भारत में लोकतंत्र का विराट आयोजन शुरु हो गया है। प्रशासनिक अमले ने चुनाव की वृहत् तैयारियां शुरु कर दी हैं। जनता में चुनाव को लेकर सुगबुगाहट होने लगी है। इसके साथ ही मूल प्रश्न लोगों के दिमाग में फिर से सिर उठाने लगा है कि आखिर किसके हाथ लगेगी 2019 की बाजी। पढ़िए वरिष्ठ पत्रकार अवधेश कुमार का आंखें खोल देने वाला विश्लेषण-
चुनाव आयोग की घोषणा के साथ आम चुनाव की औपचारिक रणभेरी बज गई है। संसदीय लोकतंत्र में 89 करोड़ 88 लाख मतदाताओं वाला यह दुनिया का सबसे बड़ा चुनाव है। इतने मतदाताओं मे 99 प्रतिशत से ज्यादा को मतदाता पहचान पत्र उपलब्ध करा देना भी सामान्य उपलब्धि नहीं है।
दुनिया के दो तिहाई देशों की अलग-अलग जितनी आबादी नहीं है उतनी मतदाताओं की संख्या केवल पिछले लोकसभा चुनाव के बाद बढ़ी है। 2014 के आम चुनाव से 8 करोड़ 43 लाख अधिक मतदाता इस बार होंगे। हालांकि 2009 से 2014 के बीच 10 करोड़ मतदाता बढ़े थे। उसकी तुलना में यह वृद्धि कम है। शायद इस बीच आबादी उस अनुपात में नहीं बढ़ी है। यही नहीं 18 से 19 वर्ष के बीच के ही मतदाता 1 करोड़ 50 लाख के करीब है। अनेक लोकतांत्रिक देशों में इतने भी मतदाता नहीं है।
10 लाख मतदान केन्द्र कोई सामान्य संख्या है क्या? इसके साथ लाखों ईवीएम एवं वीवीपैट तथा कुल मिलाकर एक करोड़ से ज्यादा लोगों की चुनाव आयोजित कराने में भूमिका। पश्चिमी देशों के विश्लेषक इस आंकड़े को देखकर ही भौचक्के रह जाते है। इसलिए भारत का आम चुनाव दुनिया भर के चुनावशास्त्रियों तथा राजनीतिक विश्लेषकों के लिए सबसे रुचि का कारण रहता है।
भारी संख्या में ये लोग चुनाव अभियानों तथा मतदान व मतगणना का अवलोकन करने आते है। हालांकि 2009 के चुनाव को सर्वाधिक अरुचिपूर्ण चुनावों में माना जाता है। किंतु 2014 के आम चुनाव में नरेन्द्र मोदी के राष्ट्रीय राजनीति में आविर्भाव के साथ राजनीति का पूरा वर्णक्रम बदल गया। नेताओं की सभाओं में खाली रहते मैदानों में जगह कम पड़ने लगी, जो मुद्दे कभी हाशिये में चले गए थे सारे सतह पर आने लगा, आक्रमण-प्रत्याक्रमण का ऐसा वातावरण बना जैसा भारत के चुनावों में पहले कभी नहीं हुआ। इन सबका परिणाम 66.40 प्रतिशत के रिकॉर्ड मतदान के रुप में सामने आया। 1984 के बाद किसी पार्टी को पहली बार बहुमत मिला। कांग्रेस को इतिहास के सबसे कम 44 सीटों पर सिमट गई। अनेक पार्टियों का नामलेवा भी लोकसभा में नहीं पहुंचा। अनेक पार्टियों के लिए सन्निपात की स्थिति पैदा हो गई।
वस्तुतः 2014 का आम चुनाव नरेन्द्र मोदी के पक्ष और विपक्ष के लहर का चुनाव था। भारत में किसी नेता ने पहली बार 440 सभाएं तथा 5800 कार्यक्रम किए। इसमें यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या 2019 का आम चुनाव उसका ही विस्तार होगा या इसका चरित्र कुछ अलग होगा? दुनिया की रुचि इस बार नरेन्द्र मोदी के कारण भारत के चुनाव में पिछले चुनाव से काफी ज्यादा है।
चुनाव आयोग ने विपक्षी दलों द्वारा ईवीएम पर लगातार उठाई गई आंशकाओं को हालांकि बार-बार खारिज किया है। किंतु उसने सभी ईवीएम के साथ वीवीपैट की व्यवस्था कर दी है। ऐसा आम चुनाव में पहली बार हो रहा है। इसके बाद किसी को भी चुनाव परिणाम पर उंगली उठाने का आधार नहीं मिलेगा। जीपीएस प्रणाली के कारण सारे मशीनों पर नजर रखी जा सकेगी। कौन मशीन कहां हैं इसका पता आराम से चल जाएगा। मतदाता भी ऐप से बहुत सारी सूचनाएं पा सकेंगे। तो पिछले चुनावों से ज्यादा हाईटेक होगा यह चुनाव। इन सारी व्यवस्थाओं पर दूसरे देशों के पर्यवेक्षकों की टिप्पणियां हमारे लिए ज्यादा महत्वपूर्ण होंगी। तो कुल मिलाकर 66 दिनों तक भारत चुनाव की राजनीतिक गर्मी तथा आयोग की बहुआयामी सक्रियता से संतप्त रहेगा।प्रश्न है कि आखिर इस चुनाव में ऊंट किस करवट बैठेगा?
पिछले चुनाव में भाजपा नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानी राजग में 18 दल शामिल थे तथा इसे 336 सीटें प्राप्त हुईं थीं। कांग्रेस नेतृत्व वाले संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन या सप्रग या यूपीए में 14 दल शामिल थे जिनकी सीटें थीं, 60।
अगर मतों के अनुसार देखें तो पिछले चुनाव में भाजपा को 31.3 एवं राजग को 39 प्रतिशत मत मिला था। इसके समानांतर यूपीए को 23.3 प्रतिशत मत था। इस तरह दोनों के बीच उस समय 16 प्रतिशत का बड़ा अंतर था। कांग्रेस को 19.5 प्रतिशत मत आए थे। इस समय के समीकरण के अनुसार देखें तो भाजपा नेतृत्व वाला राजग तेलुगू देशम एवं रालोसपा के बाहर आने के बावजूद 350 सीटों के साथ मैदान में उतर रहा है। चुनाव में उतरते समय उसके पास 41 प्रतिशत से ज्यादा मत हैं।
इसके समानांतर यूपीए का कोई राष्ट्रीय स्वरुप है ही नहीं। जिसे यूपीए कहते है उसके पास 68 सीटें हैं। कांग्रेस का 19.5 प्रतिशत तथा बिहार, महाराष्ट्र, तमिलनाडु आदि में उसके सहयोगियों को मिला दें तो यह 23 प्रतिशत के आसपास ठहरता है।
पश्चिम बंगाल में वामदलों के साथ गठबंधन कांग्रेस का गठबंधन हो गया है तो उसे मिला देने पर सीटों की संख्या 71 और मत करीब 25 प्रतिशत हो जाती। हालांकि वाम दल भाजपा विरोध में कांग्रेस के साथ गए हैं लेकिन वे यूपीए के भाग नहीं हैं।
कुल मिलाकर 2019 चुनाव पूर्व का जो परिदृश्य है उसमें पिछले लोकसभा चुनाव के आधार पर आंकड़ों की दृष्टि से मजबूत राजग एवं कमजोर संप्रग मैदान में उतर रहा है। नरेन्द्र मोदी पिछले चुनाव में भी सबसे बड़ा मुद्दा थे और इस चुनाव में भी बने हुए हैं।
अंतर इतना है कि 2014 में उनको आने से रोकना मुद्दा था और इस चुनाव में उन्हें किसी तरह सत्ता से हटाना। लंबे समय से विपक्षी दलों का एक ही नारा है, नरेन्द्र मोदी को हटाओ। विपक्ष के अलग-अलग नेताओं ने मोदी के विरुद्ध दलों को एकजुट करने की कोशिश की। भाजपा के विरुद्ध सबका एक संयुक्त उम्मीदवार उतारने की बात हुई लेकिन चुनाव आते-आते वह सब केवल कल्पना ही साबित हुई। जो ममता बनर्जी उस अभियान की एक समय अगुवा थीं उन्होंने ही पश्चिम बंगाल में कांग्रेस के साथ गठबंधन नहीं किया।
बाद में इस अभियान के अगुवा बने आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री चन्द्रबाबू नायडू ने भी अपने प्रदेश में अकेले चुनाव लड़ने का ऐलान किया। वैसे किसी एक नेता को केन्द्र बनाकर विरोध की राजनीति भारत की नई पीढ़ी के मतदाता पहली बार देख रहे हैं।
1991,1996,1998,1999,2004, 2009 एवं 2014 में इस तरह एक नेता के ऐसे तीखे विरोध का वातावरण नहीं था। जाहिर है, 18 वर्ष से लेकर 40 के आसपास की उम्र वाले मतदाता राजनीति का यह परिदृश्य पहली बार देख रहे हैं। ऐसे मतदाताओं की संख्या 65 प्रतिशत के आसपास होगी। इनका मत चुनाव परिणाम के लिए मुख्य निर्धारक होगा। इनमें जो किसी दल से जुड़े नहीं हैं उनके लिए यह बड़ी अजीब राजनीति है। वे पूछते हैं कि एक नेता को हटाओ की यह कैसी राजनीति है?
1977 में विपक्ष का सम्मिलित स्वर इंदिरा गांधी हटाओ का था तो उसके पीछे आपातकाल मुख्य कारण था। 1989 में राजीव गांधी के खिलाफ ऐसा वातावरण बनाने की कोशिश हुई तो बोफोर्स मुख्य मुद्दा था एवं विश्वनाथ प्रताप सिंह कांग्रेस से विद्रोह कर बाहर आए थे। वे उस चुनाव में मुख्य चेहरा थे। इस बार ऐसा कोई वातावरण नहीं है। हां, बनाने की कोशिश जरुर हुई है।
किंतु यह वाकई बना भी है यह कहना मुश्किल है। मोदी विरोधी धरातल पर एक होने का राग अलापने के बावजूद बावजूद विपक्ष के बीच 1977 तथा 1989 जैसी एकजुटता नहीं है। तमाम कोशिशों के बावजूद विपक्ष का राष्ट्रीय स्तर पर कोई गठबंधन नहीं बन सका। राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी या राकांपा के नेता शरद पवार ने इसे देखते हुए बयान दे दिया कि राज्यों में गठबंधन होगा तथा चुनाव बाद भाजपा विरोधी राष्ट्रीय गठबंधन खड़ा हो जाएगा। स्थिति यह है कि कई राज्यों में भी इनके बीच सीटों का तालमेल संभव नहीं हुआ है।
वास्तव में राष्ट्रीय स्तर पर किसी संप्रग या यूपीए का अस्तित्व ही नहीं दिख रहा है। ठीक इसके समानांतर देखें तो चुनाव आते-आते नरेन्द्र मोदी एवं भाजपा के नेतृत्व में राजग राष्ट्रीय स्तर पर संगठित हो चुका है। भले भाजपा ने समझौते में साथी दलों को ज्यादा सीटें दे दीं, अपनी जीती हुई सीटें भी छोड़ दीं लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर राजग का सशक्त चेहरा सामने रख दिया। बिहार में भाजपा 2014 में 22 सीटें जीती थी लेकिन जद यू से समझौता में वह केवल 17 स्थानों पर लड़ रही है। इसी तरह तमिलनाडु में उसने अन्नाद्रमुक, पीएमके एवं एमडीएमके से समझौते के लिए सबसे कम सीटें लिया है।
कांग्रेस ऐसा नहीं कर सकी है। इसका परिणाम सामने है। निस्संदेह, यह स्थिति चुनावों में एक कारक तो होगा। अगर दोनों खेमों की तस्वीर पर नजर दौड़ाएं तो अंतर साफ दिखाई देता है। राजग के पास नरेन्द्र मोदी के रुप में गठबंधन के अंदर एक सर्वमान्य नेता है तथा जहां-जहां संभावना थी वहां सभी राज्यों में सीटों का स्पष्ट बंटवारा हो चुका है। दूसरी ओर कांग्रेस का केवल झारखंड और तमिलनाडु में गठबंधन हुआ है। महाराष्ट्र में संभावना है किंतु अभी तक इसे अंतिम रुप नहीं मिला है। सबसे ज्यादा 80 सीटें देने वाली उत्तर प्रदेश में बसप-सपा-रालोद गठबंधन में काग्रेस को जगह नहीं मिली। इसमं विपक्षी एकजुटता की तस्वीर साफ हो भी तो कैसे?
प्रमुख राज्यों में देश में पांचवा सबसे ज्यादा 39 सांसद देने वाले तमिलनाडु की राजनीति में व्यापक परिवर्तन आ गया है। इस बार तमिलनाडु राजनीति को लंबे समय तक निर्धारित करने वाले व्यक्तित्व एम करुणानिधि एवं जे जयललिता दोनों नहीं हैं। दोनों ओर गठबंधन हो चुका है। पिछली बार अन्नाद्रमुक ने 37 सीटों की एकपक्षीय जीत हासिल की थी। भाजपा को एक सीट मिली थी। भाजपा अन्नाद्रमुक के साथ है तो कांग्रेस द्रमुक गठबंधन मे।
सामान्य धारणा यही है कि वहां 2014 के परिणामों की पुनरावृत्ति नहीं होगी लेकिन द्रमुक एकपक्षीय जीत हासिल करेगा इसकी तो कतई संभावना नहीं दिख रही है। इसी तरह चौथे सबसे ज्यादा सांसद वाले बिहार में लंबे समय बाद चुनाव लालू यादव की अनुपस्थिति में हो रहा है। पिछली बार राजग ने 40 में से 32 सीटें जीतीं थीं। जद यू अलग था, राजद अलग था। इस बार जद यू, भाजपा एवं रामविलास पासवान की लोजपा एक साथ है।
दूसरी ओर चुनाव की घोषणा तक कांग्रेस, राजद, रालोसपा, हम एवं वाम दलों के बीच सीट बंटवारा नहीं हो पाया है। कांग्रेस ज्यादा सीटें मांग रहीं है जो राजद देने को तैयार नहीं। इसमें कम से कम इस समय तो यह कहना मुश्किल है कि राजद नेतृत्व वाला गठबंधन राजग पर भारी पड़ जाएगा। दूसरा सबसे ज्यादा 48 सांसद वाले महाराष्ट्र में राजग को लेकर अनेक आशंकायें खडी की गईं थीं। वहां भी भाजपा ने शिवसेना के साथ आराम से 25 और 23 सीटों पर गठबंधन कर लिया। पिछले चुनाव में दोनों ने क्रमशः 23 एवं 19 सीटें जीतीं थीं। तो सीटों का यह बंटवारा उस अनुसार बिल्कुल सही है।
अगर इन सबको एक साथ मिला दें यह कहने में कोई आपत्ति नहीं होगी कि चाहे मोदी एवं भाजपा विरोध का स्वर जितना तेज रहा हो, चुनाव के प्रवेश द्वार में राजनीतिक समीकरणों एवं अंकगणित के पैमाने पर मोदी विरोधी आगे तो दूर की बात पीछे ज्यादा दिख रहे हैं।
इस चुनाव में पश्चिम बंगाल एवं पूर्वोत्तर भी एक बड़ा कारक होगा। पश्चिम बंगाल की 42 सीटों में भाजपा को पिछले चुनाव में केवल दो सीटें मिलीं थीं लेकिन उसने 17 प्रतिशत मत प्राप्त किया था। तृणमूल को 34 सीटें मिलीं थीं। भाजपा ने ममता बनर्जी एवं तृणमूल के विरुद्ध संघर्ष कर अपना स्थान बनाया है तथा वामदल एवं कांग्रेस तीसरे स्थान पर चले गए है। पंचायत चुनावों में आतंक व हमलों के बावजूद भाजपा ने बेहतर प्रदर्शन किया। चुनाव आयोग ने पश्चिम बंगाल में सात चरणों में मतदान कराने का फैसला किया है। अगर मतदाताओं को सुरक्षा एवं निर्भीक वातावरण मिला तो भाजपा की सीटें दहाई में जा सकती है।
इसी तरह पूर्वोत्तर की 25 सीटों में कांग्रेस की जमीन थोड़ी सी असम में बची है। नागरिता विधेयक तथा नेशनल रजिस्टर को लेकर थोड़ी गलतफहमी के बावजूद ज्यादातर क्षेत्रीय दल भाजपा के साथ हैं। इसका असर चुनाव परिणाम पर यकीनन होगा।
छः राज्य ऐसे हैं जहां कांग्रेस का भाजपा से सीधा मुकाबला हैं। इन राज्यों की 100 सीटों में से कांग्रेस को 2014 में केवल तीन सीटें मिलीं थीं। इनमें से मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान में उसने भाजपा को पराजित किया है तथा गुजरात में अच्छी टक्कर दी है। सामान्य विश्लेषण में अगर परिणाम ऐसे ही रहे तो लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को कम से कम 32-35 सीटें मिल सकतीं हैं। यह उसके लिए उत्साह का कारण होगा।
भाजपा को सबसे अधिक 71 और गठबंधन के साथ 73 सीटें उत्तर प्रदेश से मिली थी। उस समय बसपा और सपा दोनों अलग-अलग लड़े थे। बसपा को 19.77 प्रतिशत तथा सपा को 22.35 प्रतिशत मत मिले थे। बसपा को एक भी सीट नहीं मिली थी। सपा ने 5 जीतीं थीं। इन दोनों का 42.12 प्रतिशत तथा इसमें रालोद के 0.86 प्रतिशत के साथ यह 42.98 प्रतिशत हो जाता है।
भाजपा के 42.63 प्रतिशत तथा अपना दल के 1 प्रतिशत मत को मिला दें कुल 43.63 प्रतिशत होता है। इस तरह बसपा सपा के सम्मिलित मत इनके पास पहुंच जाते हैं। इन मतों के अनुसार गणना यह है कि बसपा सपा रालोद को 42 सीटों पर बढ़त हासिल है। 15 सीटों पर सपा-बसपा के 50 प्रतिशत से ज्यादा वोट थे। 17 सीटों पर भाजपा 10 प्रतिशत से कम अंतर से जीती थी। इनकी एकजुटता ने गोरखपुर, फूलपुर तथा कैराना के चुनाव परिणाम पलट दिए। इस आधार पर पहला निष्कर्ष तो यही होगा कि भाजपा को इन राज्यों में क्षति होगी। 168 सीटें उसे यहीं से मिली थी। अगर यहीं से उसको नुकसान हुआ तो फिर 2014 दोहराना असंभव हो जाएगा।
उत्तर प्रदेश में 2017 के विधानसभा चुनाव के अनुसार देखें तो सपा को 21.82 प्रतिशत मत तथा 47 सीटें एवं बसपा को 22.23 प्रतिशत मत एवं 19 सीटें मिलीं थी। रालोद को 1.78 प्रतिशत मत एवं 1 सीट मिली थी। इन तीनों का मत 45.83 प्रतिशत होता है, जबकि भाजपा के 39.67 प्रतिशत, अपना दल के 0.9 प्रतिशत तथा सुहेलदेव पार्टी का 0.7 प्रतिशत मिलाकर 41.35 प्रतिशत मत ही होता है। इसके आधार पर भी भाजपा का पक्ष कमजोर दिखाई देता है। उत्तर प्रदेश में भाजपा की चुनौतियां ज्यादा बड़ी हैं इससे कोई इन्कार नहीं कर सकता। किंतु क्या यह आवश्यक है कि वर्तमन आम चुनाव में मतदाता उसी अनुरुप मतदान करे और सबको उतना ही मत आए?
वास्तव में चुनाव में कई कारक एक साथ काम करते हैं। उनमें नेतृत्व, सरकार का प्रदर्शन, नेताओं की विश्वसनीयता, राजनीतिक स्थिरता की संभावना, आस-पड़ोस एवं वैश्विक माहौल, राजनीतिक दलों द्वारा बनाए गए मुद्दे। अगर इन सबको साथ मिलाकर देखें तो फिर इस तरह के विश्लेषण काफी कमजोर नजर आते है। इस समय का चुनावी माहौल कैसा है?
वस्तुतः 2019 के इस आम चुनाव में पिछले एक साल से बनाए जा रहे मुद्दों का धरातल पाकिस्तान की सीमा पारकर वायुसेना द्वारा आतंकवादी ठिकानों पर किए गए हमलों के नीचे ढंक रहा है। इस वायु कार्रवाई ने आम चुनाव का बिल्कुल एक अलग जमीनी पीच तैयार कर दिया है। इसकी कल्पना विपक्ष ने की ही नहीं थी। 1999 के चुनाव के पूर्व करगिल युद्ध के कारण कुछ हद तक राष्ट्वाद का वातावरण बना था। लेकिन आतंकवाद के विरुद्ध सीमा पार कर कार्रवाई का यह पहला अवसर है।
2014 में पूरे उत्तर एवं पश्चिम भारत में नरेन्द्र मोदी की लहर थी। उसमें सारे मुद्दे गौण हो गए थे। इस बार आतंकवादी ठिकानों पर वायुसेना की बमबारी ने मोदी के पक्ष में राष्ट्वाद का ऐसा आलोड़न पैदा किया है जिसमें सारे मुद्दे नीचे जा रहे हैं। अगर कोई प्रतिकूल स्थिति पैदा नहीं हुई तो यह 2019 के आम चुनाव के परिणामों का सबसे बड़ा निर्धारक होगा। कितने आतंकवादी मरे, कहां अड्डे ध्वस्त हुए, मसूद अजहर को किसने छोड़ा आदि प्रश्न न केवल राष्ट्रवाद के इस तूफान में तिनके की तरह उड़ रहे हैं बल्कि लोगों में विपक्ष के प्रति खीझ पैदा कर रहे हैं। अभी तक विपक्ष इस आलोड़न की काट तलाश नहीं पाया है।
आप जहां जाइए, आम जनता का संयुक्त और सघन स्वर यही है कि मोदी ने पाकिस्तान की घर में घुसकर मारा है। विरोधी जितना प्रश्न उठाते हैं लोगों का गुस्सा उनके प्रति और बढ़ रहा है। तो हम परिणाम के बारे में कोई भविष्यवाणी नहीं कर सकते, किंतु इस समय गठबंधन, मत प्रतिशत तथा मुद्दे तीनों मामलों में मोदी आगे एवं विरोधी केवल उनका पीछा करने की कोशिश करते दिख रहे हैं।
अवधेश कुमार
लेखक वरिष्ठ पत्रकार और विश्लेषक हैं। उन्हें आंकड़ों के पीछे छिपे तथ्यों का सटीक अन्वेषण करने में विशेष महारत हासिल है।
Last Updated Mar 12, 2019, 12:57 PM IST