वाराणसी में जंग शुरु होने से पहले तय हो चुकी है जीत

प्रियंका वाड्रा अगर वाराणसी से चुनाव मैदान में उतरतीं तो उनकी पराजय निश्चित थी। लेकिन अगर वह पीएम मोदी को ठीक चुनौती भी नहीं दे पाती तो इसका संदेश बहुत बुरा जाता। उनके पहले ही चुनाव में पराजय का दंश लेना उनके एवं कांग्रेस के लिए ऐसा आघात होता जिससे उबरना कठिन हो जाता। कांग्रेस अपने इतने बड़े तुरुप के पत्ते की छवि बुझे हुए कारतूस जैसी बनाने का जोखिम नहीं उठा सकती थी।

Lok sabha election 2019 Varanasi seat PM Modi and Priyanka Gandhi Vadra

नई दिल्ली: देश दो दिनों तक वाराणसी का साक्षात्कार करता रहा। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के रोड शो से लेकर पूजा-अर्चना तथा अंततः नामांकन करने तक पूरे चुनाव का फोकस वाराणसी पर ही था। आम विश्लेषण यह है कि प्रधानमंत्री एवं भाजपा ने वाराणसी के कार्यक्रमों को भव्य स्वरुप देकर उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल तथा अवध-रुहेलखंड को साधने की रणनीति अपनाई है। 

निश्चय ही ऐसे आयोजनों का मतदाताओं पर मनोवैज्ञानिक असर होता है। इस समय सपा-बसपा गठबंधन के बाद जातीय समीकरणों के मजबूत होने का जो माहौल है उसमें इस प्रकार के दृश्यों का महत्व स्पष्ट हैं। इतने भारी समर्थक समूहों की दिखती अनुकूल और उत्साही प्रतिक्रियायें यह संदेश देतीं हैं कि विपक्ष के प्रचार के विपरीत मोदी और भाजपा को लेकर माहौल में अंतर नहीं है। इसका असर मतदान प्रवृत्ति पर पड़ता है। इसके प्रभाव को उत्तर प्रदेश के इन दो क्षेत्रों तक सीमित मानना उचित नहीं होगा। जब सारे दृश्य व प्रतिक्रियायें पूरा देश देख रहा है, नरेन्द्र मोदी के दोनों भाषण तथा मीडिया को दिया गया वक्तव्य देश ने लाइव सुना तो उसका प्रभाव केवल निश्चित भौगोलिक क्षेत्र तक सीमित कैसे रह सकता है। 

साफ है कि आम चुनाव कें अंतिम चार दौर के लिए, जहां से पिछले चुनाव में भाजपा ने 162 सीटें जीतीं थी, वाराणसी का दो दिवसीय कार्यक्रम महत्वपूर्ण हो गया है। पिछले आम चुनाव में भी नरेन्द्र मोदी के वाराणसी कार्यक्रमों ने उत्तर प्रदेश एवं यहां से बाहर देश भर में प्रभाव दिखाया था और इस बार भी इसके असर से इन्कार करना कठिन है।
 

वैसे वाराणसी में इस चुनाव में पिछली बार की तरह रोचक नहीं रह गया है। पिछली बार अरविन्द केजरीवाल के उम्मीदवार होने के कारण पिछली बार एक अलग किस्म का माहौल था। मोदी विरोधियों के लिए केजरीवाल एक राष्ट्रीय व्यक्तित्व बनकर उभरे थे जो सीधे उनको चुनौती देने वाराणसी पहुंचा है। इस बार भी पिछले कुछ समय से कांग्रेस की महासचिव प्रियंका वाड्रा के उम्मीदवार बनाए जाने की अटकलों के कारण लग रहा था कि माहौल फिर 2014 सदृश बनेगा। 

प्रियंका वाड्रा के उम्मीदवार बनने का मतलब होता नेहरु इंदिरा परिवार द्वारा प्रधानमंत्री को मैदान में सीधे चुनौती देना। प्रियंका के हर प्रवास को जितना कवरेज मीडिया में मिलता है वह हमारे सामने है। शायद कांग्रेस के रणनीतिकारों ने इलाहाबाद से वारणसी तक गंगा यात्रा के माध्यम से प्रियंका की लोकप्रियता और क्षमता को समझने की कोशिश की। उस दौरान उनको व्यापक मीडिया कवरेज मिला। 

यहां तक तो ठीक था। किंतु क्या मोदी के विरुद्ध सीधे मैदान में उतार देना उचित होता? इस प्रश्न पर निश्चय ही राहुल गांधी के साथ प्रमुख रणनीतिकारों ने मंथन किया होगा, अपने संपर्क के विश्लेषकों से भी सलाह मशविरा किया होगा और उसके बाद इस बारे में बिना कुछ बोले वहां से केवल उम्मीदवार की घोषणा कर दी गई। 2014 की तरह ही फिर अजय राय को कांग्रेस ने अपना उम्मीदवार घोषित कर दिया है। 

निस्संदेह, कांग्रेस के इस निर्णय से ज्यादा कष्ट उन लोगों को हुआ है जो माहौल बनाए हुए थे कि प्रियंका वाड्रा वाराणसी से नरेन्द्र मोदी को चुनौती देकर नई इबारत लिख देंगी। साफ दिख रहा था कि पत्रकारों, बुद्धिजीवियों तथा एक्टिविस्टों का एक बड़ा वर्ग कांग्रेस को इसके लिए तैयार करने में लग गया था। पता नहीं यह समाचार पहले-पहल किसने मीडिया को दी किंतु पिछले कुछ दिनों से चुनावी चर्चा का यह प्रमुख विषय हो गया था। स्वयं प्रियंका ने भी इन समाचारों पर विराम देने की जगह बयान दे दिया था कि अगर अध्यक्ष आदेश देते हैं तो मैं जरुर लड़ूंगी। इस बयान के बाद जब तक कांग्रेस की ओर से अधिकृत वक्तव्य नहीं आ जाता तब तक कोई इस पर पूर्ण विराम लगा भी नहीं सकता था। 

हालांकि इसकी संभावना कम थी कि कांग्रेस भविष्य के अपने दूसरे सबसे बड़े व्यक्तित्व को इतने बड़े संग्राम में उतारेगी। वाराणसी में मोदी को चुनौती देना आसान नहीं है। वह भी उस स्थिति में जब सपा ने गठबंधन की ओर से अपना उम्मीदवार उतार दिया था। सपा ने कांग्रेस के पूर्व सांसद और राज्यसभा के पूर्व उप सभापति श्यामलाल यादव की पुत्रवधू शालिनी यादव को उम्मीदवार घोषित किया है। शालिनी यादव इसके पूर्व कांग्रेस में थीं तथा वाराणसी मेयर का चुनाव भी लड़ चुकीं हैं। 

ध्यान दीजिए, प्रियंका के नाम को लेकर चल रही चर्चा के बीच ही अखिलेश यादव ने शालिनी यादव को सपा में शामिल कर उम्मीदवार घोषित कर दिया। इसके मायने स्पष्ट हैं। नरेन्द्र मोदी और भाजपा को सत्ता से बाहर करने के नाम पर भले सपा-बसपा एवं कांग्रेस एक पायदान पर हों, लेकिन राजनीति के धरातल पर ये बिल्कुल अलग हैं। वाराणसी में कांग्रेस को तोड़कर उसके एक प्रमुख नेता को अपनी पार्टी में शामिल करके अखिलेश यादव ने स्पष्ट संकेत दे दिया कि वो किसी तरह की रियायत देने को तैयार नहीं हैं। वैसे भी अखिलेश एवं मायावती उत्तर प्रदेश में प्रियंका के रुप में एक नेता को पनपने देकर अपने लिए समस्या क्यों पैदा होने देंगे। इसके बाद प्रियंका के लिए स्थान बचता ही नहीं था। 

सपा-बसपा अलग हो और कांग्रेस की ही पूर्व नेत्री उनकी ओर से मैदान में हो तो फिर विपक्ष का मत किसकी ओर जाएगा? पिछले चुनाव का अंकगणित देखें तो मोदी को शिकस्त देने की संभावना दूर-दूर तक नहीं दिखेगी। अरविन्द केजरीवाल की छवि तक एक राष्ट्रीय व्यक्तित्व की गढ़ी जा चुकी थी। बावजूद इसके नरेंद्र मोदी के 5 लाख 81 हजार 022 मतों की तुलना में उन्हें 2 लाख् 9 हजार 238 मत ही मिल पाए। इस तरह मोदी की विजय 3 लाख 71 हजार 784 मतों से हुई। कांग्रेस प्रत्याशी अजय राय को 75,614, बसपा के विजय प्रकाश जायसवाल को 60,579 तथा सपा के कैलाश चौरसिया को 45 हजार 291 मत प्राप्त हुए। केजरीवाल के अलावा सभी की जमानत जब्त हो गई थी।

 इस तरह प्रियंका वाड्रा की पराजय निश्चित थी किंतु यदि मोदी को ठीक चुनौती भी नहीं दे पाती तो इसका संदेश क्या जाता? पहले ही चुनाव में पराजय का दंश लेना उनके एवं कांग्रेस के लिए ऐसा आघात होता जिससे उबरना कठिन हो जाता। कांग्रेस अपने इतने बड़े तुरुप के पत्ते की छवि बुझे हुए कारतूस की नहीं बनाने का जोखिम नहीं उठा सकती थी। हालांकि  सघन चर्चा के बाद प्रियंका का चुनाव मैदान में न आने का संदेश भी वर्तमान चुनाव में कांग्रेस के लिए नकारात्मक जाएगा पर यह बुरी पराजय की तुलना में बेहतर विकल्प है। 

बहरहाल, वाराणसी का चुनाव परिणाम 23 मई के पहले ही स्पष्ट हो गया है। किंतु मूल प्रश्न इसके बाहर तथा भविष्य का है। चुनाव ही नहीं पूरी राजनीति में धारणाओं और संदेशों का व्यापक महत्व होता है। मोदी एवं भाजपा यहां से जो संदेश देना चाहते थे उसे देने में उनको सफल मानने में कोई समस्या नहीं है। 

पिछले करीब दो वर्षों में राहुल गांधी ने अलग-अलग मंदिरों के दर्शनों से हिन्दूनिष्ठ होने की छवि निर्मित की थी। हालांकि इस चुनाव में दोनों समुदायों के मतों का ध्यान रखते हुए उन्होंने ऐसा नहीं किया है, पर गंगा की नाव यात्रा से प्रियंका की छवि अवश्यक एक धार्मिक महिला की निर्मित करने की कोशिश हुई। 

ऐसे में पीएम मोदी ने दो दिनों की पूजा-अर्चना तथा सारे कार्यक्रमों को भव्य स्वरुप देकर उसका प्रत्युत्तर दिया है। इससे लोगों के अंदर क्या धारणा बन रही होगी इसका आकलन करने के लिए हम आप स्वतंत्र हैं। दूसरे, प्रियंका वाड्रा एवं राहुल गांधी के जो भी रोड शो हुए उनसे काफी बड़ा रोड शो करके देश को तुलना करने का विषय दिया है। 

तीसरे, राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के सभी घटकों को एकत्रित कर यह संदेश भी दिया गया है कि एक ओर यदि विपक्ष बिखरा हुआ है तो दूसरी ओर मोदी एवं भाजपा के नेतृत्व में सत्तारुढ़ घटक एकजुट है। इस चुनाव में भाजपा ने मजबूत सरकार बनाम मजबूर सरकार का जो नारा दिया है उसके अनुरुप ही वाराणसी से निकला हुआ यह महत्वपूर्ण राजनीतिक संदेश है। 

मोदी ने दो कार्यक्रमों में जो भाषण दिया वह चुनाव अभियान में पार्टी मंच से होने वाले भाषणों से काफी अलग था। काशी के बुद्धिजीवियों के संबोधन में उन्होंने राष्ट्र के वर्तमान एवं भविष्य को लेकर अपनी विचारधारा को स्पष्ट किया जिन पर हमारे चुनाव में सामान्यतः बहस नहीं होती। राजनीतिक विचार एवं व्यवहार पर ज्यादा चिंतन एवं प्रश्न करने वाले वर्ग के लिए यह आवश्यक था। इसी तरह वाराणसी के कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए उन्होंने देश भर के अपने कार्यकर्ताओं को चुनाव अभियान के दौरान के व्यवहार के संदर्भ में मार्गनिर्देश भी दिया।

मसलन, विरोधी चाहे जितना आलोचना करें हमें उसमें नहीं पड़ना है, हमें लोगों का दिल जीतना है। जब दिल जीतेंगे तभी देश जीतेंगे। चुनाव के तापमान में कार्यकर्ताओं को तनाव से परे रहकर लोगों का समर्थन पाने पर फोकस रखने के लिए यह अत्यंत ही आवश्यक मार्गनिर्देश था। इस तरह वाराणसी से नरेन्द्र मोदी एवं भाजपा ने बहुआयामी संदेशों के द्वारा मतदाताओ के बीच अपने अनुकूल धारणा निर्मित करने की अत्यंत प्रबल कोशिश की है। उसे देश किस रुप में लेता है यह अलग बात है।

अवधेश कुमार
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और विश्लेषक हैं)

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