निरहू हवें हमार, हमसे सटल रहें.... कुछ वर्ष पहले निरहू उर्फ दिनेश लाल यादव के इस गीत को  भोजपुरी क्षेत्र में गगनचुंबी लोकप्रियता मिली थी। जब मैंने आजमगढ़ के 70 वर्षीय मतदाता रामनाथ यादव से पूछा कि इस बार आजमगढ़ में अखिलेश जीतेंगे या निरहू? तो उन्होने यही गीत गाकर निरहू से अपना लगाव, स्नेह और प्रतिबद्धता व्यक्त किया, जबकि उन्हें पता है कि गठबंधन के उम्मीदवार अखिलेश यादव वर्तमान सांसद मुलायम सिंह यादव जी के पुत्र और उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री हैं। वे यहीं नहीं रुकते हैं। आगे कहते हैं कि प्रदेश की सारी सीटों पर अखिलेश के परिवार के लोग ही लड़ेंगे तो हमारे बच्चे क्या करेंगे? पिछली बार हम लोगों ने मुलायम सिंह जी को जिताया था, वे बड़े नेता हैं, उनकी बात अलग है लेकिन इस बार अपने घर का लड़का है, हम उसे जिताएंगे। यह वक्तव्य एक आम मतदाता का है। ऐसा मतदाता जिसकी अगाध श्रद्धा मुलायम सिंह जी में है लेकिन रत्ती भर विश्वास अखिलेश यादव में नहीं है। 

    समझने की बात यह है कि क्षेत्र के ज़्यादातर मतदाताओं का यही सवाल है कि नेता हमारे अपने बीच का होना चाहिए, विशेषकर यादव मतदाता। इसका कारण यह है कि यह सीट पूर्वांचल की लोकसभा सीटों में परंपरागत यादव बाहुल्य सीट है। इसका उदाहरण यह है कि आजमगढ़ में अभी तक 18 लोकसभा चुनाव हुए हैं, जिसमें से 12 बार यादव प्रत्याशियों की ही जीत हुई है। राम हरख यादव, चरनजीत यादव-4 बार, राम नरेश यादव, राम कृष्ण यादव, रमाकांत यादव-4 बार और पिछली बार मुलायम सिंह यादव यहाँ से जीतते रहे हैं। 

    भारत की कुछ विशेष सीटों में आजमगढ़ भी है, जहाँ से उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव गठबंधन की ओर से प्रत्याशी हैं। प्रत्याशी बनने से पहले अखिलेश ने इस सीट को सुरक्षित रूप में ही देखा होगा, जिस पर यादव-मुसलमान का जातीय समीकरण, साथ ही दलितों का गठबंधनी साथ। तीनों को मिलाकर आठ लाख के आस-पास होते हैं। साथ ही यह भी देखा होगा कि पाँच विधान सभा में से किसी पर भी भाजपा का विधायक नहीं है, 3 सपा और 2 बसपा के हैं। इससे अधिक सहूलियत वाली सीट कहाँ मिलती। 

लेकिन इस गणितीय समीकरण को भाजपा ने एक कड़ी लड़ाई में बदल दिया और अखिलेश के विरुद्ध भाजपा की ओर से भोजपुरी के चर्चित गायक और अभिनेता दिनेश लाल यादव उर्फ निरहू को उतार दिया। जहाँ तक 2014 के चुनाव की बात है तो आजमगढ़ से मुलायम सिंह यादव चुनाव लड़े थे और जीते भी थे। मुलायम सिंह के विरुद्ध पहले सपा के, फिर बसपा के और बाद में भाजपा के पूर्व सांसद और बाहुबली नेता रमाकांत यादव थे। मुलायम सिंह यादव चुनाव तो जीत गए लेकिन आजमगढ़ के लोगों के गले रमाकांत यादव की हार नहीं उतरी। खैर भाजपा ने इस बार प्रत्याशी बदल दिया है।

    यदि पिछले चुनाव में पड़े वोटों को देखा जाय तो उस आधार पर अखिलेश को सिर्फ नामांकन करना चाहिए और फिर घर बैठना चाहिए। सपा के मुलायम सिंह यादव को कुल 340306 और बसपा के शाह आलम को 266528 मत मिले थे जिन्हें जोड़ दिया जाय तो 606834 हो रहा है, जबकि भाजपा के रमाकांत यादव को 277102 मत मिले थे। 

लेकिन बात वही है कि राजनीति में अंकगणित नहीं चलता। इस बार के मुद्दों में घर बनाम बाहर भी एक प्रबल मुद्दा है, समीकरण बदल गये हैं। पहली बार मुलायम सिंह यादव चुनाव लड़े तो आजमगढ़ के मतदाताओं ने इसे अपने सम्मान की तरह लिया, साथ ही उस समय बिना बिखरी हुई सपा की प्रदेश में सरकार थी, अखिलेश यादव मुख्यमंत्री और अमर सिंह भी सपा के ही थे, जो आजमगढ़ के ही हैं और सपा को पूर्वांचल में विस्तृत करने में उनका बड़ा योगदान रहा है। 

लेकिन अब स्थितियाँ बदल गईं हैं और केंद्र और प्रदेश दोनों में भाजपा की सरकार है, साथ ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता, योजनाओं और लाभार्थियों की लंबी चौड़ी फेहरिस्त है। जहाँ तक अखिलेश यादव की बात है तो वह आजमगढ़ को अपनी विरासत बनाना चाहते हैं, जिसे आम मतदाताओं ने समझ लिया है। यहीं आकर चुनाव की दिशा बदल रही है जिसे निरहू अपनी लोकप्रियता के सहारे भुनाने की हरसंभव कोशिश कर रहे हैं। यह कहना गलत नहीं होगा कि भाजपा की रणनीति में अखिलेश यादव बुरी तरह उलझ गये हैं। 

    वर्तमान दोनों प्रत्याशियों की लोकप्रियता बिलकुल दो छोर की है। जहाँ अखिलेश यादव ने विरासत में मिली मुलायम सिंह यादव के बृहद राजनीतिक जमीन पर खुद को खड़ा किया है वहीं निरहू ने बिना किसी विरासत के संघर्षों की जमीन पर तपाकर खुद को खड़ा किया है। एक की विरासत वाली राजनैतिक लोकप्रियता है तो दूसरे की लौकिक, जमीनी और व्यावहारिक लोकप्रियता है। 

आजमगढ़ के आम लोगों का कहना है कि निरहु से हमारा रिश्ता किसी नेता जैसा नहीं है, बल्कि घरेलू और स्थानीय है अर्थात उनसे हमारा तीज-त्योहार, शादी-विवाह, जन्म-मरण का संबंध है। क्या गरीब, क्या अमीर एक बुलावे पर निरहू सबके दरवाजे पर आये हैं और सभी का सम्मान बढ़ाया है, जिसका उन्हें लाभ मिलना निश्चय है। 

आजमगढ़ के लिए न तो दिनेश लाल हैं और न ही निरहू हैं, बल्कि निरहुआ है। ‘आ’ उसी के नाम के साथ जुड़ता है जिससे विशेष स्नेह होता है। बच्चों से लेकर, बड़े-बुजुर्गों और महिलाओं तक में बहुत कम लोग ऐसे हैं जो निरहुआ को नहीं जानते हैं। यही निरहुआ की पूंजी है जिसके सहारे वह अखिलेश जैसे बड़े नेता के लिए मजबूत चुनौती पेश कर रहा है। 

संतोष राय
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं और राजनीतिक मामलों के जानकार हैं)