कांग्रेस का घोषणा पत्र अवसर से चूक जाने का दस्तावेज

By Avdhesh Kumar  |  First Published Apr 2, 2019, 7:54 PM IST

कांग्रेस नेता जो भी दावा करें, भले घोषणा पत्र तैयार करने के पीछे सोच-विचार की व्यापक प्रक्रिया दिखती है, इसे प्रभावी और व्यवस्थित बनाया भी गया है किंतु ऐसा लगता नहीं कि यह देश में लंबे समय तक राज करने का अनुभव रखने वाली पार्टी द्वारा की गईं घोषणायें हैं। 
 

नई दिल्ली: कांग्रेस का घोषणा पत्र देखें तो पहली नजर में यह मानने में कोई हिचक नहीं है कि इसमें परिश्रम किया गया है। इसके कारण इसमें कांग्रेस के पिछले तीन-चार घोषणा पत्रों से अलग सामाजिक-आर्थिक विकास तथा सुरक्षा पर कुछ नए विचार हैं तथा इसे व्यवस्थित क्रम में प्रस्तुत किया गया है। इसे घोषणा पत्र की जगह हम निभायेंगे शीर्षक दिया गया है।


 इसका अर्थ समझना कठिन नहीं है। चुनावी घोषणा पत्र के बारे में आम जन धारणा यही है कि पार्टियां लोगों को लुभाने के लिए बहुत सारे वायदे कर देतीं हैं जिनको सरकार में जाने पर लागू करना कठिन होता है। जाहिर है, कांग्रेस की कोशिश है कि मतदाता यह मानें कि कांग्रेस जो कह रही है उसे पूरा करेगी।


 दूसरे, कांग्रेस लगातार यह प्रचारित करने की कोशिश कर रही है कि भाजपा ने 2014 में जो घोषणा पत्र जारी किया सरकार में आने पर उसे लागू नहीं किया है। तो यह अपने को भाजपा से अलग साबित करने की भी कोशिश है। हालांकि मतदाता इसे इसी रुप में लेंगे कहना कठिन है, क्योंकि जिन लोगों ने भाजपा का 2014 का घोषणा पत्र देखा है और मोदी सरकार के कामकाज पर नजर रखा है कि उनके लिए वही सच नहीं है जो कांग्रेस बोल रही है। किंतु राजनीतिक रणनीति के तहत इस तरह की सोच अस्वाभाविक नहीं है। 


कांगेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने घोषणा पत्र जारी करते हुए अपनी आरंभिक टिप्पणी में कहा कि हमने एक वर्ष पहले जब यह प्रक्रिया आरंभ की तो दो निर्देश दिया। एक कि यह बंद कमरे का दस्तावेज न हो। इसमें लोगों का विजन होना चाहिए। यानी यह ऐसा हो जिसे हम कर सके। 
दूसरे, इसमें सब कुछ सच होना चाहिए। यानी एक भी झूठ नहीं हो। लगे हाथ उन्होंने कह ही दिया कि हम प्रधानमंत्री से प्रतिदिन झूठ सुनते हैं। तो क्या वाकई इसे एक वर्ष के परिश्रम के अनुरुप उच्चकोटि और बेहतरी का विश्वास दिलाने वाले सच यानी व्यावहारिक घोषणाओं का दस्तावेज माना जाए?


राहुल गांधी ने कहा इस घोषणा पत्र के पांच थीम हैं। ये हैं, न्याय योजना, रोजगार, किसान, शिक्षा एवं स्वास्थ्य तथा सुरक्षा। हालांकि घोषणा पत्र समिति के अध्यक्ष पी. चिदम्बरम ने अपने आरंभिक वक्तव्य में तीन थीम की बात की - रोजगार, किसान एवं महिला सुरक्षा। हम इसमें यहां नहीं जाना चाहेंगे कि आखिर घोषणा पत्र समिति के अध्यक्ष एवं पार्टी अध्यक्ष के बीच मूल थीम समझने को लेकन यह अंतर क्यों आया। इसे यहीं छोड़कर घोषणा पत्र में वर्णित पांच मूल तत्वों पर चर्चा करते हैं जिनका जिक्र राहुल गांधी ने किया। 

इनमें से सुरक्षा को छोड़कर शेष को एक साथ मिलाकर चर्चा करनी होगी, क्योंकि ये सब सीधे अर्थव्यवस्था और वित्तीय स्थिति से जुड़े हैं। न्याय योजना की चर्चा देश में पहले से हो रही है। यह साफ है कि कांग्रेस की कोशिश इसे चुनाव का सबसे बड़ा मुद्दा बनाने की है। उसे लगता है कि अगर भारत की 20 प्रतिशत आबादी तक यह बात पहुंचा दी गई कि कांग्रेस सरकार में आने के बाद उनके खाते में हर वर्ष 72 हजार रुपया डाल देगी तो इनका वोट उनको मिल जाएगा।  

राहुल गांधी ने कहा भी कि इस बार का चुनावी नैरेटिव सेट हो चुका है- गरीबी पर मार 72 हजार। यह कांग्रेस का नारा है। घोषणा पत्र आने के पहले ही राहुल गांधी ने इसका विवरण देश के सामने रख दिया था। घोषणा पत्र जारी करने के दौरान उन्होंने इसे थोड़ा दूसरे रुप में रखा। 

मसलन, प्रधानमंत्री ने कहा कि 15 लाख रुपया हर खाते में डालेंगे। वह झूठ था। राहुल ने कहा कि मैंने समिति से पूछा कि बताइए हिन्दुस्तान की सरकार गरीबों के खाते में कितना डाल सकती है? उन्होंने 72 हजार रुपया बताया जो कि व्यावहारिक है। वार्षिक व्यय 3 लाख 60 हजार है। इस पर काफी विशेषज्ञों के मत आ गए हैं, जिन्होंने इसे अव्यावहारिक ही नहीं कई मायनों में अपर्याप्त बताया है। इसे साकार करने के साथ ही राशि काफी बढ़ जाने वाली है। इसलिए यह आकर्षक हो सकता है, पर इसे अर्थव्यवस्था तथा सामाजिक-आर्थिक विकास की दृष्टि उचित, उपयुक्त एवं व्यावहारिक कहना कठिन है। 

आप यदि घोषणा पत्र के दूसरे वायदों के साथ जोड़ते हैं तो फिर इसे लेकर अनेक प्रश्न खड़े होते हैं। जब आप ज्यादा से ज्यादा रोजगार देने की बात करते हैं, रोजगार कार्यक्रमों में आवंटन बढ़ाते हैं, किसानों की कर्ज माफी की बात करते हैं, बैंकों को फंसे कर्ज वापस लेने की कार्रवाई को  बाधित करते हैं, शिक्षा और स्वास्थ्य का बजट बढ़ाते हैं तथा किसी योजना को बंद नहीं करते बल्कि उनकी राशि बढ़ाए जाने का संदेश देते हैं तो फिर इसके पूर्ण व्यावहारिक होने को लेकर संदेह पैदा होता ही है। 

रोजगार के क्षेत्र में पहली घोषणा 22 लाख खाली पड़े सरकारी पद को मार्च 2020 तक भर देना है। इसके साथ 10 लाख युवाओं को पंचायतों में नौकरी देने की बात है। यह वायदा नौकरी का प्रयास कर रहे युवाओं के लिए यकीनन आकर्षक है। किंतु इससे अर्थव्यवस्था पर बहुत बड़ा खर्च आएगा। 

दूसरे, मनरेगा में 100 दिनों की जगह 150 दिन रोजगार की गारंटी है। इस समय मनरेगा का बजट है, 60 हजार करोड़। इसका मतलब इसे डेढ़ गुणा यानी 90 हजार करोड़ रुपया करना होगा। 

तीसरे, शिक्षा पर बजट सकल घरेलू उत्पाद का छः प्रतिशत खर्च करने का वायदा है। यानी इसकी राशि करीब डेढ़ गुणा बढ़ेगी। आईआईटी, आईआईएम जैसे संस्थानों को सबकी पहुंच में लाया ही जाना चाहिए। मूल प्रश्न है कि आप इसे करेंगे कैसे? इसका जवाब नहीं है। 

चौथे, स्वास्थ्य सेवाओं में निजी क्षेत्र तथा इन्श्योरेंस को प्रोत्साहित करने की जगह पूरी जिम्मेवारी सरकार के सिर लेने की बात है। इसके लिए भारी संख्या में अस्पतालों की संख्या ही नहीं बढ़ानी होगी, उनको उच्च कोटि का गुणवत्तापूर्ण भी बनाना होगा ताकि वो निजी अस्पतालों की सुविधाओं के समान हो सकें। इस समय तो कोई अनुमान भी नहीं लगाया जा सकता कि इन पर कितना बड़ा खर्च आएगा। जीएसटी में सुधार का वायदा महत्वपूर्ण आर्थिक सुधारों में एक हैं। इसमें बदलाव से कितना अतिरिक्त धन आएगा इसका आकड़ा नहीं है।

 इसलिए ये सब वायदे कानों में मधुर संगीत की तरह जरुर गूंजतीं हैं, इनका इसी रुप में साकार हो जाना असंभव है। हो जाए तो भारत पूरी दुनिया के लिए मिसाल बन जाएगा। 

अब जरा दूसरे पहलुओं पर आइए। एक वर्ष से कम समय में सरकार द्वारा 32 लाख नौकरियां दे देना विश्व के लिए भी रिकॉर्ड होगा। आज तक किसी देश का ऐसा करने का उदाहरण हमारे सामने नहीं है।  आखिर भर्तियों की एक प्रक्रिया होती है। सभी विभागों से खाली पदों का विवरण मंगाना, उनके लिए विज्ञापन जारी करना, लिखित या मौखिक परीक्षा आदि को 10 महीने से कम समय में पूरा कर देना विश्व का नौवां आश्चर्य हो जाएगा। 

रोजगार और कर संग्रह के बारे में यह भी माना गया है कि सम्पूर्ण अर्थव्यस्था में सुधार से राजस्व ज्यादा आएगा एवं रोजगार के अवसर वैसे ही बढ़ जाएंगे। यानी मोदी सरकार ने हर दृष्टि से अर्थव्यस्था को रसातल में पहुंचाया है जिसे पटरी पर ला दिया जाएगा और इससे पूरा कायाकल्प होगा। इसमें रोजगार सृजन के लिए उद्यमियों को प्रोत्साहन की बात है। इसके अनुसार अब बिना किसी प्रकार की पूर्व अनुमति के कोई उद्यम खड़ा कर सकता है। 

कोई उद्यम खड़ा करने के बाद तीन वर्ष तक किसी तरह की पूर्व अनुमति लेने की आवश्यकता नहीं है। बिना ऐसा किए ही उद्यमियों की हर तरह की मदद जिनमें बैंकों से कर्ज दिए जाने का वायदा है। निश्चित रुप से कोई उद्योग या व्यवसाय खड़ा करने के लिए कागजी खानापूर्ति जितनी कम हो अर्थव्यवस्था के लिए उतना ही बेहतर है। 

वर्तमान सरकार ने भी इस दिशा में काफी कदम उठाए हैं, बहुत सारी औपचारिकताओं को ऑन लाइन कर दिया है। किंतु बिना किसी पूर्व अनुमति के उद्यम आरंभ करने के लिए भी सरकार को नियम बनाने होंगे, बैंकों के कर्ज देने के नियम से लेकर अनेक कानूनों में बदलाव की जरुरत होगी। पर्यावरण क्लियरेंस का प्रावधान खत्म करना होगा। यह सब इतना आसान नहीं है जितना घोषणा पत्र में है या राहुल गांधी ने जितनी सहजता से बता दिया। कुछ नियम तो कामगारों के लिए हैं। मसलन, भविष्य निधि योजना, ईएसआईसी आदि। क्या कांग्रेस ने इन सबके बारे में विचार कर लिया है? ऐसा लगता नहीं।  


 अब आइए किसानों पर। एक अलग किसान बजट की योजना आकर्षक है। हालांकि वाकई इसकी आवश्यकता है इस पर एक राय कठिन है। किसानों के लिए कितनी राशि आवंटित हुई, उनके फसल के दाम क्या तय हुए आदि की जानकारी उनको होनी चाहिए यही बात राहुल गांधी ने कही। क्या अभी आम बजट से उनके बारे में जानकारी नहीं होती? किसानों  के लिए इसमें अनेक वायदे हैं।

 हालांकि राहुल गांधी के पूर्व प्रचारों के विपरीत इसमें सत्ता में आने पर केन्द्र द्वारा एकमुश्त कर्जमाफी से बचा गया है। यह कहा गया है कि कांग्रेस अन्य राज्यों में भी कृषि ऋण माफ करने का वायदा करती है। यह ऐसी घोषणा है जिसके भविष्य का आकलन हम कांग्रेस के पूर्व रिकॉर्ड से कर सकते हैं। 

मसलन, 2008 में किसान कर्ज माफी के नाम पर केवल 52 हजार 280 करोड़ माफ किया जाना तथा तीन राज्यों मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ एवं राजस्थान में वायदे के अनुरुप सभी किसानों के सारे ऋण को माफ न किया जाना। 

इसमें दूसरी मुख्य बात है बैंकों के कर्जदार किसानों के मामलों को अपराध की जगह सिविल बना दिया जाना। इसका लक्ष्य कर्ज न लौटाने वाले किसानों को जेल जाने तथा पुलिस उत्पीड़न से बचाना बताया गया है। राहुल गांधी ने कहा कि अनिल अंबानी, मेहुल चौकसी नीरव मोदी बैंक का पैसा लेकर भाग जाते हैं। हमारे किसान वापस नही तो जेल में डाला जाता है। यह ऐसा विषय है जिस पर कोई प्रश्न उठाए तो उसे झट से किसान विरोध करार दे दिया जाएगा। परंतु कर्ज की वसूली कैसे होगी इसका रास्ता तो बताना होगा। अक्षम किसानों को कानून से राहत समझ में आती है।

हालांकि इस पर भी बहुत गहराई से विमर्श की आवश्यकता है। बैंक केवल कर्ज दें और जो जानबूझकर लौटाने से बचे उसके खिलाफ अपराध कानूनों तहत कार्रवाई न हो इससे नई समस्यायें भी खड़ी होंगी। किसान कर्ज का एनपीए वैसे ही बढ़ रहा है। इसका निदान क्या हो सकता है इस मामले पर घोषणा पत्र भी खामोश है और नेताओं ने भी कुछ नहीं कहा। 


राज्यों को केन्द्र सरकार किसानों की कर्जमाफी के लिए कैसे तैयार करेगी यह प्रश्न भी अनुत्तरित है। अब स्वास्थ्य। स्वास्थय में निजी क्षेत्र को प्रात्साहित करना कांग्रेसी सरकारों की नीतियां रहीं हैं। मनमोहन सिंह एवं चिदम्बरम इसके प्रणेता हैं। अब उससे वापस लौटने का निर्णय करने की नौबत क्यों आ गई? क्या वाकई भारत जैसे देश में सबको उचित उपचार देने की जिम्मेवारी सरकारी अस्पताल उठा सकतीं हैं? यह कतई संभव नहीं। 


मोदी सरकार भी देश भर में एम्स का विस्तार कर रही है, पूर्व अस्पतालों का उन्नयन करने की भी कोशिशें जारी हैं। बावजूद आयुष्मान भारत जैसी योजना लानी पड़ी ताकि आम गरीबों को पांच लाख तक के खर्च की स्वास्थ्य सेवायें उपलब्ध हो सके। इसको और बेहतर तरीके से साकार करने की जरुरत तो समझ में आती है। किंतु स्वास्थ्य इन्श्योरेंस को पूंजीपतियों की मदद करने वाला बताकर नकार देने की भंगिमा पर किसी तरह की टिप्पणी ही व्यर्थ है। इनका परित्याग कर सरकारी स्वास्थ्य ढांचा को इतना सक्षम बना देने की कल्पना कम से कम अभी तक के भारत एवं दुनिया के अनुभवों के आलोक में आसमान से तारे तोड़ने से भी कठिन है।


जहां तक सुरक्षा का प्रश्न है तो आंरभ में बहुत अच्छे सिद्धांत वक्तव्य है। सुरक्षा को मजबूत करने, आतंकवाद-माओवाद और अन्य सुरक्षा चुनौतियों से निपटने की बात है, सुरक्षा बलों के लिए भी काफी कुछ है। इसके आगे भी सुरक्षा संदर्भ में मुख्यतः कुछ सुधारात्मक घोषणायें हैं जिनसे न निराशा होती है और न कुछ विशेष किए जाने की उम्मीद जगती है। किंतु कानून, नियमों और विनियमों की पुनःपरख वाले पृष्ठ पर धारा 124 ए को खत्म करने का वायदा है। यह कानून देशद्रोह करने के आरोपियों पर लागू होती है। 

बेशक, इस कानून का दुरुपयोग हुआ है लेकिन इसके कारण कितने देशद्रोहियों के खिलाफ कार्रवाई हो सकी है यह भी नहीं भूलना चाहिए। भारत में प्रत्यक्ष हिंसा से अलग रहते हुए राष्ट्रविरोधी अलगाववाद से हिंसा व आतंकवाद को बढ़ाने तथा माओवाद को मदद करने सहित ऐसे कई खतरे हैं जिनको देखते हुए सहसा इसे खत्म किए जाने का समर्थन करना कठिन है। इसका स्थानापन्न वो सारे कानून अभी तक नहीं कर पाए हैं जिनकी चर्चा घोषणापत्र में है या जिनके बारे में नेताओं ने बताया। इसी तरह मानवाधिकारों के पालन को सुनिश्चित करने में समस्या नहीं है लेकिन इसके लिए गिरफ्तारी या बिना सुनवाई जेल भेजने जैसे कानून को संशोधित करना तथा गिरफ्तार या हिरासत में लिए गए व्यक्तियों से पूछताछ या व्यवहार निर्धारित करने के लिए अत्याचार निरोधक कानून बनाने का वायदा भी चिंताजनक है। 


पता नहीं यह कैसा कानून होगा? इसके लिए कानून के साथ उच्चतम न्यायालय के मार्गनिर्देश तो पहले से हैं। इसके अतिरिक्त कुछ करना सुरक्षा व्यवस्था को चुनौती देेने वालों के पक्ष में जाने वाला साबित हो सकता है। सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून या अफस्फा में से कई प्रावधानों को बाहर करना तो चौंकाता है। यह भी सुरक्षा को सशक्त करने के अपने संकल्प के विरुद्ध है। इसमें जम्मू कश्मीर के लिए कुछ घोषणायें हैं। 


राजनीतिक प्रतिस्पर्धी होने के कारण मोदी सरकार की नीतियों की आलोचना समझ में आती है। कांग्रेस पहले सरकार में रह चुकी है और उसे सुरक्षा का अनुभव है, इसलिए उससे उसके अनुरुप घोषणाओं की उम्मीद थी। अफस्फा की समीक्षा का अर्थ क्या है? इसके गृहमंत्री के नाते चिदम्बरम ने इसकी बात की थी। उनकी सरकार ने ही इसे स्वीकार नहीं किया। तो उसके बारे में देश को बताया जाना चाहिए। इसमें उपयुक्त बदलाव क्या हो सकता है? इस पर खूब बहस हुई है। जब तक कोई क्षेत्र आतंकवाद और हिंसा से ग्रस्त है और सुरक्षा कार्रवाई की स्थायी जरुरत है वहां सुरक्षा बलों को विशेषाधिकार कायम रहना अपरिहार्य है। 


कांग्रेस की घोषणा इसके विपरीत डरावना संकेत देने वाला है। बिना शर्त बातचीत भी पहले हो चुकी है। उसका परिणाम क्या निकला? इनसे जम्मू कश्मीर की स्थिति बदल जाएगी ऐसा मानना ही बेमानी है। तो यह पुरानी हार्डडिस्क की फाइल खोलने के समान ही है। अनेक ऐसे वायदें हैं जो लगता ही नहीं कि इन्हें कांग्रेस पार्टी की ओर से सामने लाया गया है। इसमें जिस तरह अलगाववाद आदि कई मामले को अपराध से बाहर रखने की बात है वह भी चिंता करती है। अपराध प्रक्रिया संहिता को परिवर्तित कर जमानत का अधिकार देने की बात भी समझ से परे है। इस पर आम सहमति रही है कि जमानत को न्यायालयों के विवेक पर छोड़ा जाना चाहिए। जमानत को अधिकार बना देने से सुरक्षा व्यवस्था सुधरेगी या बिगड़ेगी? 


इसलिए कांग्रेस नेता जो भी दावा करें, भले घोषणा पत्र तैयार करने के पीछे सोच-विचार की व्यापक प्रक्रिया दिखती है, इसे प्रभावी और व्यवस्थित बनाया भी गया है किंतु ऐसा लगता नहीं कि यह देश में लंबे समय तक राज करने का अनुभव रखने वाली पार्टी द्वारा की गईं घोषणायें हैं। 


चिदम्बरम ने कहा कि हमारे घोषणा पत्र का आर्थिक पक्ष धन और कल्याण जैसे दो व्यवहारों पर टिका है। हम धन पैदा करेंगे एवं कल्याण की गारंटी देंगे। घोषणा पत्र से तो ऐसे संतुलन की ध्वनि बिल्कुल नहीं निकलती। भारी मात्रा में अतिरिक्त धन सृजन की संभावना कहीं दिखाई नहीं ही देती, जो वायदे हैं वो राजकोष की परिधि से काफी बाहर के हैं। और सुरक्षा को सशक्त करने की घोषणा के विपरीत कानूनों को खत्म करने या बदलाव लाने का वायदा तो आम सुरक्षा विशेषज्ञों की समझ से ही परे है। 


यह भी ध्यान रखिए कि राफेल को भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा मुद्दा बनाकर राजनीति करने वाली कांग्रेस ने 32 वें पृष्ठ के 25 वें कॉलम के क्रमांक दो में यह कहकर निपटा दिया है कि राफेल सहित पिछले पांच साल में भाजपा सरकार द्वारा किए गए सौदों की जांच की जाएगी। 

क्या कभी ऐसा हुआ है कि आने वाली सरकार ने पूर्व सरकार के सारे सौदे की जांच की हो? जो कभी हुआ ही नहीं उसे करने का वायदा किसके गले उतरेगा। अगर आप मानते हैं कि राफेल में भ्रष्टाचार हुआ है जैसा आप दो वर्ष से कह रहे हैं तो आपको साहस के साथ लिख कर इसके बारे में अलग से घोषणा करनी चाहिए थी। ऐसा नहीं करने का अर्थ है कि आपको सच समझ में आ गया है। चूंकि आपने इसे इतना फैला दिया है कि बिल्कुल पीछे हटने पर प्रश्न खड़ा होगा इसलिए एक पंक्ति में औपचारिकता पूरी की गई है ताकि कोई प्रश्न उठाए तो जवाब देने का आधार बना रहे। 

काफी पहले घोषणापत्र तैयार करने के लिए पी चिदंबरम की अध्यक्षता में समिति बनाई गई थी। इसने ऑन लाइन सुझाव मांगे और प्रत्यक्ष भी संपर्क किया। कांग्रेस का कहना है कि घोषणापत्र तैयार करने के लिए पूरे देश से 1 लाख 60 हजार सुझाव आए। जैसा समिति के संयोजक राजीव गौड़ा ने बताया घोषणापत्र बनाने के लिए हमने 20 उप समितियां बनाईं। उनके अनुसार 24 राज्य और 3 केंद्र शासित प्रदेशों की 60 क्षेत्रों को कवर किया गया। 12 देशों के प्रवासी भारतीयों ने भी अपने सुझाव दिए। कुल 121 पब्लिक कंसल्टेशन ली गईं।


 इतने व्यापक विमर्श के बाद तो ऐसा व्यावहारिक घोषणा पत्र निकलकर आना चाहिए था जो वाकई अन्य पार्टियों के लिए एक मॉडल बन जाता तथा देश की चिंता करने वालों के लिए भी यह भारत के विजन का दस्तावेज बनता।  ऐसा नहीं है तो मानना पड़ेगा कि कांग्रेस अवसर के समुचित उपयोग करने में चूकी है। यह तो पार्टी की समझ और समक्षता को ही प्रश्नों के घेरे में लाती है।

अवधेश कुमार
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और विश्लेषक हैं)

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