भगवान युद्ध विद्या में भी अति निष्णात थे और वह सदैव आततायियों के वध के लिए आतुर रहते थे। आइए आज श्रीहरि यशोदानंदन के योद्धा स्वरुप से आपका परिचय कराएं। भगवान वासुदेव 64 कलाओं के दक्ष थे। एक तरफ वह सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर थे तो दूसरी ओर द्वंद्व युद्ध यानी मार्शल आर्ट के भी निपुण योद्धा थे।
परमपिता परमेश्वर की संपूर्ण कलाओं के साथ भगवान श्रीकृष्ण इस धरा पर अवतरित हुए। उनका जन्मदिन पूरे देश में धूमधाम से मनाया जा रहा है। कृष्ण की बाल लीलाओं में लोग भावभीने हो रहे हैं। गोपिकाओं संग प्रेमी कृष्ण की रासलीला की याद में जन्माष्टमी पंडालों में नृत्य संगीत का आयोजन हो रहा है। आम जनता में श्रीकृष्ण की बाललीला और राधारानी से उनके रास की कहानियां ज्यादा प्रचलित हैं।
किंतु हम भूल जाते हैं, कि प्रियातिप्रिय श्रीकृष्ण योगीराज भी थे, उन्होंने मात्र 64 दिनों में गुरु सांदीपनि से समस्त विद्याएं ग्रहण कर ली थीं।
भगवान युद्ध विद्या में भी अति निष्णात थे और वह सदैव आततायियों के वध के लिए आतुर रहते थे। आइए आज श्रीहरि यशोदानंदन के योद्धा स्वरुप से आपका परिचय कराएं। भगवान वासुदेव 64 कलाओं में दक्ष थे। एक तरफ वह सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर थे तो दूसरी ओर द्वंद्व युद्ध यानी मार्शल आर्ट के भी निपुण योद्धा थे।
वह सभी प्रकार से अस्त्र-शस्त्र धारण करते थे। उनके धनुष का नाम सारंग था, उनकी म्यान में तीक्ष्ण नंदक खड्ग सदैव रहती थी, उनकी गदा का नाम कौमोदकी था, युद्ध की घोषणा के लिए वह गुलाबी रंग के पांचजन्य शंख का नाद करते थे। उनके रथ का नाम जैत्र या गरुड़ध्वज था, जिसमें शैव्य, सुग्रीव, मेघपुष्प और बलाहक नाम के घोड़े जुते हुए रहते थे। भगवान के सारथी का नाम दारुक था।
श्रीकृष्ण ने परशुराम से सुदर्शन चक्र हासिल किया था। शिवजी का पाशुपतास्त्र और प्रस्वपास्त्र उनके पास था। वह सभी तरह के दिव्यास्त्रों का संधान करने में निपुण थे। भगवान श्रीकृष्ण सामान्य तौर पर तो अति सुकोमल और बाल सुलभ छवि वाले थे। किंतु क्रोध आने पर उनकी मांसपेशियां लौह के समान दृढ़ हो जाती थीं और वह परमशक्तिशाली पुरुष की तरह दिखने लगते थे। यह उनके योगीराज होने का प्रमाण है।
बाल्यकाल से ही श्रीकृष्ण ने दुष्टों के विनाश के लिए हिंसा को त्याज्य नहीं समझा। अपने जन्म के छठे दिन से ही बाल कृष्ण ने असुरों का संहार करना शुरु कर दिया था। उन्होंने पूतना राक्षसी का वध किया। कंस द्वारा भेजे गए अनेक असुरों जैसे तृणावर्त,वत्सासुर,बकासुर,धेनुकासुर,अरिष्टासुर का वध किया। अति शक्तिशाली कालिय नाग का दमन किया।
कंस ने जब उन्हें अपनी सभा में बुलाकर उनका अहित करने का विचार किया, तो उन्होंने कंस के योद्धाओं मुष्टिक और चाणूर को द्वंद्व युद्ध(मार्शल आर्ट के जरिए) में परास्त किया, कूट-शल और तोशल को खेल-खेल में मार डाला। अपनी अतिमानवीय ताकत के नशे में मदमत्त कुलवयापीड़ हाथी को वशीभूत कर लिया।
महाभारत युद्ध में उन्होंने वैसे तो शस्त्र नहीं धारण किया। लेकिन अर्जुन का मोह दूर करके उसे युद्ध के लिए प्रेरित करने के लिए गीता का जो ज्ञान दिया, वह आज भी पूरे संसार के लिए आदर्श है।
श्रीकृष्ण इस संसार के सभी सदाचारी लोगों के हितैषी हैं, परन्तु धर्मविरोधी होने पर निजी संबंधियों को भी क्षमा नहीं करते थे। कंस उनके मामा थे पर अधार्मिक होने के कारण स्वयं श्रीकृष्ण ने उनका वध किया। शिशुपाल पांडवों के समान श्रीकृष्ण की बुआ का लड़का था, पर पापाचारी था, इसलिए उन्होंने उसका सिर चक्र से काट दिया।
सम्मुख युद्ध में उन्होंने दानवराज बालि के महाशक्तिशाली पुत्र एक हजार हाथों वाले बाणासुर को भी इतना विवश कर दिया कि उसने सहायता के लिए स्वयं महादेव को बुला लिया। सृष्टिकर्ता सदाशिव के सामने आने पर भी श्रीकृष्ण उनसे युद्ध करने से नहीं चूके और अपनी बुद्धि का प्रयोग करके भोलेनाथ के उपर उनके ही जृम्भणास्त्र का प्रयोग कर दिया। जिसके कारण शंकर भगवान युद्धभूमि से विमुख हो गए।
बाद में शिवभक्त बाणासुर की रक्षा के लिए स्वयं माता भगवती सामने आ गईं, जिसके बाद उन्होंने बाणासुर से युद्ध बंद करके उसकी बेटी से अपने पुत्र का विवाह स्वीकार कर लिया। अत्यधिक अत्याचारी प्राग्ज्योतिषपुर(आधुनिक असम) के राजा नरकासुर या भौमासुर का उन्होंने सम्मुख युद्ध में वध कर दिया। क्योंकि उसने सोलह हजार कुमारी कन्याओं का अपहरण कर लिया था। नरकासुर ने देवताओं को भी परास्त कर दिया था। उसके सात दुर्ग थे, जिनकी रक्षा के लिए उसने बड़े बड़े असुर सेनापतियों की नियुक्ति कर रखी थी।
श्रीकृष्ण ने गरुड़ पर सवार होकर इन सभी का अपने हाथों से वध किया। नरकासुर का वध करने के बाद इंद्र ने उन्हें पारिजात देने का वचन दिया और बाद में उससे मुकर गया। इससे नाराज होकर श्रीकृष्ण ने सत्यभामा जी के साथ स्वर्ग पर चढ़ाई कर दी। उन्होंने वरुण का नागपाश काट दिया।
यमराज के दंड को अपनी कौमोदकी गदा के प्रहार से गिरा दिया। चक्र से प्रहार करके कुबेर की शिविका(पालकी) नष्ट कर डाली। सूर्यदेव को अपनी तीक्ष्ण दृष्टि से ही हतप्रभ कर दिया। अग्निदेव को उठाकर पी लिया। रुद्रगणों के त्रिशूल नष्ट कर दिए। मरुद्गणों, साध्यदेव, विद्याधरों को बाणवर्षा से व्याकुल कर दिया। इंद्र के वज्र को बांए हाथ से पकड़कर छीन लिया और उसके उपर सुदर्शन चक्र तान दिया। बाद में देवमाता अदिति की प्रार्थना पर पारिजात वृक्ष छीनकर इंद्र को प्राणदान दिया। बाद में यह पारिजात वृक्ष सत्यभामा जी के आंगन में रोपा गया।
करुपदेश(चुनार,यूपी) के राजा पौंड्रक ने भगवान विष्णु की तरह नकली चक्र, शंख, तलवार, मोर मुकुट, कौस्तुभ मणि, पीले वस्त्र करके स्वयं को ईश्वर घोषित कर दिया था। उसने श्रीकृष्ण को भी स्वयं को ईश्वर मानने का आदेश दिया था। लेकिन वासुदेव ने गरुड़ पर सवार होकर करुपदेश पर आक्रमण किया और पौंड्रक का वध कर दिया।
द्वारिका पर हमला करने आए दंतवक्त्र ने उनको गदायुद्ध के लिए चुनौती दी थी। श्रीद्वारिकाधीश उसका वध करने के लिए रथ से उतरकर कूद गए। उनके वक्ष पर दंतवक्त्र ने गदा का वार किया, जिसे भगवान झेल गए। इसके बाद भगवान ने अपनी कौमोदकी गदा से उसके वक्ष पर प्रहार किया। जिससे उसका सीना फट गया, पसलियां चूर हो गईँ, उसके मुंह से रक्त की धारा निकलने लगी और उसका वहीं देहांत हो गया।
श्रीकृष्ण द्वंद्वयुद्ध यानी मार्शल आर्ट की कला में भी निष्णात थे। इस बात के वैसे तो कई उदाहरण मिलते हैं। लेकिन सबसे बड़ा उदाहरण है ऋक्षराज जाम्बवंत से उनका युद्ध। रामायण काल यानी त्रेता काल के महायोद्धा जाम्बवंत अपने परिवार के साथ जंगल की एक गुफा में रहते थे। स्यमंतक मणि की तलाश में श्रीकृष्ण ने गुफा के अंदर उनसे 21(इक्कीस) दिनों तक युद्ध किया।
जाम्बवंत महाशक्तिशाली थे, लेकिन प्रभु श्रीकृष्ण ने अपनी युद्धकला से उन्हें भी विवश कर दिया। आखिर में जब जाम्बवंत हारने लगे तो उन्होंने अपने प्रभु श्रीराम को पुकारा। तब भगवान श्रीहरि ने उन्हें श्रीराम के रुप में दर्शन दिया। जिसके बाद जाम्बवंत जी ने अपनी कन्या जाम्बवंती का विवाह श्रीकृष्ण के कर दिया। जो कि उनकी आठ पटरानियों में से एक हुईं।
भगवान श्रीकृष्ण के जीवन के यह कुछ उदाहरण आपके सामने हैं, जो यह दर्शाते हैं कि कैसे प्रभु युद्धविद्या के महान ज्ञाता थे। उन्होंने धर्म की रक्षा के लिए कई महान युद्ध लड़े। कालयवन से युद्ध में उन्होंने महाभारत की तरह बिना शस्त्र धारण किए कई यवनों और दानवों का स्वधाम पहुंचा दिया था।
भगवान के बाल स्वरुप और प्रेमी स्वरुप की उपासना तो सर्वथा उचित है। लेकिन उनके योद्धा स्वरुप का भी विस्मरण नहीं होना चाहिए। क्योंकि यह भी हमारे प्राणप्रिय कान्हा का एक प्रमुख रुप है, जो कि हमें आततायियों से संघर्ष की प्रेरणा प्रदान करता है।