धार्मिक समानता के शंखनाद ने हिन्दू महिलाओं को अपनी आवाज़ बुलंद करने की पूरी आज़ादी दी है, पर बाकी धर्मो की महिलाओ के साथ आज भी भेदभाव हो रहा है। उनकी आज़ादी के शिगूफे कागज़ों में ही रह गए हैं। महिलाओं के मान और सम्मान की जब बात आती है इन धर्मों की कथनी और करनी में भारी विभेद नजर आता है। ईसाई धर्म में तो ये भेद भाव सारी हदें तोड़ गया है।
आजादी के 70 साल का इतिहास पलट कर देख लीजिए, इस देश ने धर्म और उससे जुड़े सुधारों पर इतना सकारात्मक विमर्श कभी नहीं देखा. महिलायें, चाहे वो किसी भी धर्म की हों, उनको अपनी आवाज़ उठाने का मौक़ा मिला है और अपना हक़ मांगने की आज़ादी मिली है।
याद कीजिए सबरीमाला मंदिर और हाजी अली की दरगाह में प्रवेश पाने के लिए महिलाओ की लड़ाई और सदियों बाद गूंजता विजयघोष। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है की कुछ धार्मिक मान्यताएं और बाध्यताएं सवालों के घेरे में आई हैं और न्यायालयों को हस्तक्षेप करना पड़ा है। पर सत्य ये भी है समाज का एक ऐसा वर्ग है जो आज भी धार्मिक समानताओं के लिए आवाज़ उठाता रहा है, जिससे देश के हर ख़ास-ओ-आम को उसका सम्मान और हक़ मिले।
धार्मिक समानता के शंखनाद ने हिन्दू महिलाओं को बोलने की और अपनी आवाज़ बुलंद करने की पूरी आज़ादी दी है, पर बाकी धर्मो की महिलाओ के साथ आज भी भेदभाव हो रहा है। उनकी महिला आज़ादी के शिगूफे कागज़ों में ही रह गए हैं जमीन पर नहीं पहुंच पाए हैं। महिलाओं के मान और सम्मान की जब बात आती है इन धर्मों की कथनी और करनी में भारी विभेद नजर आता है। ईसाई धर्म में तो ये भेद भाव सारी हदें तोड़ गया है वो भी जब ईसाईयत खुद को सबसे उन्नत और आधी दुनिया को जोड़ने वाला धर्म बताने से नहीं चूकती।
हालांकि वे धार्मिक व्यवस्था का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बनाते हैं, लेकिन उनकी पहचान अनिवार्य रूप से कैथोलिक चर्च के पितृसत्तात्मक मानदंडों पर आधारित होती है। एक बार जब वे आदेश का हिस्सा बन जाते हैं, तो उन्हें शायद ही कभी अपनी व्यक्तिगत एजेंसी का उपयोग करने के लिए कोई जगह दी जाती है और पुरुष संस्थागत प्राधिकरण के तहत दृढ़ जीवन जीने के लिए मजबूर किया जाता है। प्रमुख प्रवचन जिसने नन को आत्म-बलिदान के अवतार को बनाया है, व्यवस्थित और संगठित तरीके से उन लोगों की जिंदगी जीने की निंदा की है जहां उनकी वास्तविक क्षमता भुला दी गई है। उन्हें उन भूमिकाओं को पूरा करने के लिए मजबूर किया जाता है जो उन पर जोर दे रहे हैं।
ये वही ईसाई धर्म है जिसने 1943 में कई पापल डिक्री प्रेजेंट कर डिस्कवरी डॉक्ट्रिन का सिद्धांत दिया जो कहता था क्रिश्चियन एक्स्प्लोरर्स हर उस जमीन पर कब्ज़ा कर सकते है जिसपर ईसाई नहीं रहते या जो उन्होंने खोजी है. इस डाक्ट्रिन ने उन्हें ये भी अधिकार दिया की वो हर उस शख्स को गुलाम बना सकते है या हत्या कर सकते है जो उनके धर्म को स्वीकार नहीं करता। ये वही स्वघोषित सम्प्रभुता सिद्धांत है जो इस धर्म की रगों में है और इस धर्म को चला रहा है। जिस तरह से इस धर्म ने ननो को उनके सम्मान से वंचित रखा और उनकी आवाज़ दबाई, ये अभूतपूर्व है। हालांकि नन क्रिश्चियन धार्मिक व्यवस्था का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं, लेकिन उनकी पहचान कैथोलिक चर्च के पितृसत्तात्मक मानदंडों पर आधारित होती है। एक बार जब वे इस व्यवस्था का हिस्सा बन जाती हैं, तो उनकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता समाप्त हो जाती है और वो इसी पितृसत्तात्मक ढकोसलों के भीतर जीवन जीने को मजबूर हो जाती हैं। ईसाईयत की धर्म व्यवस्था जो नन को आत्म-बलिदान के लिए हमेशा तैयार रहने को कहती है वो उन्हें एक बहुत ही आर्गनाइज्ड तरीके से सम्मानित जीवन से दूर करती है और उनके भीतर निहित आत्मसम्मान से वंचित करती है। उन्हें उन भूमिकाओं को पूरा करने के लिए मजबूर किया जाता है जो उन पर जोर दे रहे हैं। उनके वो करने के लिए मजबूर किया जाता है जो चर्च चाहता है।
यहाँ ये जानना जरुरी नहीं है की इस धर्म की विषमताएं क्या है और क्यों इस धर्म में सुधारों की सख्त जरुरत है। सिस्टर मेरी जिन्होंने ४० साल नन रहने के बाद केरल कि एक कैथोलिक समूह को छोड़ा उनकी लिखी बायोग्राफी ने दुनिया को इस धर्म के भीतर फैले अन्धकार के बारे में सोचने के लिए मजबूर कर दिया। ये बायोग्राफी महज एक किताब नहीं है, ये डरा देने वाले वो दुःस्वप्न हैं जिसमे एक पवित्र चर्च है, और उसके भीतर उनके साथ सालों तक बिना रुके होने वाला शारीरिक और मानसिक शोषण है। 2011 में वेटिकन ने यह माना था कि उन्हें पता है कि कम से कम 23 ऐसे देश हैं जहां के पादरी ननों का शारीरिक उत्पीड़न करते है। एक पवित्र स्थान पर ऐसी विकृति की ऐसी स्वीकारोक्ति कभी नहीं देखी गई होगी।
जब इस तरह के वाक्यात सामने आते हैं तो अक्सर हम भूल जाते है की ये आज की बात नहीं है। समस्या का मूल कारण 2000 साल पुराना है जब कैथोलिक परंपरा का आरम्भ हुआ। जैसे ही एक महिला आपने आराध्य ईश्वर की सेवा के लिए अपना जीवन समर्पित कर देती, उसे हिजाब पहना दिया जाता था। यही से उसकी दासत्व और गुलामी का अध्याय शुरू हो जाता था। एक ऐसा नारकीय जीवन जहाँ महिलाओं के सामजिक अधिकार नगण्य हो गए और वो सिर्फ एक केयरटेकर की भूमिका में सीमित कर दी गई, उनकी आइडेंटिटी छीन ली गई। बाइबल के ये दो पैसेज़ पढ़िए और इनकी बानगी देखिये:
1 Corinthians 11:5 reads: And every woman who prays or prophesies with her head uncovered dishonours her head, for it is just as if her head were shaved.
1 Corinthians 11:7 reads: A man ought not to cover his head, since he is the image and glory of God; but the woman is the glory of man.
यहाँ बात हो रही है एक ऐसे धर्म की जहा स्त्री से घृणा इतनी ज्यादा है, कि उन्हें एक तुच्छ वस्तु से ज्यादा कुछ नहीं माना जाता। और इसके पीछे का तर्क कि नन्स ने खुद ही ये जिंदगी चुनी है, एक बेतुके कुतर्क से ज्यादा कुछ नहीं है। हिंदू धर्म में जब कोई साधु और साध्वी बनता है, तो अक्सर इसका इस्तेमाल उनके आसपास के लोगों जिंदगी को बेहतर बनाने के लिए करता है। राजनीति में साध्वी उमा भारती जैसी नेता, श्री श्री रवि शंकर जैसे आध्यात्मिक गुरु और बाबा रामदेव जैसे योग गुरु ने दिखाया है कि एक व्यक्ति समाज को सही दिशा दे सकता है भले ही वो ईश्वर की तलाश में स्वयं ही निकला हुआ हो। उन्होंने समाज में आध्यात्मिकता और नैतिकता को बढ़ावा देने के लिए वो सब किया है जो जरुरी है। और यही वो तरीका है जो मानवीय स्वतंत्रता को निर्धारित करता है। समाज पितृ सत्तात्मक नियमों से नहीं, समाज को राह दिखाने वाले सही रास्तो से आगे प्रशस्त होता है।
दुर्भाग्यपूर्ण सत्य यह है कि सदियों से धार्मिक नेता उन्ही विधाओं की व्याख्या कर रहे है जिससे अपने निहित स्वार्थ सधें महिलाये उनके अधीन आएं। जब नन की बात आती है, तो उन्हें एक षड़यंत्र के तहत समाज से काट दिया गया है जहां पुरुष पुजारियों का वर्चस्व है।
उन्हें ये बता दिया जाता है की अब वो एक मानव समाज का हिस्सा नहीं है क्योंकि समाज में रहकर वो समाज की सेवा नहीं कर सकती। प्राधिकरण की स्थिति में सेवा नहीं कर सकते हैं। एक ऐसा धर्म जो मुक्त करने का दम्भ देता है और प्रबुद्ध होने का दावा करता है, वहा महिलाओं के साथ ऐसा व्यवहार और उनका ऐसा शोषण हज़ार सवाल खड़े करते है। सबसे बड़ा सवाल ये है कि ऐसा कैसे हो सकता है ईश्वर द्वारा बनाई गई एक कृति दूसरी कृति से कमतर हो।
अगर यीशु को यही देखना था की उसके कुछ बच्चों के साथ भेदभाव किया गया है और लिंग के नाम पर उनके मौलिक अधिकारों का हनन हो रहा है तो वह खुद भी सूली पर चढ़ जाते।
लेखक परिचय
विनीत गोयनका
सदस्य, CRIS(रेल मंत्रालय)
सदस्य, आईटी टास्क फोर्स(सड़क परिवहन, हाईवे, जहाजरानी, मंत्रालय)
पूर्व सह संयोजक, बीजेपी आईटी सेल