केंद्रीय जांच ब्यूरो (CBI) द्वारा करोड़ों रुपयों के सारदा और रोज़वैली चिट फंड घोटालों के संबंध में कोलकाता पुलिस आयुक्त राजीव कुमार से पूछताछ करने के प्रयासों के खिलाफ ममता बनर्जी धरने पर बैठी हुई हैं। ऐसा करके पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी संविधान पर हमला कर रही हैं।
आपको 1980 के उत्तरार्ध में ले चलते हैं, जब दूरदर्शन देश का एकमात्र टेलीविजन नेटवर्क था, तब अंग्रेजी में डब किया हुआ एक जर्मन मनोरंजन शो बहुत लोकप्रिय हुआ। इसका नाम था दीदी की कॉमेडी।
इस टीवी शो का शीर्षक एक बार फिर तब दिमाग में आया जब पिछली शाम बहुत से भारतीयों की दीदी पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने ‘संविधान बचाने’ के नाम पर मध्य कोलकाता में अपना नाटक शुरु किया।
लेकिन फर्क केवल इतना था कि यह पूर्ण रुप से हास्य कार्यक्रम न होकर एक दुखद हास्य प्रहसन था।
ममता बनर्जी सीबीआई द्वारा कोलकाता पुलिस आयुक्त राजीव कुमार से करोड़ों रुपये के शारदा और रोज़ वैली चिट फंड घोटालों के साथ उनके कथित संबंध को लेकर पूछताछ के विरोध में धरने पर बैठी हुई हैं।
कोलकाता पुलिस ने सीबीआई अधिकारियों को हिरासत में ले लिया और दोनों के बीच जमकर झड़प हुई।
बंगाल के पोंजी स्कीम और राज्य सरकार की भूमिका
शारदा और रोज वैली चिट फंड बेहद पुराने औऱ कई बार आजमाए गए तरीके से अंजाम दिए गए हैं। जिसमें गरीब जनता के लगभग 2500 करोड़ और 15,000 करोड़ से अधिक का घोटाला किया गया(यह अनुमान बहुत काट छांट करके लगाया गया है)। इसके अतिरिक्त सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस के कई शीर्ष नेताओं और घोटालेबाजों के बीच संबंध स्थापित हो चुके हैं।
ममता बनर्जी की सरकार ने इन दोनों घोटालों की जांच के लिए राजीव कुमार( जिनकी तलाश में सीबीआई टीम कोलकाता गई थी) के नेतृत्व में एक एसआईटी का गठन किया था। लेकिन चूंकि इस मामले में बिहार, असम जैसे दूसरे राज्यों के लाखों निवेशक भी शामिल थे, इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने 2014 में मामले की जांच सीबीआई को सौंप दी।
शीर्ष अदालत के इस फैसले के पीछे की एक और वजह इस घोटाले में तृणमूल कांग्रेस के प्रमुख नेताओं की कथित संलिप्तता भी थी।
सीबीआई ने इन दोनों मामलों में अब तक 80 से अधिक आरोप पत्र दाखिल किए हैं। तृणमूल कांग्रेस के कई शीर्ष नेताओं के इर्द गिर्द शिकंजा कसता जा रहा है और दो सांसदों को घोटाले के आरोप में गिरफ्तार भी किया गया है।
सीबीआई राजीव कुमार से पूछताछ करना चाहती है, क्योंकि उसे लगता है कि एसआईटी के प्रमुख के रूप में उसने टीएमसी नेताओं को बचाने का काम किया था। उनके नेतृत्व में जांच के लिए महत्वपूर्ण समझे जाने वाले कई दस्तावेज भी गायब हो गए।
जैसे जैसे इस घोटाले में सीबीआई की जांच अपनी अंजाम की ओर बढ़ती गई, परेशान होकर ममता बनर्जी ने सीबीआई को अपनी सरकार की प्रभाव क्षेत्र में काम करने से मना कर दिया। ठीक इसी तर्ज पर आंध्र प्रदेश राज्य ने भी पिछले साल कुछ ऐसा ही किया था।
यह अनुमति वापस लेना जाहिर करता है कि टीएमसी सरकार कितनी गैर जिम्मेदार है। समय से साथ यह स्पष्ट हो गया कि ममता बनर्जी का उद्देश्य जांच की राह मे ज्यादा से ज्यादा रोड़े अटकाना था।
ममता बनर्जी के तर्क बेदम हैं
ममता बनर्जी और उनके समर्थक ज्यादा सार्थक विरोध कर पाते यदि वह लोग इस मामले से जुड़े कानूनी तर्क वितर्कों की जानकारी रखते।
पहला, सहमति वापस लेना पहले काम कर सकती थी बाद में नहीं। यानी सरल शब्दों में कहा जाए तो कि इस मामले में सहमति वापस ज्यादा विनाशकारी सिद्ध हुआ क्योंकि यहां पहले से ही जांच जारी थी।
दूसरा, 1994 का एक मामला जो सिक्किम सरकार संबंधित था, उसमें सुप्रीम कोर्ट ने विशेष रुप से टिप्पणी की थी कि इस तरह से जांच के बीच में ही सहमति वापस लेने के बाद चल रही जांच बंद नहीं की जा सकती।
इस मामले में ममता बनर्जी लगातार संविधान के अपमान का शोर मचा रही हैं। अगर ऐसा है भी तो उनके इस मामले में दखल केन्द्र-राज्य संबंधों पर असर पड़ता है जो कि संवैधानिक व्यवस्था का ज्यादा बड़ा अपमान है।
इस मुद्दे पर ममता बनर्जी का हंगामा इस बात को दर्शाता है कि कैसे अनुभवी ममता बनर्जी प्रतिस्पर्धी राजनीति में उतर आई हैं। उन्होंने इस मामले में आंकड़ों के महत्व को समझ लिया है।
लेकिन यहां एक स्थापित राजनेता नियमों और कानून का मजाक उड़ाने पर तुला हुआ है।
इस मामले में कांग्रेस की दोहरी भूमिका भी आश्चर्य में डालने वाली है। बंगाल में कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस में चिंटफंड के मामले को लेकर संघर्ष चल रहा है। उसके एक नेता रोजवैली घोटाला मामले में सीबीआई जांच के लिए लड़ाई लड़ रहे हैं। लेकिन 2019 की जंग को देखते हुए राहुल गांधी अब ममता बनर्जी का समर्थन कर रहे हैं।
ऐसे समय में जब गैर-भाजपा राज्यों की सरकारें केंद्र की ओर थोड़े संदेह की दृष्टि से देख रही है, ऐसे समय में संघीय स्वतंत्रता के विचार को बढ़ाना आसान है। वास्तव में सामान्य परिस्थितियों में राज्यों द्वारा ज्यादा अधिकार हासिल करने का यह उचित समय है। लेकिन वह मामला दूसरा है और इसकी लड़ाई भी अलग है।
इसके विपरीत, समस्या तो क्षितिज के दूसरे सिरे पर है। अगर केंद्रीय हस्तक्षेप नहीं हुआ होता तो क्या राज्य सरकार निष्पक्ष तरीके से अपना काम करती। और अब अपनी जिम्मेदारी निभाने में असफल रहने के बाद, संघीय शक्ति का रोना क्यों रोया जा रहा है?
ममता दीदी घटनाक्रम आपकी मुट्ठी से रेत की तरह फिसल रहा है।