एक थोपा गया फैसला

By Vinit Goenka  |  First Published Nov 8, 2018, 11:20 AM IST

“उन प्राचीन धर्मों के न्याय में हमें उस दृष्टिकोण को नहीं लेना चाहिए जिस पर हम उलझन में हैं, लेकिन खुद को उन शुरुआती समय के विचार और जीवन की स्थिति में रखना चाहिए।” 
- स्वामी विवेकानंद

सबरीमाला सुप्रीम कोर्ट हालिया फैसला हिंदू परंपरा और प्राचीन मान्यताओं के  विपरीत है. सबसे हैरान करने वाली बात ये है कि तथाकथित हिंदू संगठनों ने और स्वघोषित धर्मनिरपेक्ष राज्य ने हिंदू समाज की मान्यताओं और परंपराओं में इस तरह के कानूनी दखल के खिलाफ कोई आवाज़ नहीं उठाई।  

गौर करने की बात है कि इस याचिका को सुनने वाली खंडपीठ की एकमात्र महिला न्यायाधीश न्यायमूर्ति इंदु मल्होत्रा की राय बाकी न्यायाधीशों से अलग रही. न्यायमूर्ति मल्होत्रा ने याचिका पर कड़ी प्रतिक्रिया देते हुए कहा की ये याचिका प्रथम दृष्टया सुने जाने के योग्य ही नहीं है. उन्होंने कहा की ये तय करना न्यायलय का अधिकार क्षेत्र नहीं है कि कौन सी प्रथा चलने दी जाए और कौन सी प्रथा बंद कर दी जाए. उन्होंने अपने निर्णय में लिखा "धार्मिक भावनाओं के मामले में न्यायालयों का ऐसा दखल ठीक नहीं। सबरीमाला मंदिर संविधान के अनुच्छेद पच्चीस द्वारा संरक्षित है इसलिए इसपर सिर्फ अनुच्छेद चौदह के आधार पर फैसला देना सही परंपरा नहीं है. 

न्यायमूर्ति मल्होत्रा ने कहा, "धर्म को हर बार तर्कसंगत होने की कसौटी पर कसना ठीक नहीं है. समाज में प्रचलित सामाजिक परम्परायें उस परंपरा को मानने वाले धार्मिक समुदाय के लिए हैं न की अदालतों के लिए. भारत एक धार्मिक विविधता वाला देश है. संविधान की नैतिकता इसी में निहित है कि सभी धर्मावलम्बियों को अपनी मान्यताओं का पालन करने का अधिकार मिले।

न्यायालय तब तक ऐसे मामले में हस्तक्षेप न करें जब तक कि वो परंपरा धर्म के व्यक्तियों की मूल भावनाओं का हनन न करे. सबरीमाला को लैंगिक समानता की दृष्टि से देखने का कोई मतलब नहीं है क्योंकि हज़ार से ज्यादा भगवान अयप्पा के मंदिरों में आज भी महिलायें जा सकती है.    

इस निर्णय की सबसे बड़ी कमी ये है की इसमें व्यक्तिगत नैतिकता और समानता को श्रद्धालुओं की मान्यताओं के ऊपर रखा है जिसके परिणाम निकट भविष्य में खतरनाक होंगे। सोचिये की कल कोई न्यायलय में ये याचिका दाखिल करे कि कोई मंदिर ये निर्धारित न करे की कौन चप्पल उतारकर मंदिर में प्रवेश करे और कौन चप्पल पहन कर. निरर्थक दबाव और जल्दीबाज़ी में लिया गया ये निर्णय, ऐसे जाने कितने कुतर्को को जन्म देगा। 

 
हिन्दू मान्यताओं में बेवजह हस्तक्षेप:  
 
उच्चतम न्यायलय को ये निर्णय लेते समय धर्म की वृहद परिकल्पना और परम्पराओं को भी ध्यान में रखना था. मेरा मानना है की सिर्फ हिन्दू धर्म की परम्पराओं पर आघात करने से अच्छा है कि न्यायलय किसी भी मंदिर, मस्जिद, चर्च या किसी भी और पूजा स्थल में हर उम्र की महिला का प्रवेश सुरक्षित करे.  कोर्ट का वर्षों और पीढ़ियों से चली आ रही धार्मिक और सामाजिक रीतियों में हस्तक्षेप एक गलत परम्परा को जन्म दे रही  है. 

याचिकाकर्ताओं को परंपरा के मूल की जानकारी तक नहीं है और ये पूरा षड़यंत्र अखबारों की खबरों के आधार पर रचा गया है। वर्षों पुरानी इस परंपरा को अगर असंवैधानिक घोषित किया गया तो इसके दूरगामी परिणाम होंगे जिसका दूसरे धर्मों के रीति-रिवाज़ों पर भी काफी असर पड़ेगा। ग़ौरतलब है कि इस परंपरा से सभी महिलाओं को बाहर नहीं रखा गया है। केवल वे ही बाहर है तो इस उम्र सीमा में नहीं आती हैं।     

सबरीमाला पर न्यायलय का फैसला बे-वजह हस्तक्षेप करती न्यायिक सक्रियता का उदाहरण है जहाँ तर्कों, और सबूतों के आधार पर उद्देश्यपरक फैसले की कमी साफ़ झलकती है. सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ सड़कों पर उतरी लाखों महिलायें  उन लोगों के चेहरे बेनकाब कर रहीं हैं जो इसे हिंदू धर्म में मौजूद निहित भेदभाव की तरह पेश करना चाहते थे। 

भारत में तमाम मस्जिदें हैं जहाँ महिलाओं का प्रवेश वर्जित है, वो अपने घर पर ही खुदा की इबादत करने को विवश हैं. और जहाँ उन्हें जाने दिया जाता है वहां भी वो पुरुषों के साथ नमाज में शामिल नहीं हो सकती। उनके लिए एक अलग स्थान निर्धारित है. क्या आदरणीय उच्च न्यायलय उन धर्मो के पूजा स्थलों पर महिलाओं के  अधिकारों के बारे में कोई आदेश  निर्गत करने का सहस जुटा पायेगा? या ये पूरी कवायद हिन्दू धर्म के अपमान तक ही सीमित है 
 

प्रगतिशीलता का पाखण्ड:  

इस वक़्त जब मैं ये लिख रहा हूँ, भगवान अयप्पा की लाखों महिला अनुयायी कोर्ट के फैसले के खिलाफ सड़को पर हैं. ये मेरी समझ से सर्वथा परे है कि न्यायालय को वो गिने चुने लोग नज़र आ रहे हैं जो सबरीमाला में महिलाओं के प्रवेश के ठेकेदार है, पर उन लाखों लोगों की भावनाएं सुनाई नहीं दे रहीं हैं जो इस फैसले के खिलाफ सड़को पर हैं. 

हैरान मैं उन टीवी स्टूडियो में बैठे संवाददाताओं पर भी हूँ जो स्वयं को प्रगतिशील कहते नहीं थकते पर प्राचीन धार्मिक परम्पराओं और मान्यताओं को प्रगतिशीलता के पथ में बाधक मानते हैं. विरोध लोकतंत्र में हर व्यक्ति का अधिकार है. और कोई भी पत्रकार इतनी संकुचित विचारधारा का नहीं हो सकता की वो इन कई लाख लोगों की आवाज़ न सुन पायें.

मैं उन प्रगतिशील संवाददाताओं से पूछना चाहता हूँ कभी वो उन ननों के लिए आवाज़ क्यों नहीं उठाते जिन्हे आज भी चर्च में परदे में रहना पड़ता है अपना सर और चेहरा ढके हुए. क्या ये उनके मौलिक अधिकारों का हनन नहीं है? क्या उनको हक़ नहीं है की वो चुनाव कर सकें कि वो क्या पहने क्या नहीं?  अब वक़्त आ गया है कि नन बनने के लिए एक न्यूनतम शिक्षा की बाध्यता हो ताकि उन्हें भी पता चले की उनके क्या अधिकार है और उन्हें कैसे उनके अधिकारों से वंचित किया जा रहा है. 

मंदिर में महिलाओं के प्रवेश की वकालत करने वाले क्षद्म नारीवादी अटुकल, चक्कुलथथुकुवु जैसी परम्पराओं की बात हो तो चुप्पी साध लेते हैं. ये वो परम्पराये हैं जहां महिलाओं को  पोंगल और नारी पूजा जैसे विशेष आयोजनों में प्राथमिकता दी जाती है.  इसीलिए इन क्षद्म और चर्च पोषित नारीवादियों पर संदेह उत्पन्न होता है कि उनका नारीवाद लैंगिक समानता से ज्यादा पुरुषों पर महिलाओं का वर्चस्व स्थापित करने का एक बेहत खतरनाक मंतव्य है जो पुरुषों और महिलाओं को समान अधिकार देने के मूल उद्देश्य के सर्वथा विपरीत है. 

चर्च का हिन्दू धर्म के खिलाफ वृहद् षड़यंत्र: 

चर्च को सबरीमाला की ख्याति हमेशा से चुभती रही है. जबरन धर्म परिवर्तन के लिए कुख्यात इन संस्थानों के मार्ग में सबरीमाला हमेशा से ही रोड़ा रहा है. यही वजह है की इस मंदिर पर चर्च पोषित आतताइयों ने कई बार हमले किये,और १९५० में मंदिर को जलाने तक की कोशिश की गई. इस व्यर्थ के विवाद और परम्पराओं के अपमान के पीछे चर्च का उद्देश्य भगवान अयप्पा के मंदिर के पास एक चर्च बनाना है.

चर्च हमेशा से यही चाहता है कि ये जगह ईसाई धर्म का प्रमुख केंद्र बने न कि हिंदुओं का. सबरीमाला क्षेत्र में और उसके आसपास बड़े पैमाने पर लालच देकर संगठित धर्मान्तरण  कोई नयी घटना नहीं है, यह काफी समय से हो रहा है। सबरीमाला पर न्यायलय का आदेश भगवान अयप्पा के लाखो करोड़ों भक्तो और उनकी सदियों पुराणी मान्यताओं का अपमान है. 

कुछ महत्वाकांक्षी और चर्च पोषित एक्टिविस्ट्स ने पूरे विमर्श को परम्पराओं से मोड़कर महिला अधिकारों और समानता की तरफ मोड़ दिया। हिन्दू धर्म उन धर्मो से बिलकुल अलग है जो लिंग के आधार पर समानता का डंका बजाते हैं. यही वजह है की अयप्पा की पूजा करने वाली लाखों महिलाये उनके अपमान  के खिलाफ सड़कों पर हैं. 

लेखक परिचय
      विनीत गोयनका
सदस्य, CRIS(रेल मंत्रालय)
सदस्य, आईटी टास्क फोर्स(सड़क परिवहन, हाईवे, जहाजरानी, मंत्रालय)
पूर्व सह संयोजक, बीजेपी आईटी सेल
 

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