आतंकी संगठन जैश-ए-मुहम्मद  के ठिकानों पर वायुसेना द्वारा आक्रमण की समाचार मिलते हीं पूरे देश में होली जैसा वातावरण बन गया , लोगों ने अपने-अपने तरीक़े से इसका उत्सव मनाया।

 पर जैसे हीं हमारे लड़ाकू पाइलट का पाकिस्तानी सेना द्वारा पकड़े जाने की सूचना मिली, मानो पूरे देश में मातम छा गया। हम भावुक और कमज़ोर हो गये तथा पाकिस्तान को प्रॉपगैंडा करने का पूरा मौक़ा दे दिया। 

इस प्रकार एक बार पुनः इतिहास में हमने अपने कमज़ोर सामाजिक चरित्र का परिचय दिया। हम क्यों यह भूल गए कि युध की स्थिति में सेनायें वीरगति को प्राप्त होती हैं, शत्रु देश द्वारा जीवित पकडे गए लोगों के साथ के व्यवहार के बारे में हमें पहले से ज्ञात है। 

पर एक नागरिक होने के नाते हमारा व्यवहार इस पूरे प्रकरण में अपरिपक्व रहा। इसी अवधि में हमारे एक हेलिकॉप्टर के बदग़ाम में दुर्घटनाग्रस्त होने से पाइलट सहित कई जांबाज़ वीरगति को प्राप्त हुए , आतंकवादियों से लोहा लेते हुए सीआरपीएफ़ के लोगों ने भी बलिदान दिये पर हम पूर्णतः संवेदनहीन बने रहे और यहीं से हम पाकिस्तान के जिहादी रणनीति का पुनः हिस्सा बन गए।

हम अपने ही प्रधानमंत्री के नीयत और कार्यशैली पर शक करने लगे। कुछ पाकिस्तान परस्त राजनीतिक दल और पाकिस्तानी दलालों ने युद्ध जैसी स्थिति में मोदी जी के पूर्व तय रैली और अन्य कार्यक्रमों में हिस्सा लेने को लेकर प्रश्नचिन्ह लगाना शुरू कर दिया। यहाँ तक कि उनके सुरक्षा सलाहकार को भी नहीं छोड़ा गया।

  उल्लेखनीय है कि अमेरिका के 9/11 के आतंकवादी हमले के समय तत्कालीन राष्ट्रपति बुश फ़्लोरिडा के एक स्कूल में थे। अपने सलाहकार द्वारा घटनावों की सूचना मिलने पर भी वे बच्चों के साथ खेलते रहे ,मुस्कुराते रहे और बीच में अपना कार्यक्रम नहीं छोड़ा। बाद में उन्होंने माना कि राष्ट्राध्यक्ष के रूप में उनके आतंकित/पैनिक हो जाने से पूरे अमेरिका में अफ़रा-तफ़री मच जाति और वह टॉवर/पेंटगॉन के आक्रमण से भी भयावह होता।
 
कहना न होगा कि हमारे प्रधानमंत्री भी यहीं संदेश देना चाहते हैं। पुनः इसमें हमारे लिये एक यह भी संदेश है कि हमें अपने सशक्त सुरक्षा बलों में भी निष्ठा और विश्वास रखना पड़ेगा। 

आइए अब पाकिस्तानी युद्ध रणनीति को समझते हैं: 

प्रथम, पाकिस्तानी सेना कोई नियमित सेना नहीं है अपितु एक जिहादी सेना है, जिसका उद्देश्य ‘गजवा-ए-हिन्द’ है। कश्मीर तो एक बहाना है असल में इस्लामिक राज्य की स्थापना करना है। पुलवामा आक्रमण का दोषी आतंकी ने वीडिओ के माध्यम से यहीं संदेश दिया था। पाकिस्तानी आर्मी ने विंग कमांडर अभिनंदन से भी उनके धर्म के बारे मे हीं पूछा था। 

कहना न होगा की प्रत्यक्ष युद्ध में पाकिस्तान न हमसे कभी जीता है और न भविष्य में कभी जीतेगा, पर पाकिस्तान की नीयत और लक्ष्य स्पष्ट है। बिना वर्दी के लड़ाकू हमारे लिए आतंकवादी हैं,पर पाकिस्तान के वो नियमित आर्मी हैं जिनका प्रशिक्षण आर्मी से भी अधिक व्यावसायिक तरीक़े से होती है। 

पहले छद्म तरीक़े से आक्रमण करना, हारने की स्थिति में पीछे हटना तथा बातचीत की पेशकश करना,सर्वदा झूठ का सहारा लेना, झूठ बोलकर मुकर जाना और अपने मज़हबी उद्देश्यों के लिए किसी भी अंतर्रष्ट्रीय क़ानून और समझौते को नहीं मानना, विक्टिम कार्ड खेलना तथा ‘शान्ति वार्ता’ का दिखावा करना पर इस सबके बावजूद अपने अंतिम लक्ष्य कभी नहीं भूलना आदि आदि। 

उपर्युक्त सभी पाकिस्तान के जिहादी रणनीति का हिस्सा है। ज्ञातव्य है कि पाकिस्तान कभी भी परमाणु बम/हथियार का प्रयोग नहीं करेगा क्योंकि ऐसा करना उसके अंतिम लक्ष्य में बाधा है। उल्लेखनीय है कि आणविक आक्रमण की स्थिति में पाकिस्तान “जय श्रीराम” सदा के लिए हो जाएगा। अतः पाकिस्तान ने युक्तिपूर्वक हमारे हीं देश में बड़े पैमाने पर कुछ लोगों/समूह  के  मनोवृत्ति/मनोदशा को बदल दिया है, जो परमाणु बम से भी अधिक ख़तरनाक और भयावह है। 

अतः हमारी सेना को भारत-पाकिस्तान सीमा के अलावा पाकिस्तानी स्लीपर सेल और पाकिस्तानी दलालों अर्थात जिसको भारतवर्ष असहिष्णु दिखता है, पाकिस्तानी दूतावास के अधिकारी पाशा द्वारा बनाया हुआ ‘टुकड़े-टुकड़े’ गैंग, देश में आपातकाल जैसी स्थिति के प्रवक्ता तथा बॉलीवुड के कुछ डरपोक से एक  साथ कई मोर्चे तथा स्तर पर लड़ना पड़ता है। 

सनद रहे कि अगर हम इन परिस्थितियों से लड़ नहीं सकते तो कमसे-कम अपने सेना का मनोबल नहीं गिरायें। किसी भी क़ीमत पर पाकिस्तानी और उसके दलालों के हाइब्रिड युद्ध और प्रॉपगैंडा का हिस्सा न बने। जाने-अनजाने में हमने पाकिस्तानी प्रधान मंत्री को ही शांति दूत बना दिया और अब इसके लिए नोबेल पुरस्कार की भी पैरवी कर रहे हैं। 

यहां यह भी जानना आवश्यक है कि संसदीय व्यवस्था जिहादी तंत्र का मुखौटा तभी तक होता है जबतक कि इस्लामिक मज़हबी राज की स्थापना न हो जाये। इमरान खान जो अपने को तालिबान खान कहलवाना पसंद करता है, इसी तंत्र का कड़ी है।

संजय कुमार
लेखक एक्टिविस्ट हैं तथा आर्ट ऑफ लिविंग से जुड़े हुए हैं

(आलेख में प्रस्तुत विचार लेखक के अपने हैं, जरुरी नहीं कि वह संस्थान की संपादकीय नीति का समुचित प्रतिनिधित्व करते हों)