मृत रॉकेट पर अनोखी रिसर्च करने वाला भारत एकलौता देश

By Team MyNation  |  First Published Dec 16, 2018, 1:44 PM IST

अंतरिक्ष में रॉकेट भेजे जाने के बाद वह मृत माने जाते हैं। यानी वह एक बार उपयोग हो जाने के बाद दोबारा इस्तेमाल नहीं किए जा सकते हैं। जिसे वैज्ञानिक कचरा भी कहते हैं।

अंतरिक्ष में रॉकेट भेजे जाने के बाद वह मृत माने जाते हैं। यानी वह एक बार उपयोग हो जाने के बाद दोबारा इस्तेमाल नहीं किए जा सकते हैं। जिसे वैज्ञानिक कचरा भी कहते हैं। 

लेकिन इंडियन स्पेस रिसर्च ऑर्गनाइजेशन (इसरो) को लगता है कि डेड रॉकेट भी उपयोगी हो सकते हैं। यानी जो रॉकेट एक बार इस्तेमाल हो चुका है वह फिर से उपयोग किया जा सकता है। इसरो (ISRO) एक ऐसी नई तकनीक पर काम कर रहा है जिसमें वह स्पेस एक्सपेरिमेंट्स के लिए पीएसएलवी रॉकेट के लास्ट स्टेज तक इस्तेमाल करेगा। अपनी इस नई रिसर्च और नई तकनीक का प्रदर्शन इसको जनवरी में करेंगे जब पीएसएलवी सी44 लॉन्च किया जाएगा। 

इसरो के चेयरमैन के सिवन के मुताबिक इसरो एक नई तकनीक पर काम कर रहा है जहां इस डेड रॉकेट को छह महीने के लिए जीवन दिया जाएगा। उनके मुताबिक अगर यह तकनीक कामयाब हुई तो अंतरिक्ष में नई रिसर्च करना आसान हो जाएगा। इसी के साथ काफी सस्ता भी क्योंकि इसरो को इसके लिए अलग से रॉकेट नहीं लॉन्च करना पड़ेगा।  

इसरो के चेयरमैन ने जानकारी दी है कि जनवरी में प्राइमरी सैटलाइट के रूप में माइक्रोसैट को लेकर जा रहे पीएसएलवी सी44 को नए सिस्टम की मदद से जिंदा किया जाएगा। इसमें बैटरियां और सोलर पैनल लगे होंगे। पीएसएलवी से प्राइमरी सैटलाइट के अलग हो जाने के बाद भी लास्ट स्टेज का रॉकेट ऐक्टिव रहेगा। स्टूडेंट्स और स्पेस साइंटिस्ट अपने स्पेस एक्सपेरिमेंट्स के लिए इस रॉकेट का मुफ्त में इस्तेमाल कर सकेंगे। 

इसरो के पूर्व चेयरमैन और स्पेस एक्सपर्ट एएस किरण ने इस प्रक्रिया की व्याख्या की। उनके मुताबिक स्पेस में भेजा गया रॉकेट आखिरी चरण के बाद बिना किसी नियंत्रण के उसी ऑर्बिट में घूमता रहता है जहां उसने सैटलाइट को रिलीज किया है। उनके मुताबिक इसे स्थायित्व देने के लिए अलग कंपार्टमेंट में अतिरिक्त ईंधन रखना होगा। ऐसा करते समय यह भी ख्याल रखना होगा कि इसके मूल विन्यास से छेड़छाड़ न हो। 

उन्होंने आगे बताया कि सैटलाइट को रिलीज करने के बाद लास्ट स्टेज रॉकेट ऑर्बिट में घूमते हुए नीचे को गिरता रहता है। अंत में वह जैसे ही धरती के वातावरण के संपर्क में आता है, जल जाता है। उन्होंने बताया कि बैटरी और सोलर पैनल लगाकर हम इस प्रक्रिया को महीनों तक बढ़ा सकते हैं। ऐसे में ग्राउंड स्टेशन से जोड़कर इससे फिर से संपर्क साधा जा सकता है और स्टूडेंट्स इसका इस्तेमाल अपने प्रयोग के लिए कर सकते हैं। ऐसा हो जाने के बाद उन्हें प्रयोग के लिए अलग से सैटलाइट लॉन्च करने की जरूरत नहीं पड़ेगी।
 

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