संगीत और वाद्ययंत्रों का अविष्कार भारत में ही हुआ है। अत्याधुनिक पाश्चात्य वाद्ययंत्र इन्हीं के रूपान्तर हैं। हिन्दू धर्म का नृत्य, कला, योग और संगीत से गहरा नाता रहा है। हिन्दू धर्म मानता है कि ध्वनि और शुद्ध प्रकाश से ही ब्रह्मांड की रचना हुई है। आत्मा इस जगत का कारण है। 

प्राचीन भारती नृत्य शैली से ही दुनियाभर की नृत्य शैलियां विकसित हुई है। भारतीय नृत्य मनोरंजन के लिए नहीं बना था। भारतीय नृत्य ध्यान की एक विधि के समान कार्य करता है। मूलतः यह प्राचीन सनातन धर्मियों द्वारा निर्मित एक योग क्रिया है।

सामवेद में संगीत के साथ साथ नृत्य का भी उल्लेख मिलता है। हड़प्पा सभ्यता में नृत्य करती हुई लड़की की मूर्ति पाई गई है। भरत मुनि का नाट्य शास्त्र नृत्यकला का सबसे प्रथम व प्रामाणिक ग्रंथ माना जाता है। इसको पंचम वेद भी कहा जाता है। यही नहीं सृष्टि के आरम्भिक हिन्दू ग्रंथों और पुराणों में भी शिव और पार्वती के नृत्य का वर्णन मिलता है।

संगीत नृत्य, गायन, वादन सबके प्रथम आचार्य शिव ही माने जाते हैं।

वेद, स्मृति, पुराण और गीता आदि धार्मिक ग्रंथों में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को साधने के हजारों हजार उपाय बताए गए हैं। उन उपायों में से एक है संगीत। संगीत की कोई भाषा नहीं होती। संगीत आत्मा के सबसे ज्यादा नजदीक माना जाता था।

हिन्दुओं के लगभग सभी देवी और देवताओं के पास अपना एक अलग वाद्य यंत्र है। संगीत का सर्वप्रथम ग्रंथ चार वेदों में से एक सामवेद ही है। इसी के आधार पर भरत मुनि ने नाट्यशास्त्र लिखा और बाद में संगीत रत्नाकर, अभिनव राग मंजरी लिखा गया। दुनियाभरके संगीत के ग्रंथ सामवेद से प्रेरित हैं।

भारतीय ऋषियों ने ऐसी सैकड़ों ध्वनियों को खोजा, जो प्रकृति में पहले से ही विद्यमान है। उन ध्वनियों के आधार पर ही उन्होंने मंत्रों की रचना की, संस्कृत भाषा की रचना की और ध्यान एवं स्वास्थ्य में लाभदायक ध्यान ध्वनियों की रचना की। इसके अलावा उन्होंने ध्वनि विज्ञान को अच्छे से समझकर इसके माध्यम से शास्त्रों की रचना की और प्रकृति को संचालित करने वाली ध्वनियों की खोज भी की।

आज का विज्ञान अभी भी संगीत और ध्वनियों के महत्व और प्रभाव की खोज में लगा हुआ है, लेकिन ऋषि-मुनियों से अच्छा कोई भी संगीत के रहस्य और उसके विज्ञान को नहीं जान पाया।