जेएनयू के कन्हैया कुमार ने पीएचडी थीसिस जमा करने से पहले प्रायोजित पत्रिका में छपवाया लेख

By Siddhartha RaiFirst Published Aug 22, 2018, 4:31 PM IST
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जेएनयू छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार का पीएचडी थीसिस विवादों के घेरे में है। थीसिस जमा कराने से पहले लेख को किसी नामी पत्रिका में छपवाना होता है और कन्हैया ने जिस पत्रिका में थीसिस छपवाया है वो विश्वस्तर पर बदनाम है।

जेएनयू के पूर्व छात्र संघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार ने पीएचडी थीसिस को प्रकाशित करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ब्लैकलिस्ट हो चुकी एक कुख्यात पत्रिका का उपयोग किया है।  विश्वस्तर पर भरोसेमंद बील की सूची (Beall’s List) में इसका जिक्र प्रायोजित पत्रिका (predatory journal) के रूप में किया गया है। ईरान सरकार ने भी इसे ब्लैकलिस्टेड किया हुआ है, (http://blacklist.hbi.ir/)।


यह इस तरीके की कुख्यात पत्रिका है जहां लेखकों से प्रकाशन के एवज में पैसे लिए जाते हैं, लेखों की जांच तक नहीं की जाती। मामले पर माय नेशन के सवाल के जवाब में कन्हैया के एक सहयोगी वरुण सामने आए और उन्होंने कहा कि, “पत्रिका की बदनामी के बारे में उन्हें जानकारी नहीं थी वो अब इस मामले को गंभीरता से लेंगे”।


“हमारे पास ये खबर आई है कि ये पत्रिका ब्लैकलिस्टेड है। हमनें अपना लेख ऑनलाइन भेजा। हो सकता है ये पत्रिका भारत में प्रतिबंधित ना हो, हमें इसकी भी जानकारी नहीं। पीएचडी थीसिस को जमा करने से पहले उसका पब्लिश होना जरूरी है, ऐसा हमनें किया ताकि सरकार हमें कहीं फंसा ना सके” वरुण ये भी कहते हैं।


पीएचडी थीसिस जमा करने के दिशानिर्देशों के मुताबिक विश्वविद्यालय अनुदान आयोग(यूजीसी) की राजपत्र अधिसूचना संख्या एफ-1-2/2009 (ईसी/पीएस) वी(1) वॉल्यूम 11 के अनुसार, छात्र को शोध को पत्रिका में प्रकाशित करनी होती है।


हाल ही में कन्हैया ने यह थीसिस जेएनयू में जमा भी कराया है, जो वामपंथी रुझान वाले प्रोपेसर एसएन मालाकार के निर्देशन में तैयार हुआ है। इसे स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज़ के सेंटर फॉर अफ्रीकन स्टडीज़ में जमा कराया गया है। वहीं पत्रिका में छपे लेख का शीर्षक है ‘अफ्रीका में उपनिवेशवाद का उन्मूलन और सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया’ जो जून में में प्रकाशित हुआ।


इंटरनेशनल जर्नल ऑफ ह्यूमैनिटी, इंजीनियरिंग और फार्मास्युटिकल साइंस नाम की इस पत्रिका को बील ने 2014 में ही अपनी सूची में बदनाम करार दिया था। इसका जिक्र कोलोराडो विश्वविद्यालय के जेफरी बील 2017 तक करते रहे। बदनाम पत्रिकाओं की बिजनेस पॉलिसी है कि वो प्रकाशकों से प्रकाशन शुल्क ले।


ईरान सरकार और बील (Beall’s) से ब्लैकलिस्ट किए जाने के बाद कलंक से बचने के लिए ‘इंटरनेशनल जर्नल ऑफ ह्यूमैनिटी, इंजीनियरिंग और फार्मास्युटिकल साइंस’ ने काम करने के तरीके में बदलाव करना शुरू किया। फिल्हाल इसका संचालन इंटरनेशनल रिसर्च जर्नल ऑफ ह्यूमैनिटी, इंजीनियरिंग और फार्मास्युटिकल साइंस के रूप में हो रहा है। बदलाव के नाम पर पुराने नाम में ‘रिसर्च’ को जोड़ दिया गया। पुराना नाम ‘इंटरनेशनल जर्नल ऑफ ह्यूमैनिटी, इंजीनियरिंग और फार्मास्युटिकल साइंस’ बदलकर नया नाम ‘इंटरनेशनल रिसर्च जर्नल ऑफ ह्यूमैनिटी, इंजीनियरिंग और फार्मास्युटिकल साइंस’ हो गया।


माय नेशन ने पत्रिका के पुराने स्वरूप और नए दोनों के एक होने के प्रमाण ढूंढ निकाले, ये दोनों एक ही डिजिटल प्लेटफॉर्म और रजिस्ट्रेशन नंबर से चल रहे हैं। पत्रिका पुराना स्वरूप बील और ईरान सरकार दोनों से प्रतिबंधित है जबकि नया अवतार भी उसी ढर्रे को आगे बढ़ा रहा है।


यूजीसी से स्वीकृत पत्रिका की सूची के मुताबिक, पुराना जो की ब्लैकलिस्टेड है और नया दोनों का यूआरएल एक है। ‘आईएसएसएन नंबर 2249-2569’ भी एक है।


हालांकि, पत्रिका के मालिक शशांक तिवारी ने प्रकाशित लेखों के बदले भुगतान पाने के आरोपों से इनकार कर दिया। उन्होंने कहा कि, "हम अलग-अलग देशों के अलग-अलग अकादमिक मानदंडों के रूप में ब्लैकलिस्ट किए गए थे। हम यूजीसी के साथ वैध रूप से सूचीबद्ध हैं"।


यह पूछे जाने पर बील की सूची में ब्लैकलिस्टेड होने के बाद उन्होंने पत्रिका का नाम क्यों बदला, तिवारी ने कहा कि यह प्रिंटिंग की गलती थी।


इसके अलावा, पत्रिका में ‘हमसें संपर्क करें’ की जगह पर एक व्यक्ति का नाम छपा है, उसने संस्थान को बहुत पहले छोड़ दिया है जबकि उसका नंबर अभी तक लगा हुआ है। मनीष यादव नाम के इस शख्स ने कहा कि “मैंने वो ऑफिस छोड़ दिया है और वहां के बारे में कुछ नहीं बोलूंगा”।

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