हैलो प्रियंका वाड्रा, बाय-बाय राहुल गांधी

By abhijit majumderFirst Published Jan 23, 2019, 7:43 PM IST
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पारिस्थितिकी तंत्र में प्रकृति के एक बेहद क्रूर नियम का पालन किया जाता है। एक जैसे संसाधनों पर आधारित दो प्रजातियां कभी भी एक साथ नहीं रह सकती। भले ही वह एक ही परिवार का हिस्सा हों। अगर उसमें से एक थोड़ा भी बेहतर हुआ तो वह स्वाभाविक रुप से दूसरे को विलुप्त होने के लिए मजबूर कर देगा।  

यह सर्वकालिक नियम राजनीति पर भी लागू होता है। जवाहरलाल नेहरु ने महात्मा गांधी के आशीर्वाद और अपने पिता मोतीलाल नेहरु की संपत्ति का फायदा उठाते हुए खुद से ज्यादा लोकप्रिय सुभाष चंद्र बोस और वल्लभभाई पटेल को किनारे कर दिया। 

राजनीति पर हावी होने की अपनी क्षमता के चलते संजय गांधी ने तब तक अपने बड़े भाई राजीव गांधी को हाशिए पर रखा, जब तक उनकी मृत्यु नहीं हो गई। 

प्रियंका गांधी वाड्रा की कांग्रेस महासचिव के रुप में ताजपोशी और 2019 के लोकसभा चुनाव के लिए पूर्वी उत्तर प्रदेश की कमान इसी क्रूर सिलसिले की शुरुआत है, जो कि उनके भाई और कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के राजनीतिक करियर का खात्मा भी कर सकता है।  

यह राहुल गांधी के लिए एक अप्रिय संदेश भी है कि मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में मिली हालिया सफलताओं के बावजूद कांग्रेस पार्टी आगामी लोकसभा चुनाव मे जीत दिलाने की उनकी क्षमता पर पूरी तरह भरोसा नहीं करती। 

इसलिए उसे दूसरे गांधी की जरुरत पड़ी। 

प्रियंका के पास क्या है बेहतर? 
इसमें कोई संदेह नहीं है कि 2019 में होने वाली भीषण जंग के लिए राहुल गांधी और उनकी टीम को को एक मजबूत सिपहसालार मिला है। 
जो यह तय करेगा कि सात दशक पुरानी नेहरू-गांधी प्रतिष्ठान की शुरुआत से स्थापित विचारधारा अपनी जड़ों को मजबूत करेगी या विस्थापित होगी।

लेकिन सवाल यह है कि यह मजबूत सिपहसालार प्रियंका वाड्रा हैं। इसलिए यहां पर कांपटेटिव एक्सक्लूजन(प्रतिस्पर्धी बहिष्करण) का सिद्धांत पूरी तरह लागू होता है। वह राहुल की स्वाभाविक प्रतिद्वंदी हैं और यह दोनों ही कांग्रेस के सिंहासन के दावेदार भी हैं।  

प्रियंका वाड्रा को थोड़ी बढ़त हासिल है। उन्होंने लोगों और पार्टी कार्यकर्ताओं से साथ अधिक सहजता से जुड़ाव दिखाया है और उनकी मुखाकृति अपनी दादी इंदिरा गांधी से बहुत हद तक मिलती भी है। इसके बारे में पहले भी कई बार चर्चा हो चुकी है। 

अपने पिता राजीव के हत्यारे नलिनी श्रीहरन के साथ उनकी 2008 में हुई मुलाकात ने उनकी राजनीतिक जोखिम उठाने की क्षमता और साहस को दिखाया है। उनके करीबियों का कहना है कि उन्होंने अपनी दादी से जोड़-तोड़ की राजनीति के विशेष गुण को हासिल किया है, जो कि राजनीतिक क्षेत्र के लिए बेहद अहम गुण माना जाता है। 
 
राहुल गांधी के विपरीत वह अपनी मां और नजदीकी सलाहकारों पर कम निर्भर रहती हैं और स्वतंत्रतापूर्वक अपने फैसले लेती हैं।
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 प्रियंका वाड्रा की चुनौतियां
एक बार मैने एक वरिष्ठ कांग्रेस नेता से पूछा कि राहुल गांधी की नाकामियों के बावजूद आखिर कांग्रेस क्यों प्रियंका गांधी पर दांव नहीं लगाती। वह मुस्कुराए और उन्होंने जवाब दिया: ‘वह प्रियंका वाड्रा भी हैं’।
 
उनके पति रॉबर्ट वाड्रा के खिलाफ हरियाणा और राजस्थान में जमीन घोटाले के मामले मे जांच चल रही है। प्रवर्तन निदेशालय उनके खिलाफ अघोषित विदेशी संपत्ति और हथियारों के डीलर संजय भंडारी से उनके संबंधों के मामले में जांच भी कर रही है। 
अक्सर उनके अनियंत्रित व्यवहार और बिना किसी वजह के भारी सुरक्षा व्यवस्था पर भी चर्चा होती है। दामाद जी की निजी छवि भ्रष्टाचार और उसमें गले तक डूबे व्यक्ति की बन चुकी है। 
प्रियंका का राजनीति मे औपचारिक प्रवेश बीजेपी को रॉबर्ट वाड्रा के खिलाफ जांच बिठाकर इसके जरिए प्रियंका पर निशाना साधने के लिए प्रेरित करेगा। 


प्रियंका के बारे में दूसरी बड़ी चिंता उनके बदलते मिजाज और स्वभाव की है। लुटियन दिल्ली की कानाफूसी के मुताबिक कई बार ऐसे मामले सामने आए हैं, जिसमें सुरक्षा एजेन्सियों को दखल देना पड़ा है। ऐसे प्रकरण सामने आए हैं, जिनमें लुटियन की गपशप के चलते सुरक्षा एजेंसियों को शामिल होना पड़ा। अगर आरोप सही हैं, तो यह प्रियंका के पूर्णकालिक राजनीति में प्रवेश की बड़ी बाधा साबित हो सकता है। 

कार्यकर्ताओं के पास है कुंजी 
प्रियंका के आने के बाद राहुल गांधी  के भविष्य के बारे में जो अनुमान लगाया जा रहा है, इसका मतलब यह कतई नहीं है कि प्रियंका राहुल के खिलाफ किसी तरह के विद्रोह का नेतृत्व कर सकती हैं। 
कांग्रेस आलाकमान और उनके रणनीतिकारों ने भले ही यह सोचकर प्रियंका को पद दिया है कि वह राहुल गांधी के तरकश का तीर साबित होंगी। 
लेकिन असली सत्ता हस्तांतरण जमीनी स्तर पर होगा। कार्यकर्ता ज्यादा सहज नेता के साथ ज्यादा जुड़ाव महसूस करेंगे। संभावित विजेता बनने की ख्वाहिश टकराव का रास्ता तैयार कर सकता है। 

कार्यकर्ताओं का जुड़ाव जिससे ज्यादा होगा, सत्ता पर उसकी दावेदारी ज्यादा मजबूत होगी। उदाहरण के तौर पर 2014 में नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनने से कोई भी ताकत रोक नहीं पाई। जबकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ उनके अंदाज और उनके आस पास फैली व्यक्ति पूजन की प्रवृत्ति से पूरी तरह सहज महसूस नहीं कर रहा था। 
उनके बहुत से वरिष्ठ पार्टी सदस्यों ने उनके विरुद्ध मोर्चा संभाला हुआ था। लेकिन फिर भी वह आगे आए। क्यों? 

क्योंकि संघ-बीजेपी कार्यकर्ताओं ने अपना मन बना लिया था। या तो मोदी या फिर कोई भी नहीं। नतीजा रहा कि सत्ता का हस्तांतरण हुआ।

राहुल के राजनीतिक करियर को प्रियंका से बचाना बाद मे ज्यादा चुनौतीपूर्ण होगा। क्योंकि अब उसकी प्रत्येक असफलता का मूल्यांकन उनके विरोधी नहीं बल्कि खुद पार्टी के अंदर के लोग करेंगे। 

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