1200 रु. की जरूरत और जेब में सिर्फ 700 रु....इस एक घटना के बाद दिव्यांग सतीश वैश्य ने जिद से जीत लिया जहां

By Rajkumar Upadhyaya  |  First Published Jul 1, 2023, 4:25 PM IST

यदि मन में दृढ़ विश्वास हो तो ब्रह्मांड भी आपके सपनों को पूरा करने में साथ देता नजर आता है। लखनऊ के सतीश वैश्य के साथ भी ऐसा ही हुआ। जन्म से उनके दोनों पैर मुड़े हुए थे। डॉक्टर्स ने आपरेशन कर पैर सही करने की सलाह दी। पर माता-पिता आपरेशन के नाम पर घबरा गए। उस समय आस पास के लोगों ने कहा कि बेटा है, चल जाएगा और फिर होश संभालते ही उनका जीवन से संघर्ष शुरु हो गया। 

लखनऊ। यदि मन में दृढ़ विश्वास हो तो ब्रह्मांड भी आपके सपनों को पूरा करने में साथ देता नजर आता है। लखनऊ के सतीश वैश्य के साथ भी ऐसा ही हुआ। जन्म से उनके दोनों पैर मुड़े हुए थे। डॉक्टर्स ने आपरेशन कर पैर सही करने की सलाह दी। पर माता-पिता आपरेशन के नाम पर घबरा गए। उस समय आस पास के लोगों ने कहा कि बेटा है, चल जाएगा और फिर होश संभालते ही उनका जीवन से संघर्ष शुरु हो गया। 

जीविका चलाने के लिए शुरु किया ये काम

साल 1975 में जन्मे सतीश ने 1992 में इंटरमीडिएट की परीक्षा बाराबंकी से पास की और अपने जीवन को संवारने के सपने के साथ लखनऊ आ गए। नेशनल कॉलेज से ग्रेजुएशन किया। उनके पिता बाराबंकी स्थित मसौली चौराहे पर बर्तन की दुकान लगाते थे। उस समय दोनों पैर से दिव्यांग होने के बावजूद सतीश साइकिल से 40 से 60 लीटर केरोसिन आयल लखनऊ से बाराबंकी ले जाकर बेचते थे। 

इस घटना ने बदल दिया जीवन

एक घटना ने इनका जीवन बदल दिया। एक बार उन्हें 1200 रुपयों की अर्जेंट जरुरत थी। उन्होंने अपने पिताजी से पैसे मांगे। पर उनकी पिता की जेब से सिर्फ 700 रुपये निकले। अपनी जरुरत पूरी न होते देख, उनकी आंख में आंसू आ गए और उसी समय उन्होंने दृढ़ निश्चय किया कि वह किसी से अपने निजी खर्चे के लिए पैसे नहीं मांगेंगे। बच्चों को ट्यूशन पढ़ाकर अपना खर्च निकालने लगे। उसी बीच उनकी साइकिल भी चोरी हो गई, वह पैदल हो गए। बिना साइकिल के चलना उनके लिए मुश्किल था। पर उन्होंने हार नहीं मानी और अपना काम करते रहे। फिर काम से मिले पैसे से ही साइकिल खरीदी।  

सरकारी नौकरी के सपने पर फिरा पानी

सतीश वैश्य सीए बनना चाहते थे। पर आर्थिक परिस्थितियां अनुकूल न होने की वजह से वह मनचाही पढ़ाई नहीं कर सके। एक बार उन्होंने बैंक में नौकरी के लिए अप्लाई किया था। परीक्षा की पूरे मनोयोग से तैयारी भी की थी। पर परीक्षा के लिए प्रवेश पत्र एग्जाम की तिथि बीतने के बाद आया। इस तरह नौकरी करने के सपने पर पानी फिर गया। 

विपरीत परिस्थतियों में भी नहीं मानी हार

विपरीत परिस्थितियों में भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और साल 1993 में एक फाइनेंसियल कम्पनी से जुड़े और फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा। काम के मामले में कुछ ही वर्षों में उन्होंने कई रिकार्ड बनाए। अपना व्यवसाय खड़ा किया और अपने पैरों पर खड़े हो गए। उनकी सफलता की इलाके के लोग मिसाल देते हैं। साल 2009-10 में सतीश वैश्य कम्पनी की एक प्रतियोगिता में शामिल हुए। जिसमें उन्हें बड़ी सफलता हासिल हुई, लाखों रुपये बतौर इनाम हासिल हुए। एक दिव्यांग व्यक्ति के लिए यह आश्चर्यचकित कर देने वाला क्षण था। सतीश कहते हैं कि दिव्यांग होने की वजह से अलग पहचान बनाने की कोशिश की और कभी हार नहीं मानी। 

कोरोना महामारी के समय की लोगों की मदद

कोरोना महामारी के समय जब लोग घरों से निकलने में डरते थे। सतीश वैश्य ने स्कूटी से घूमकर लोगों तक मदद पहुंचाई। चौराहों पर ड्यूटी पर तैनात सिपाहियों तक छाछ और बिस्किट पहुंचाया। उनके इस काम की पुलिस के अफसरों ने भी तारीफ की। वह पतंजलि योग पीठ से भी जुड़े और लोगों को योग सिखाने का भी काम किया।

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