंबानी दसॉल्ट एविएशन के साझेदार बन गए।