सटीक बैठा मोदी सरकार का आर्थिक सुधार दांव तो जरूर दिखेंगे अच्छे दिन

By Rahul Misra  |  First Published Apr 19, 2019, 5:07 PM IST

मोदी सरकार से पहले देश में दस साल तक मनमोहन सिंह सरकार रही. दस साल राजनीतिक स्थिरता दर्शाने के लिए कम समय नहीं था लेकिन मनमोहन सरकार की सबसे बड़ी आलोचना इस बात पर हुई कि वह अहम फैसले लेने में सक्षम नहीं हैं.

लोकसभा चुनाव 2014 के प्रचार में जब भारतीय जनता पार्टी ने प्रशासनिक संरचना में बड़े बदलावों के साथ अच्छे दिन लाने का वादा किया तो देशभर में वोटर उसके साथ खड़ा हो गया. इस वादे पर पूरे देश का भरोसा भी 2014 के नतीजों में साफ दिखता है. भाजपा से इतर देश के किसी राजनीतिक दल को लोकसभा में 50 सीट का आंकड़ा भी नहीं मिला. जनादेश साफ था कि देश को अच्छे दिन में ले जाया जाए. लिहाजा आर्थिक सुधारों के लिए जरूरी फैसलों को मनमोहन सिंह सरकार की तरह टाला न जाए.

मोदी सरकार से पहले देश में दस साल तक मनमोहन सिंह सरकार रही. दस साल राजनीतिक स्थिरता दर्शाने के लिए कम समय नहीं था लेकिन मनमोहन सरकार की सबसे बड़ी आलोचना इस बात पर हुई कि वह अहम फैसले लेने में सक्षम नहीं हैं. अपने पूरे कार्यकाल के दौरान उनपर अधिकांश महत्वपूर्ण फैसलों को टालने का आरोप लगा.   

लिहाजा, केन्द्र में सरकार बनाने के बाद भाजपा ने सबसे पहले देश की आर्थिक स्थिति को दुरुस्त करने का कदम उठाया. राजनीतिक गलियारों में भाजपा के विरोधियां का दावा था कि नरेन्द्र मोदी कारोबारियों के पक्षधर हैं और उन्हें फायदा पहुंचाने की हर संभव कोशिश करने वाले हैं. इस दावे के आधार पर आर्थिक आंकड़ों के जरिए यह भी दिखाया कि मोदी सरकार बनने के बाद शेयर बाजार जोरदार उछाल भरने लगा क्योंकि कारोबार को मोदी सरकार का साथ मिला. 

हालांकि कुछ अर्थशास्त्रियों ने अपनी राजनीतिक समझ का परिचय देते हुए शेयर बाजार के आंकड़ों में उछाल के लिए लिखा कि शेयर बाजार में उछाल के ट्रेंड की शुरुआत 2010-2013 में हो चुकी था. दावा किया कि 2010-13 के दौरान शेयर बाजार से निवेशकों को 8.5 फीसदी की वार्षिक औसत ग्रोथ मिल रही थी. मौजूदा समय में बाजार से निवेशक 9.1 फीसदी रिटर्न पा रहे हैं. लिहाजा, मोदी सरकार को शेयर बाजार में उछाल का श्रेय नहीं दिया जाना चाहिए.

गौरतलब है कि भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए 2009 में बनी दूसरी मनमोहन सिंह सरकार से कारोबार को बड़े आर्थिक सुधारों की दरकार थी. कारोबारी सुगमता के साथ-साथ विदेश निवेश का रास्ता साफ करने के लिए देश के कारोबारी ढांचे में बड़े परिवर्तन किए जाने थे. इसी क्रम में देश के लिए वन नेशन वन टैक्स की व्यवस्था यानी गुड्स एंड सर्विसेज टैक्स को लागू करना था. 

जीएसटी लागू करने में मनमोहन सरकार सफल नहीं हुई. न तो मनमोहन सिंह सरकार अन्य राज्य सरकारों से सहमति बना पाई और न ही जीएसटी लागू करने के लिए किसी प्रक्रिया को शुरू कर पाई. इसके बावजूद 2014 के चुनावों में कांग्रेस ने अपने घोषणा पत्र में ऐलान किया कि तीसरी बार मनमोहन सिंह सरकार बनी तो वह 100 दिन में देश के टैक्स ढांचे को बदलकर जीएसटी लागू कर देंगे.

यह टैक्स सुधार बेहद अहम था. लेकिन इसे लागू करने के लिए केन्द्र सरकार को पूरे देश में डिजिटल नेटवर्क के साथ-साथ एक स्वच्छ बैंकिंग व्यवस्था और कारोबारियों को नए टैक्स प्रणाली के लिए पूरी ट्रेनिंग देने की प्रक्रिया को शुरू करना था. जीएसटी को लेकर भाजपा और कांग्रेस में यह दुविधा कभी नहीं रही कि यह कदम अर्थव्यवस्था के लिए बेहद अहम रहेगा.

इसके साथ ही यह भी स्पष्ट था कि एक झटके में टैक्स ढांचे को बदलने का नकारात्मक असर अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा. दोनों, केन्द्र और राज्य सरकारों को 3-4 साल तक इस नकारात्मक असर को संभालने का प्रयास करना होगा. लंबी अवधि में जीएसटी का फायदा सरकार के राजस्व में दिखाई देने लगेगा.

किसी देश की अर्थव्यवस्था वैश्विक बाजार के नियमों पर चलती है. आंकड़ों के स्तर पर इसे संचालित करना पूरी तरह सरकार के बस में नहीं रहता है. इसके बावजूद केन्द्र सरकार से अपेक्षा रहती है कि वह वैश्विक बाजार में अपनी अर्थव्यवस्था को दौड़ाने के लिए आर्थिक सुधार के अहम फैसले को राजनीति से दूर रखें. 

अब जब देश में सत्रहवीं लोकसभा के लिए चुनाव कराए जा रहे हैं वोटर को सवाल करना चाहिए कि यदि 2014 में मोदी सरकार की जगह मनमोहन सिंह सरकार बनी होती तो अगस्त 2014 में लागू हुआ जीएसटी अर्थव्यवस्था के साथ क्या करता?

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