ईश्वर हमेशा अंतस् में विराजमान है। हम अपने अहं और गर्हित कर्मों के आवरण में उसकी ज्योति नहीं देख पाते, जिसकी वजह से हम उसको अपने हर कर्म का साक्षी(सारथि) नहीं मान पाते। यही अज्ञान है जिसे ज्ञान के प्रकाश से नष्ट किए जाने की आवश्यकता है। ज्ञान के उदय के लिए सदाचरण ही एकमात्र रास्ता है। 

      यही सनातन मार्ग है, जो कि अभी तक कि जानी गई दुनिया में सर्वश्रेष्ठ है। अद्वैत ब्रह्मवाद का ये सिद्धांत हजारो वर्षों के निरंतर प्रयोग और मानव आचरण के अध्ययन के बाद परिष्कृत हो के इस रुप में आया है। इस जीवन शैली के आधार पर शरीर और मनस का तालमेल बिठाने से असीमित आनंद की प्राप्ति हो सकती है। जो किसी भी मानव जीवन का अंतिम लक्ष्य हो सकता है। इसी असीमित आनंद को परमसुख या मोक्ष की स्थिति कहा गया है। ये एक दिव्य अनुभूति है। जिसका वर्णन शब्दों में नहीं कहा जा सकता है। 

मोटे तौर पर दुनिया के हर महान आध्यात्मिक नेता ने इसी अनुभूति की प्राप्ति की और अपने अनुयायियों को इसे प्राप्त करने की ओर उन्मुख किया। लेकिन सनातनी मनीषियों के अतिरिक्त दूसरे लोगों ने आम जनता की भाषा में इसे वर्णित करने में कुछ न कुछ गलतियां कर दीं। 

अरबी इलाके के पैगंबर ने इस परम आनंद की तुलना अदन के बागीचे में हूरों के बीच बेहतरीन भोजन के साथ रहने से की।

बेथलेहम के युवा संन्यासी ने इसे करुणा के रुप में वर्णित किया जिसे बाद में चर्च के विश्लेषण के बाद भौतिक समृद्धि के रुप में समझा गया। 

बोधिवृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त करने वाले भिक्षु ने इसे सामूहिक रुप से अहिंसक शांति की स्थिति के रुप में देखा। 

यरुशलम के बुद्धिमान संतों के मुताबिक बुद्धिबल की पराकाष्ठा प्राप्त करके ईश्वरीय आनंद हासिल किया जा सकता है। 

 सनातनी मनीषियों ने अध्यात्मिक आनंद की अनुभूति को नेति नेति कह के वर्णित करने से मना कर दिया है। क्योंकि वे समझ चुके थे कि हर आत्मा के लिए परम आनंद की अनुभूति उनके कर्मों के आधार पर होती है। 

कर्म तो शरीर और उससे जुड़ी हुई आत्मा के लिए एक बहुत विशाल और टेढ़ी मेढ़ी गुफा में मार्गदर्शक निशान के तौर पर दीवार के साथ लगाई गई रस्सी की तरह है। आप इस कर्म की रस्सी के सदाचरण वाले हिस्से की ओर बढ़ते हुए मोक्ष के परम आनंद का मजा उठाइए या फिर गर्हित कर्मों के क्षणिक आनंद वाले रस्सी के सिरे के जरिए बढ़ते हुए आत्मनाश की गहरी खाई में विलुप्त हो जाईए। 

यही सनातन धर्म या पद्धति देश, काल और परिस्थिति के हिसाब से शैव, शाक्त, वैष्णव, गाणपत्य, सौर, अघोर, हठयोग, सहजयोगी, अद्वैतवादी स्वरुप लेते हुए वर्षों से जीवित है। सनातनधर्मी इलाके में प्रशासनिक, भौगोलिक और राजनीतिक कारणों से अनेक वर्णों, वर्गों, कबीलों, गोत्रों, परंपराओं का जन्म हुआ।

 चूँकि विश्व की सबसे परिष्कृत जीवन पद्धति का जनक होने की वजह से ये क्षेत्र हमेशा से सम्मान का पात्र रहा है। इसलिए यहां सदियों तक आनृशंसता(लगभग अहिंसक रहते हुए सिर्फ अत्यावश्यक परिस्थिति में ही हिंसा की अनुमति) की जीवनशैली का पालन करता रहा। इस वजह से यहां पूरी दुनिया से जिज्ञासु लोग दल के दल बांध के आते रहे। उनके लिए क्षेत्र की प्रशासनिक और राजनैतिक स्थिति लगातार बदलती रही। जिसके बाद अनेक वर्णों, वर्गों, कबीलों, गोत्रों, परंपराओं के रास्ते से गुजरते हुए जातीय व्यवस्था की नींव पड़ी। 

हजारो वर्षों तक इस ढांचे में समरसता बनी रही। एक स्तर से दूसरे स्तर में आने जाने का आधार मात्र कर्म रहा। क्योंकि सनातनी समाज में लंबे समय तक इस जीवन को पिछले जीवन के कर्मों का परिणाम मानने की प्रवृति रही है। लेकिन धीरे धीरे कर्मों को ईश्वर प्राप्ति का माध्यम मानने की बजाए अपने निजी श्रेष्ठता या हीनता का कारण माना जाने लगा। 

क्योंकि इस सिद्धांत को परिपोषित और परिभाषित करने वाले लोग कर्तव्यच्युत हुए। उन्होंने परम ज्ञान के विस्तार का मार्ग छोड़ के ज्ञान को अपनी और उसके बाद परिवार की विशिष्टता का माध्यम बना के रख लिया। इसके दीर्घकालिक परिणामों के अनुसार भारतीय समाज का ज्यादातर हिस्सा ज्ञान से वंचित हो गया। अब चूंकि ज्ञान ही सभी श्रेष्ठ कर्मों का आधार होता है। सनातनी भूमि ने वैश्विक परिदृश्य में अपनी विशिष्टता गंवा दी। 

 ईश्वर के साम्राज्य में ज्ञान और दिव्य अध्यात्मिक प्रकाश के ठीक पीछे अज्ञान और तमस् का अंधेरा छिपा होता है। ये बात इंसान के निजी जीवन के साथ साथ अलग अलग कालखंड की सभ्यताओं और साम्राज्यों पर भी लागू होती है। जैसे ही ज्ञान का प्रकाश क्षीण हुआ वैसे ही शांति की इस धरती पर संग्रहित संपदा आक्रमणकारियों को ललचाने लगी। इसका नतीजा क्या हुआ इसके बारे में विस्तार से जानने के लिए मध्यकालीन और ब्रिटिश शासन के अधीन भारत से संबंधित इतिहास पढ़ना आवश्यक है। 

लेकिन परमात्मा की प्रिय वो धरती जो कि कभी पूर्ण रुप से ज्ञान के प्रकाश से आप्लावित थी। वहां दिव्य अध्यात्मिक प्रकाश क्षीण तो हो सकता है। लेकिन नष्ट नहीं हो सकता है। आम भारतीय जनता की आकांक्षाओं के मुताबिक बने लोकतांत्रिक स्वरुप के शासन के 60 वर्ष से ज्यादा बीतने के बाद दिव्य ज्योति फिर से लपलपाने लगी है। ये फिर से पूर्ण स्वरुप में आने के लिए बेचैन है। 

इसके संकेत के रुप में भारतीय युवा का पश्चिमी जीवन शैली के आकर्षण के साथ धर्म और अध्यात्म की ओर रुझान को महसूस किया जा सकता है। ये ध्वजप्रणाम करने वाले प्रचारकों के प्रयास से नहीं बल्कि स्वत:स्फूर्त तरीके से जगने वाली दिव्य अध्यात्मिक प्रकाश के उगने का संकेत है। जिसके परिणामस्वरुप एक सनातन विचार आधारित भारतीय और फिर वैश्विक  व्यवस्था की स्थापना होगी। ईश्वर ने इस कार्य के लिए मानव जाति के हृदय में अपना निश्चय छोड़ दिया है।