आक्रमणकारियों, दमनकारियों द्वारा हजारों मंदिरों को तोड़ा गया, कम से कम एक को तो सभ्यताओं के प्रतिरोध के रूप में पुनर्निर्मित होना चाहिए। यह मंदिर करोड़ों लोगों के लिए मक्का और जेरूसलम की तरह आस्था का केंद्र होगा।
'हिंदू टेम्पल्स: व्हाट हैपेन्ड टू देम' किताब में इतिहासकार सीताराम गोयल द्वारा एक लेख संपादित कर प्रस्तुत किया गया है। पहला अध्याय अपने जमाने के मशहूर संपादक द्वारा लिखा गया है। इस निबंध 'हाइडअवे कम्यूनलिज्म' में लखनऊ के नदवतुल-उलेमा के रेक्टर उल्लेख करते हैं कि कैसे अरबी और उर्दू में लिखी गई किताब में कई ऐतिहासिक मस्जिदों का उल्लेख किया गया है जो मंदिरों को नष्ट कर बनाए गए थे। लेकिन उनके इस्लामिक स्कॉलर पुत्र अली मियां द्वारा इसके इंग्लिश अनुवाद में छेड़छाड़ की गई।
"यह भी एक सर्वविदित सच है कि मंदिरों को तोड़ा गया और उनकी जगह पर मस्जिद बनाए गए। मंदिरों के पत्थरों, मूर्तियों का इस्तेमाल मस्जिद बनाने में किया गया" संपादक यह लिखते हैं। " यह आधिपत्य घोषित करने का तरीका था, लोगों पर विजय पाने के लिए उनकी आस्था पर हमला किया गया। उन दिनों मंदिर ना सिर्फ पूजा-पाठ करने की जगह थे बल्कि लोगों के सामाजिक जीवन के भी अहम हिस्से थे, लोगों के लिए सीखने-समझने के केंद्र थे। उनके असल महत्व को झूठ बोलकर छिपाया गया"
इसके लेखक कोई और नहीं बल्कि अरुण शौरी हैं, जो अब गाहे-बगाहे नरेंद्र मोदी विरोधी खेमें की तरफ से प्रायोजित तरीके से कड़वे वचन लेकर सामने आते हैं। अन्य मामलों की तरह बड़ी संख्या में मंदिरों के विध्वंश पर उनकी अंतरदृष्टि शायद बदल गई होगी।
लेकिन पहले अरुण शौरी ने जो लिखा है वो आज भी सच है। सौ आने सच।
डेमोग्राफी को लेकर पिछले हजार साल से जारी संघर्ष में आक्रमणकारियों ने दहशत का माहौल कायम करने के लिए हजारों मंदिरों को तोड़ दिया। ऐसा इसलिए किया गया ताकि यहां का सामाजिक तानाबाना तबाह हो और लोग विदेशी संस्कृति के सामने समर्पण कर दें। जो आजकल अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश में भी चल रहा है। इसी दौरान जम्मू-कश्मीर सरकार की 2012 की स्वीकारोक्ति महत्वपूर्ण हो जाती है, खाली कश्मीर में ही 90 के दशक की शुरुआत से आतंकवाद के दौर में 208 मंदिर तोड़ दिए गए।
इस्लामिक और इसाइयों के आक्रमणों और धर्म परिवर्तनों के कारण डेमोग्राफी में परिवर्तन हुआ भी है। इससे कई देशों की संस्कृतियां हाशिए पर चली गईं। माया, एज़्टेक, जोरोस्ट्रियन, मिस्र की सभ्यताएं आखिरी सांसे ले रही हैं। पूरी आबादी का कत्ल कर दिया गया या परिवर्तित कर दिया गया, मंदिरों को धूल में धराशायी कर दिया गया या आक्रमकारियों ने उन्हें अपने अनुरूप बना लिया।
भारत एक जादुई अपवाद तो रहा है लेकिन गंभीर चोटों के साथ।
ऐसे में राम मंदिर का पुनर्निर्माण जरूरी है ताकि दुनिया जान सके कि हमें अतिवाद बर्दाश्त नहीं। भारत आक्रमण और विस्तारवाद में विश्वास नहीं करता लेकिन इसका मतलब यह नहीं हुआ कि हम यह भूल जाएं कि हमारे साथ क्या हुआ।
भव्य राम मंदिर दुनिया भर में उन सैकड़ों संस्कृतियों के लिए शक्ति का स्त्रोत होना चाहिए जिन्होंने आक्रमकारियों के खतरे का सामना किया। इसका मतलब यह होना चाहिए की सहनशीलता को किसी की कमजोरी ना समझा जाय। इसका अर्थ यह हुआ कि दमन का सामना करने के बाद उठ कर कोई अपने स्वाभिमान और आस्था के साथ खड़ा हो सकता है। राम मंदिर सभ्यताओं के निरंतर जारी रहने का प्रतीक होगा।
गुरुवार को आए अदालती आदेश ने संकल्प को एक रास्ता दिखाया है। कोर्ट ने मस्जिद के अंदर मंदिर के होने के तमाम सबूत पाए हैं। अयोध्या में रामजन्मभूमि अन्य मंदिरों की तरह नहीं बल्कि लाखों लोगों के लिए मक्का और जेरुसलम की तरह आस्था का केंद्र है।
इस संकल्प में भी अतीत की तरह सियासी और मनोविज्ञानी दलीलों के साथ देर करने का प्रयास होगा लेकिन अतीत की तरह ही सुप्रीम कोर्ट निश्चित तौर पर इन रणनीतियों को गौर से समझेगा जब 29 अक्टूबर को मुख्य मामले टाइटल सूट पर सुनवाई शुरू होगी।
और यदि सरयू के पार मस्जिद बनती है तो हिंदुओं को खुश होना चाहिए जो भारत के दो बड़े समुदायों के बीच सामाजिक समरसता के पुल के रूप में होगा।