जानिए कैसे उपनिषदों से प्रभावित थे बाबा साहब अंबेडकर के विचार

By Satish Pednekar  |  First Published Apr 14, 2019, 11:27 AM IST

जात-पात तोड़क मण्डल में दिये गये अपने प्रसिद्ध भाषण में डॉ.अम्बेडकर ने सुझाव दिया था कि हिंदुओं को स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के आदर्शों पर आधारित समाज के निर्माण के लिए अपने शास्त्रों से बाहर कहीं से प्रेरणा लेने की कोई आवश्यकता नहीं है। उन्हें इन मूल्यों के लिए उपनिषदों का अध्ययन करना चाहिए। जिसके बाद मैंने बाद में यह कोशिश की कि पता करूं कि क्या उन्होंने बाद में इस विषय पर कहीं लिखा है। लेकिन उनके कुछ भाषणों को छोड़कर इसका जिक्र कहीं नहीं मिला ।

नई दिल्ली:  हाल ही में डॉ. अम्बेडकर के संपूर्ण साहित्य का चौथा खंड हाथ लगा जिसमें उनकी पुस्तक रिडल्स इन हिन्दुइज्म है। हिंदुत्व की पहेलियां किताब में हिंदू समाज मे व्याप्त कुरीतियों पर भीषण आक्रमण करते हुए भी अपने इस विचार पर वापिस लौटते  है कि हिंदुओं को समानता के आदर्शों पर आधारित समाज के निर्माण के लिए अपने शास्त्रों से बाहर कहीं से प्रेरणा लेने की कोई आवश्यकता नहीं है। उन्होंने इसे विस्तार से समझाया भी। इस पुस्तक में रिडल -22 इसी बारे में है। इसमें वह उपनिषदों के ब्रह्मवाद के सिद्धांतों को बारे में विस्तार से बताते है और यह भी स्पष्ट करते हैं कि लोकतंत्र के निर्माण में यह सिद्धांत बंधुत्व के सिध्दांत से बेहतर है। वे कहते हैं -

‘ऐसा दिखाई देता है कि हिन्दू धार्मिक और दार्शनिक विचार भातृत्व के सिध्दांत से परिचित था। मगर इतिहास के तथ्यों के आधार पर यह प्रमाणित नहीं होता। हिन्दू धार्मिक और दार्शनिक विचार ने एक ऐसी सोच को जन्म दिया जो सामाजिक लोकतंत्र के निर्माण में भातृत्व के सिद्धांत के मुकाबले में  ज्यादा संभावनापूर्ण थी। यह था ब्रह्मवाद का सिध्दांत। आपको आश्चर्य नहीं होना चाहिए यदि कोई आकर आपसे पूछे कि ब्रह्मवाद क्या है। यह हिन्दुओं के लिए भी नई बात होगी। हिन्दू वेदांत के बारे में जानते हैं ,वे ब्राह्मणवाद के बारे में जानते हैं।मगर वे ब्रहमवाद के बारे में नहीं जानते। कि हिन्दू धार्मिक और दार्शनिक विचारधारा के प्रवृत्तियां है। ये हैं – 

1.    ब्राह्मणवाद 
2.    वेदांत या ब्रह्मवाद।

हालांकि ये दोनों परस्पर संबंधित है मगर आपस में अलग और विशिष्ट विचारधाराएं है। ब्रह्मवाद के सार को पांच रुपों में बताया जा सकता है।

1. सर्व खल्विदम् ब्रह्म्- यह सब कुछ ब्रह्म है।
2. अहं ब्रह्मास्मि -आत्मा ब्रह्म है इसलिए मैं ब्रह्म हूं।
3. तत्वमसि – आत्मा ब्रह्म है इसलिए तुम भी ब्रह्म हो।
4. अयमात्मा ब्रह्म -  ब्रह्म मेरे अंदर स्थित है। 
5. सोsहं -  वह(ब्रह्म) मैं हूं। 
इन पांच सूत्रों को महावाक्य कहा जाता है। इनमें ब्रह्मवाद का सार छुपा हुआ है। इन्हीं सिद्धांतो में वेदांत की सोच समाहित है। जिसका यह सार निकलता है कि 

केवल ब्रह्म ही सत्य है।
संसार माया है 
जीव और ब्रह्म एक हैं।

ठीक इसी तरह ब्राह्मणवाद के तीन भी सिध्दांत हैं –

चातुर्वण्य में आस्था
वेदों की अपौरुषेयता में विश्वास
देवताओं को बलि देना ही मुक्ति का एकमात्र उपाय है।

ज्यादातर लोग वेदांत या ब्रह्मवाद और ब्राह्मणवाद के बीच फर्क और उनके बीच के विरोध के बारे में समझते तो हैं। लेकिन उसे कार्यरुप में नहीं लाते। 
सनातन धर्म का अभ्यास करने वाले हिंदू समाज के लोगों में से ज्यादातर ब्रह्मवाद और वेदांत या ब्रह्मवाद के बीच फर्क से अनभिज्ञ रहने में ही भलाई समझते हैं। जबकि दोनों के बीच अंतर बिल्कुल स्पष्ट है।

ब्राह्मणवाद और वेदांत या ब्रह्मवाद दोनों इस बात पर सहमत हैं कि आत्मा की तरह ब्रह्म नित्य और समान है। मगर दोनों के बीच इस मुद्दे पर मतभेद उभर आता है कि ब्राह्मणवाद संसार को माया नही मानता। जबकि वेदांत ब्रह्म के अतिरिक्त सभी को माया मानता है। यही दोनों के बीच का बुनियादी फर्क है।
ब्राह्मणवाद का सार यह है कि संसार सत्य है और संसार का यथार्थ ब्रहम है इसलिए हर चीज ब्रह्म का सार है।

लेकिन जैसी कि डॉ. आंबेडकर सहित समस्त बुद्धिजीवियों की आदत है वह किसी भी विचार को उसकी समग्रता में परखते हैं। यहां भी उन्होंने यही कोशिश की है। 
ब्राह्मणवाद की दो तरह से आलोचना की जाती है। कहा जाता है कि ब्रह्मवाद एक तरह की धृष्टता है। मनुष्य का यह कहना –मैं ब्रहम हूं-एक प्रकार का अहंकार है। मगर यह अपनी योग्यता और क्षमता का प्रतिपादन हो सकता है। इस विश्व में जहां मानवता हीनता बोध से ग्रस्त है वहां मनुष्य द्वारा ऐसा प्रतिपादन स्वागतयोग्य है। लोकतंत्र की मांग है कि हर व्यक्ति को अपनी संभावनाओं को साकार करने हर अवसर मिले। यह भी जरूरी है कि हर व्यक्ति यह जाने कि वह हरेक की तरह श्रेष्ठ है। जो लोग अहं ब्रह्मास्मि को धृष्टतापूर्ण वचन मानकर उपहास करते हैं वे यह भूल जाते है कि इस महावाक्य का दूसरा भाग है तत्वमसि(तुम भी ब्रह्म हो)।यदि अहं ब्रह्मास्मि स्वतंत्र रूप से कहा जाए तत्वमसि को जोड़े बगैर तब इसका उपहास कर पाना संभव होगा। मगर तत्वमसि जुड जाने से ब्रह्मवाद पर व्यक्तिगत अहंकार का आरोप टिक नही पाता। 

हालांकि ब्रह्म अज्ञेय है अर्थात इसकी व्याख्या नहीं हो सकती। इसे केवल महसूस किया जा सकता है। मगर ब्रह्म के सिध्दांत के कुछ सामाजिक निहितार्थ हैं। लोकतंत्र की बुनियाद के रुप में उसका अपरिमित मूल्य है। यदि सभी व्यक्ति ब्रह्म का अंग हैं तो सभी समान है सभी को एक जैसी स्वतंत्रता मिलनी चाहिए यही लोकतंत्र का अर्थ है।इस द्रष्टिकोष से देखने पर  भले ही ब्रह्म अज्ञेय हो पर इसमें जरा भी संदेह नहीं है कि ब्रह्म सिध्दांत किसी भी सिध्दांत की तुलना में  लोकतंत्र का मजबूत आधार हो सकता है ।

सारी आलोचनाओं और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य पर गौर करने के बाद वे निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि ब्रह्मवाद का सिध्दांत लोकतंत्र के लिए बेहतर बुनियाद हो सकता है। 
  हम सब ईश्वर की संतान हैं इसलिए लोकतंत्र का समर्थन करना लोकतंत्र के लिए कमजोर बुनियाद होगी।इस बुनियाद पर जहां भी लोकतंत्र खड़ा हुआ वहां डगमगाता रहा।मगर यह मानना और अनुभव करना कि मैं और आप एक ही वैश्विक सिध्दांत के हिस्से हैं वह लोकतंत्र के अलावा किसी सहयोगी जीवन के सिद्धांत के जगह नहीं छोड़ते। यह सभी के लिए लोकतंत्र  को एक कर्तव्य बना देता है। 

लोकतंत्र के पश्चिमी विचारधारा छात्रों ने यह धारणा फैलाई है कि लोकतंत्र मूल रुप से पश्चिमी विचार है यह प्लेटो की दी हुई व्याख्या है। लोकतंत्र के लिए प्रेरणा का और कोई स्रोत नहीं है। अगर वे जानते कि भारत ने ब्रह्मवाद के सिद्दात को विकसित किया था जो लोकतंत्र के लिए बेहतर बुनियाद हो सकता है, तो वे इतने कट्टर नहीं होते। लोकतंत्र की सैद्धांतिक बुनियाद  में योगदान देने के लिए भारत को भी आमंत्रित किया जाता।

इसके बाद डा.आंबेडकर धार्मिक आध्यात्मिक संदर्भ में ब्रह्मवाद की भूमिका की पड़ताल करते हैं -

सवाल उठता है ब्रह्मवाद के सिध्दांत का क्या हुआ ?यह स्पष्ट है कि ब्रह्मवाद का कोई सामाजिक परिणाम नहीं हुआ। इसे धर्म का आधार नहीं बनाया गया। जब यह पूछा गया कि ऐसा क्यों हुआ तो कहा गया कि ब्रह्मवाद केवल दर्शन था। जैसे दर्शन सामाजिक जीवन से नहीं निकलता परन्तु कुछ नहीं से निकलता है कुछ नहीं के लिए निकलता है। दर्शन केवल सैद्धांतिक बात नहीं है। इसकी व्यावहारिक संभावनाएं है। दर्शन की जड़े जिंदगी की समस्याओं में होती हैं।

फिर क्यों ब्रह्मवाद नए समाज का निर्माण करने में असफल रहा। यह एक पहेली है। ऐसा नहीं था कि ब्राह्मण ब्रह्मवाद के सिध्दांत को मानते नहीं थे। वे मानते थे। मगर उन्होंने कभी नहीं पूछा कि वे कैसे ब्राह्मण और शूद्र, स्त्री पुरूष , जाति और जातिबाह्य के बीच की असमानता का समर्थन कर सकते हैं। 

मगर उन्होंने यह सवाल नहीं पूछा। नतीजा यह हुआ कि एक तरफ आपके पास ब्रह्मवाद के रूप में सबसे लोकतांत्रिक सिध्दांत था दूसरी तरफ जाति, उपजाति, जाति बाह्य, आदिम जातियां और अपराधिक जातियां थीं।

क्या इससे बड़ी कोई दुविधा हो सकती है। सबसे ज्यादा हास्यास्पद थी महान आदि शंकराचार्य की शिक्षा। शंकराचार्य ही ने सिखाया ब्रह्म ही जगत का मूल है और ब्रह्म ही वास्तविकता है। वह सबकुछ को समेटे हुए है। और उसी समय ब्राह्मण समाज की सभी असमानताओं को भी समेटे हुए है। इन अंतर्विरोधों से कोई पागल ही खुश हो सकता है।
आज सूचना क्रांति के युग में उपनिषद और वेदांत की शिक्षाएं सबके लिए सर्वसुलभ हैं। ऐसे में कोई भी व्यक्ति इस बात की पड़ताल कर सकता है कि डॉ. अंबेडकर ने क्यों उपनिषदों की शिक्षा को लोकतंत्र का मूलाधार बताया था। 

बाबा साहब भीमराव अंबेडकर के विचारों का विश्लेषण से यह अर्थ निकलता है कि उनका विरोध ब्रह्मवाद से नहीं होकर ब्राह्मणवाद यानी समय के साथ सनातन धर्म में फैल गए पाखंड से था। 

सतीश पेडणेकर
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और विश्लेषक हैं)

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