पाकिस्तानी राजनयिक का व्यवहार कुछ इस तरह का है, जैसे पाकिस्तान को ईश्वर की ओर से यह अधिकार मिला है, कि वह अपने नागरिकों पर इस्लाम को थोपे। तो क्या भारत को अपनी सदियों पुरानी परंपरा की वकालत करने का अधिकार नहीं है, जो कि एक व्यक्ति के साथ साथ समाज के लिए भी बेहद लाभदायक साबित हुआ है।
धर्म और चरमपंथ पर कोई भाषण कितना भ्रमित, अनौपचारिक और शायद चालबाजी से भरा भी हो सकता है, संयुक्त राष्ट्र की हालिया आम सभा में फिर से साफ तौर पर दिखा।
विदेश मंत्री सुषमा स्वराज के भाषण के जवाब में, एक पाकिस्तानी राजनयिक ने यूपी के मुख्यमंत्री के उपर, ‘अप्रचलित हिंदू चरमपंथी योगी आदित्यनाथ’ ‘हिंदुओं की धार्मिक श्रेष्ठता की वकालत करने वाला’ बताकर कड़ा प्रहार किया।
पाकिस्तानी राजनयिक के मुताबिक, भारत के हर हिस्से में ‘धार्मिक श्रेष्ठता के दावों’ को संरक्षण दिया जा रहा है और कहा, कि " फासीवाद का केन्द्र आरएसएस हमारे क्षेत्र में आतंकवाद का जनक है"।
क्या किसी को भी इसमें कोई विडंबना दिखी? यहां तक कि भारतीय राजनयिकों ने भी इसपर प्रश्न नहीं उठाया।
पाकिस्तान की परेशानी का कारण वह हिंदू लोग हैं, जो हिंदू धर्म को इस्लाम और ईसाई धर्म से श्रेष्ठ मानते हैं। वह ऐसे हिंदुओं को अतिवादी और कट्टरपंथी मानता है। वह यहां तक दावा करते हैं, कि आरएसएस जैसे हिंदू संगठन ‘इस क्षेत्र में आतंकवाद के जनक हैं’।
पाकिस्तान के जन्म लेने का कारण क्या था? भारत का एक हिस्सा अलग हुआ और अलग देश बन गया, क्योंकि जो लोग धर्मपरिवर्तन करके मुसलमान बन गए थे, वह ऐसे लोगों के बीच रहना चाहते थे, जो इस्लाम को मुताबिक अपना जीवन व्यतीत करते हों, क्योंकि उनके मुताबिक जन्नत में जाने के लिए यह जरुरी था।
भारत का वह टूटा हुआ हिस्सा ‘इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ पाकिस्तान’ बना। तो फिर कैसे एक पाकिस्तान, जिसमें अगर थोड़ी सी भी निष्पक्षता बाकी हो, वह कैसे हिंदु धर्म का पक्ष लेने के लिए हिंदुओं की आलोचना कर सकता है।
और जैसा कि देखा जा रहा है, कि पाकिस्तान अपने यहां के लगभग सभी हिंदुओं को दृढ़तापूर्वक और कई बार तो क्रूरता के जरिए भी खत्म करने में कामयाब हुआ। जबकि भारत में मुसलमानों की आबादी हिंदुओं से भी ज्यादा तेजी से बढ़ रही है। तो फिर कट्टरवाद कहां है, भारत में या पाकिस्तान में?
आखिर ऐसे देश का एक व्यक्ति कैसे हिंदू धर्म की वकालत करने के लिए भारत की आलोचना कर सकता है, जबकि उसके अपने देश में इस्लाम के नाम पर दूसरी संस्कृतियों को न केवल दबाने बल्कि पूरी तरह समाप्त करने का काम चल रहा है।
शायद उसके दुस्साहस का कारण यह है, कि वह जानता है कि उसको इस मामले से दूर रखा जाएगा।
संयुक्त राष्ट्र की इस शानदार सभा में कोई भी "इस्लाम" का उल्लेख करने के बारे में सोच भी नही सकता। ना ही मुख्यधारा का मीडिया ऐसा करेगा।
इस्लाम एक तरह से वर्जित शब्द बन गया है, सिर्फ इसकी तारीफ के लिए ही इसका इस्तेमाल किया जा सकता है।
यहां तक कि यह टिप्पणी करने वाला पाकिस्तानी राजनयिक भारत के अंदर भी अपनी टिप्पणी के लिए समर्थन प्राप्त कर सकता है।
क्योंकि, गैर सरकारी संगठन और मीडिया ने पहले से ही दुनियाभर में यह बात फैला दी है, कि ‘प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में भारत हिंदू राष्ट्र बनने के गंभीर खतरे का सामना कर रहा है, जहां लोकतंत्र खतरे में होगा तथा ईसाई और मुसलमान हिंदुओं के रहमोकरम पर ही जिंदा रह पाएंगे’।
मोदी के अलावा विशेष तौर पर योगी आदित्यनाथ के उपर भी सांप्रदायिक होने का कलंक लगाया जा रहा है।
पाकिस्तानी राजनियक को यह चिंता ही नहीं है, कि उनके दोहरे मानदंडों पर ध्यान आकर्षित किया जाएगा।
बेशक पाकिस्तान के स्कूलों में हिंदू धर्म और दूसरी परंपराओं की कीमत पर इस्लाम की वकालत की जाती है। इस्लाम की किसी तरह की बुराई पर प्रतिबंध है। इसके लिए ईशनिंदा कानून लागू है, जिसमें मौत की सजा मिलती है।
पाकिस्तानी राजनयिक का व्यवहार कुछ इस तरह का है, जैसे पाकिस्तान को ईश्वर की ओर से यह अधिकार मिला है, कि वह अपने नागरिकों पर इस्लाम को थोपे। तो क्या भारत को अपनी सदियों पुरानी परंपरा की वकालत करने का अधिकार नहीं है, जो कि एक व्यक्ति के साथ साथ समाज के लिए भी बेहद लाभदायक साबित हुआ है।
वह वास्तव इस बात पर पूरा विश्वास करते हैं, कि उन्हें इस्लाम के प्रसार के लिए अल्लाह के द्वारा अधिकार दिया गया है, जैसा कि उनकी किताबों में भी लिखा हुआ है।
और जो लोग इस बात पर पूरा भरोसा नहीं करते उन्हें इस बात के लिए मजबूर कर दिया जाता है। क्योंकि अगर कोई इस्लाम की आलोचना करता है, तो उसका कोई भी काम नहीं होगा और शायद उसे मौत की सजा भी मिल सकती है।
पाकिस्तान का पूरा विचार इस्लाम के इर्द गिर्द घूमता है। जिसका अहम हिस्सा जिहाद है। फिर भी पूरी दुनिया यहां तक कि गैर मुस्लिम भी इस तथ्य को नकारने के लिए कड़ी मेहनत क्यों कर रहे हैं।
लेकिन क्यों, क्या यह सच नहीं है, कि जिदाही आतंकवाद हमारे समय की सबसे बड़ी समस्या है? और क्या यह साबित नहीं हो चुका है कि पाकिस्तान इस आतंकवाद का सबसे बड़ा निर्यातक है? हम लोग आखिर कैसे आतंकवाद को सामना कर पाएंगे या उसे खत्म कर पाएंगे, जब इसके वास्तविक कारण को ही नजरअंदाज कर रहे हैं?
आतंकवाद के लिए एक उद्देश्य की जरुरत होती है। तो फिर इन जिहादियों का उद्देश्य क्या है? वह एक ऐसी दुनिया चाहते हैं जहां आदर्श रुप से केवल मुसलमान ही रहें या फिर गैर मुसलमान कम से कम उनसे दोयम दर्जे पर रहें, क्योंकि उनका मानना है कि यही अल्लाह की मर्जी है।
उनका यकीन है, कि इसके लिए उन्हें न केवल अनुमति प्राप्त है, बल्कि गैर-मुसलमानों से दुर्व्यवहार करने के लिए उन्हें पुरस्कार भी दिया जाएगा और यहां तक कि अगर वह उन्हें मार भी डालते हैं तो अल्लाह की नजरों में यह कोई पाप नहीं होगा।
काफिरों से मुक्त दुनिया का निर्माण करने के लिए लाखों लोगों का कत्ल किया गया और यह लगातार जारी है- इसके लिए सिर्फ एक आईएस का ही उदाहरण सामने नहीं है।
पीड़ित और अपराधी के बीच का अंतर केवल इतना ही है कि हत्यारे या उनके पूर्वज धर्मपरिवर्तन करके मुसलमान बन गए और अब वह इस बात पर यकीन करते हैं कि जो लोग इस्लाम को नहीं मानते हैं उनसे बुरी तरह नफरत करना ही सच्चा इस्लाम है।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि यह एक अजीब विश्वास है, जहां इस विशाल ब्रह्मांड की सर्वोच्च शक्ति इतनी ज्यादा ईर्ष्या और घृणा से भरी दिखाई देती है। जो कि उनके लिए, जो उसके आदेशों को स्वीकार नहीं करते हैं उन्हें अनंतकाल के लिए नर्क की आग में जलाए जाने का आदेश देता है।
हिंदुओं को यह बेहद अजीब लग सकता है, कि आधिकारिक तौर पर यह विश्वास चार अरब मुसलमानों और ईसाईयों के विश्वास का आधार है।
ईसाईयों का खुदा भी उन लोगों से तीव्र ईर्ष्या करता है, जो उसपर यकीन नहीं करते हैं। और सबसे बुरी बात तो यह है कि इस घृणा से भरे हुए ईश्वर को सच्चा ईश्वर बताया जाता है और उसमें भरोसा किया जाना शर्तिया नर्क मे पहुंचने का मार्ग प्रशस्त कर देता है।
जबकि वहीं सौम्य हिंदू धर्म को एक दमनकारी, आदिम, वंचित, मूर्ति पूजा करने वाले धर्म के रूप में सफलतापूर्वक स्थापित कर दिया गया है।
इसलिए हो सकता है, कि संयुक्त राष्ट्र की उस विशाल असेंबली में उनके अधिकांश सहयोगियों ने पाकिस्तानी राजनयिक के साथ सहमति भी व्यक्त की हो, कि यह एक अपमानजनक संकेत है जब भारत में हिंदू धर्म की वकालत की जा रही है, जिसे हर कीमत पर रोका जाना आवश्यक है, जबकि इस्लाम और ईसाई धर्म के विस्तार को स्वीकृति मिली हुई है।
सत्य से आगे कुछ भी नहीं है। जो भी हिंदू धर्म की गहराई में जाता है वह ये साफ तौर पर समझ सकता है कि यह उन दोनों धर्मों से स्पष्ट रुप से बेहतर है, जिसमें फैला अंधविश्वास मनुष्य को अनुचित और हानिकारक रुप से कट्टर बना देता है।
यहां सिर्फ एक ही कारण पर्याप्त होगा: हिंदू धर्म विश्व बंधुत्व का प्रचार करता है, वहीं कट्टरपंथी धर्म सशर्त बंधुत्व का प्रचार करते हैं- जिसकी शर्त यह है कि जो उनके धर्म का होगा उसी से वह भाईचारा निभाएंगे।
इसमें से सत्य के ज्यादा करीब कौन है? अपनी सर्वोच्चता का दावा करने में कुछ भी गलत नहीं है। क्या हम प्रतिदिन इस बात का चुनाव नहीं करते कि क्या बेहतर है और क्या अच्छा नहीं है। कोई भी तर्कशील व्यक्ति यह करेगा जरुर।
हिंदू धर्म की स्पष्ट श्रेष्ठता वास्तव में यही कारण हो सकता है कि वह कभी भी श्रेष्ठता का दावा नहीं करता है। मानव जाति के लंबे इतिहास में परिदृश्य में देर से आए धर्मों से उसकी तुलना करने से यह स्वयं ही स्पष्ट हो जाता है। जबकि उन दोनों में से हर एक यह दावा दावा करता है कि सिर्फ वही सच्चा है और नर्क की आग से बचने के लिए सभी को सिर्फ उसी की शरण में आना चाहिए।
इस तरह के दावे, जो कि बच्चों को इस हद तक भ्रमित कर चुका है, कि वह अब भी लोगों को वास्तविक सूचना और जानकारी हासिल करने का साहस करने से रोक रहा है- यह पूरी तरह मानवता को भारी नुकसान पहुंचा सकता है।
मारिया विर्थ
(मारिया विर्थ जर्मन नागरिक हैं, जो कि भारतीय संस्कृति से अभिभूत होकर पिछले 38 सालों से भारत में रह रही हैं। उन्होंने सनातन धर्म के सूक्ष्म तत्वों का गहराई से अध्ययन करने के बाद, अपना पूरा जीवन सनातन मूल्यों की पुनर्स्थापना के कार्य हेतु समर्पित कर दिया है।)