नरेन्द्र मोदी सेंसर्ड किस हद तक — बता रही डीडी न्यूज़ के स्टार एंकर के अनुभव से सराबोर पुस्तक

By Surajit Dasgupta  |  First Published Mar 13, 2019, 10:27 PM IST

राहुल गांधी का एक इंटरव्यू जो मिला नहीं और तत्कालीन भाजपा के प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेन्द्र मोदी से एक साक्षात्कार जो रिकॉर्ड तो हुआ पर उसके प्रसारण को सुनिश्चित करने के लिए डीडी न्यूज़ के एंकर को बड़े पापड़ बेलने पड़े — इन सत्य कहानियों की पृष्ठभूमि पर कैसे-कैसे नाटकों का मंचन हुआ, कुछ परदे पर और काफ़ी कुछ परदे के पीछे, यह बताती है अशोक श्रीवास्तव की किताब नरेन्द्र मोदी सेंसर्ड

पत्रकार एवं टीवी एंकर अशोक श्रीवास्तव की पुस्तक नरेन्द्र मोदी सेंसर्ड कई वर्ग के पाठकों के लिए अनुमोदित ही नहीं बल्कि अनिवार्य है —

1.    देश के नागरिक यह जानें कि प्रधानमंत्री मोदी के बारे में उन्हें आज तक जो बताया गया वह कहाँ तक सच है

2.    निजी चैनलों में कार्यरत पत्रकार यह जानें की डीडी न्यूज़ की कार्यशैली क्या है

3.    अर्थशास्त्र में रुचि रखने वाले यह समझें कि कोई भी काम निजी क्षेत्र की एक कंपनी सरकारी क्षेत्र के किसी उपक्रम से बेहतर क्यों और कैसे कर सकती है

पुस्तक — नरेन्द्र मोदी सेंसर्ड; लेखक — अशोक श्रीवास्तव; पृष्ठ — 208; पेपरबैक संस्करण मूल्य — रु० 300

जहाँ तक एक समय के गुजरात मुख्यमंत्री और आज के प्रधानमंत्री मोदी का सवाल है, पुस्तक के इस पहलू ने मुझे आश्चर्यचकित नहीं किया कि उनके बारे में जो ख़बरें हम तक पहुँचती हैं उनमें कितना पूर्वाग्रह, कितना झूठ, कितनी कही-सुनी बातें होती हैं। सन 2013 में जब उनपर लिखी जाने वाली एक पुस्तक के लिए मैं शोध कार्य में लीन था तब सच के साथ खिलवाड़ के कई ज्वलंत उदाहरण मेरे सामने आए।

जैसा कि इस पुस्तक में भी डीजी एसएम ख़ान अशोक श्रीवास्तव पर यह दबाव डालते हैं कि वे 2002 के गुजरात दंगों के बारे में सवाल अवश्य पूछें — हालांकि प्रस्तावित साक्षात्कार लेने वाले पत्रकार समझते थे कि मोदी अदालत से बाइज़्ज़त बरी हो गए हैं और उनके बॉस का मानना था कि मोदी के ख़िलाफ़ और सबूत जुटाए जा सकते हैं — मैं जिस किताब के लिए शोध कर रहा था उसमें भी फ़साद का ज़िक्र ज़रूरी था। मैंने सोचा कि विकिपीडिया से शुरू करते हैं। इस विषय पर विकिपीडिया के लेख के नीचे दिए गए ख़बरों के स्रोतों को देख मैं दंग रह गया। मुश्किल से आधे दर्जन से कम पत्रकारों का काम वहाँ ओरिजिनल था। अधिकांश पत्रकारों ने एक दूसरे को कोट किया था! अर्थात किसी दंगे की घटना के मौक़े पर कम ही पत्रकार गए; उन्होंने अपने-अपने घर या दफ़्तरों में बैठकर मोदी के दंगाइयों के साथ कथित साँठ-गाँठ पर पूर्वाग्रह से ग्रसित रिपोर्ट्स फ़ाइल कर दीं और जहाँ-जहाँ पुष्टि की ज़रूरत पड़ी, अपने किसी पत्रकार मित्र को उद्धृत कर दिया! न जस्टिस लिबरहान के साथ साक्षात्कार, न गोधरा पहुँच कर कारसेवकों को ज़िंदा जला कर मारने की साज़िश का राज़ फ़ाश करने की कोशिश, न भरूच के मुसलमानों से पूछना कि मोदी क्या हैं, न किसी पुलिस अधिकारी से भेंट की कोशिश, न किसी पीड़ित या अभियुक्त से मुलाक़ात!

मोदी इस देश में किस हद तक सेंसर्ड हैं यह इस बात से साबित हो जाएगा कि जिन पत्रकारों ने उनपर किताबें लिखीं, उनमें से भी एकाध ने गुजरात से वापस आकर मनगढ़ंत कुछ ऐसा लिखा जो उस राज्य में कहीं देखा या सुना ही न हो! मोदी ने गुजरात मुख्यमंत्री कार्यालय में 12 दिसंबर 2013 को हमारी टीम को ऐसे ही एक लेखक के बारे में बताया था जो अपनी पत्नी के साथ पधारे और कहने लगे “मेरी पत्नी आपकी बहुत बड़ी फ़ैन है”। फिर अगले 15 मिनट तक उनकी पत्नी ने ही गुजरात मुख्यमंत्री से बातचीत की जबकि लेखक स्वयं चुप बैठे रहे। फिर वापस अपने ठिकाने पहुँचे तो जो मन में आया लिख डाला!

इससे भी भयंकर, पत्रकारिता को शर्मसार करने वाली घटनाओं को मोदी के ख़िलाफ़ प्रोपगंडा के लिए सरअंजाम दिया गया। पहली घटना वह थी जहाँ एक मीडिया हाउस ने भाजपा के शीर्षस्थ नेताओं तक पहुंचकर करोड़ों के सालाना विज्ञापन के ठेके की मांग की। जब भाजपा ने मना कर दिया तो मोदी को बदनाम करने का अभियान गुजराती भाषा में ही शुरू हुआ। और दिल्ली के मीडिया हाउस उन स्टोरीज़ का अनुवाद ‘एक्सक्लूसिव’ के नाम पर चलाते गए।

दूसरी घटना का सम्बन्ध पहली से है। एक इंटरव्यू प्रकाशित हुआ जहाँ मोदी को ऐसे ‘उद्धृत’ किया गया जैसे कि वे दंगों को उचित ठहरा रहे हैं। जब भाजपा के नेतृत्व ने मोदी से जवाब तलब किया तो पता चला कि ऐसा कोई इंटरव्यू मोदी ने दिया ही नहीं था। यही फ़र्ज़ी साक्षात्कार मोदी को देश और दुनिया के सामने एक राक्षस की भाँति प्रस्तुत करने की तरफ़ पहला क़दम था।

कुछ ऐसे ही मसायल से लेखक श्रीवास्तव को जूझना पड़ा। भाजपा के प्रधानमंत्री पद के तत्कालीन दावेदार मोदी से डीडी न्यूज़ पर इंटरव्यू का आवेदन लेकर वे जहाँ गए, अधिकांश चरित्र शत्रुता या वैमनस्य या नकारात्मक सोच के साथ उनके समक्ष पेश हुए। और जब साक्षात्कार रिकॉर्ड हो गया तब भी उसे दर्शकों को दिखाने पर चैनल के अधिकारियों ने आनाकानी की! इन अधिकारियों में ख़ान के साथ-साथ प्रसार भारती के सीईओ जवाहर सरकार भी शामिल थे।

इस सिलसिले में यह कहना ज़रूरी है कि महानिदेशक ख़ान और सीईओ सरकार पर किताब में लगे आरोप विश्वास करने योग्य हैं। जब मैंने डीडी न्यूज़ के मानव संसाधन पर कुछ साल पूर्व एक स्टोरी की थी तब मैंने पाया था कि ख़ान अलग-अलग समय कांग्रेस के आनंद शर्मा और फिर मनीष तिवारी के एजेंडा को आगे बढ़ा रहे थे। यहाँ तक कि डीडी न्यूज़ में लालू यादव का भी एक कैंडिडेट कार्यरत था! यह बिना जवाहर सरकार की सहमति के होना असंभव था।

लेकिन फिर प्रश्न वह उठता है जिसे फ़्री मार्किट के पैरोकार उठाते रहते हैं — क्या किसी समाचार माध्यम को टूट कर बिखर चुके सोवियत यूनियन के इतार-तास या प्रावदा की तरह चलाना भारतीय सरकार के लिए उचित है या उसके बस की बात है? जब मैं संगीत नाटक अकादमी को कवर करता हूँ तो संस्कृति मंत्रालय के प्रति भी मेरा यही सवाल होता है। कहाँ ऐसी संस्थाओं से अपेक्षा होती है कि वे भारत के धरोहर के रूप में प्रस्तुत शास्त्रीय, पारंपरिक व लोक नृत्य और संगीत को प्रोत्साहन देने का एक सशक्त माध्यम बनेंगे, और कहाँ यह देखने को मिलता है कि कलाकारों को भूल नौकरशाह के कारिंदे आपसी भिड़ंत में दिन-रात ज़ाया कर रहे हैं!

इसके अलावा राजनैतिक स्तर पर ‘मैं सरकार में आया तो मेरे लोग, तुम आए तो तुम्हारे लोग’ — यह व्यवस्था कब तक चलेगी? यह तो पत्रकारिता और इन चैनलों को अपने टैक्स से चलाने वाले नागरिकों के सटीक सूचना के अधिकार के साथ एक भद्दा मज़ाक़ है। एक ऐसा मज़ाक़ जो देश में इतिहास के छात्रों के साथ भी किया जाता है। जब-जब देश में कांग्रेस की सरकार बनती है, औरंगज़ेब सूफ़ी और टीपू सुलतान सेक्युलर बन जाते हैं!

सरकारी ऑफ़िस में जहाँ लोग काम करना चाहते हैं वहाँ भी अकर्मण्यता हाथ आती है। जैसे, यदि आप डीडी न्यूज़ को यह प्रस्ताव दें कि अन्य चैनलों की तरह इसके स्टूडियो में सफ़ेद रौशनी की जगह पीली रौशनी होनी चाहिए (स्टूडियो में पीली लाइट के कारण टीवी के परदे पर चैनल निखर उठता है) तो इस प्रस्ताव की मंज़ूरी के लिए आपको टेंडर निकालना पड़ेगा। निजी चैनल पर मालिक या किसी उच्च अधिकारी ने कह दिया कि ‘बल्ब बदलो’ तो तुरंत बदल जाएगा। यहाँ यह ख़याल रखना पड़ता है कि तुरंत काम करने पर भ्रष्टाचार का आरोप न लग जाए!

ख़ैर, नरेन्द्र मोदी सेंसर्ड की पटकथा पर वापस लौटते हैं। श्रीवास्तव कितने समर्पित, कर्मठ, मेहनती और सत्यनिष्ठ पत्रकार हैं यह हर अध्याय से झलकता है। उनके इन गुणों से उनको जानने वाले परिचित होंगे। पर कई लेखकों की सत्यनिष्ठा अक्सर पन्नों पर मुद्रित अक्षरों तक नहीं पहुँच पाती; कई बातें वे छुपा जाते हैं। इस पुस्तक की सत्य कहानियों में कई पात्र ऐसे हैं जिनका ज़िक्र श्रीवास्तव चाहते तो नहीं करते। लेकिन राजनीति के जगत में उनके कौन-कौन से मित्र हैं इसका भी उल्लेख उन्होंने किया है।

पत्रकार-एंकर-लेखक की सत्यनिष्ठा इस बात से भी ज़ाहिर होती है कि उन्होंने तत्कालीन कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी के इंटरव्यू के लिए भी भरसक कोशिश की थी पर डीडी न्यूज़ पर साक्षात्कार उस पार्टी की रणनीति के शायद विरुद्ध था।

‘टीम मोदी’ और ‘टीम राहुल’ में क्या-क्या मूलभूत अंतर हैं, यह परिप्रेक्ष भी लेखक इस पुस्तक में उभार कर लाते हैं। एक तरफ़ कांग्रेस की रणनीति मुँह के बल गिरी जब टाइम्स नाउ पर अर्णब गोस्वामी के साथ इंटरव्यू के कारण राहुल गांधी परिहास के पात्र बन गए। दूसरी तरफ़ गुजरात मुख्यमंत्री की टीम ने न केवल ऐसे चैनल को चुना जिसकी पहुँच गाँव-गाँव तक है बल्कि अपने पास साक्षात्कार की एक रिकॉर्डिंग भी रख ली ताकि यदि यूपीए सरकार के नौकरशाह फ़ुटेज के साथ छेड़छाड़ करे तो वे मूल इंटरव्यू सभी को दिखा सके।

अधिकारियों के साथ अनुनय-विनय, सहयोगियों का साथ, दलों के पदाधिकारियों के साथ सम्बन्ध और लेखक का अथक प्रयास — इन विवरणों से यह कृति समृद्ध है। मीडिया का काम जिन युवाओं को सिर्फ़ ग्लैमर का काम लगता है — या जो मास कम्युनिकेशन के कोर्स में यही सोचकर दाख़िला लेते हैं — यह किताब उनके लिए एक सबक़ है। देश की जनता नरेन्द्र मोदी सेंसर्ड इसलिए पढ़ें ताकि उन्हें इसका आभास हो कि यदि पिछले पाँच सालों में प्रधानमंत्री ने एक भी प्रेस वार्ता नहीं की तो वे किस प्रकार के चरित्रों से बचते रहे। वैसे जनता तक अपनी बात पहुँचाने के उनके पास रेडियो पर ‘मन की बात’ के साथ-साथ कई और साधन हैं।

click me!