सीताराम येचुरी के खोखले दावे, वामपंथी शासन के दौरान सबसे अधिक दुखी थे किसान

By Siddhartha Rai  |  First Published Dec 1, 2018, 4:02 PM IST

राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में किसानों के आंदोलन के दौरान सीपीएम महासचिव सीताराम येचुरी ने जमकर शब्दों के बाण चलाए। प्रधानमंत्री के खिलाफ ‘पॉकेटमार’ जैसी अभद्र भाषा का इस्तेमाल किया गया। लेकिन ऐसा करते हुए येचुरी अपनी ही पार्टी के पापों को भूल गए। जब पश्चिम बंगाल में वामपंथी शासन के तीन दशकों में किसानों और भूमिहीन मजदूरों को भारी संकट का सामना करना पड़ा था।

सीपीआई एक ऐसी पार्टी है जो मूल रूप से लोकतंत्र में विश्वास नहीं रखती है और अभी भी पूंजीवाद और मार्क्सवाद के बीच अपने विचारों के द्विध्रुवीय संघर्ष की परिष्कृत विश्वदृष्टि के लिए संघर्ष कर रही है। इसी सीपीआई ने शुक्रवार को दिल्ली में केंद्र की भाजपा सरकार के खिलाफ किसानों के समर्थन में एक रैली की। ये वही किसान हैं, जिनकी कमजोरी और गरीबी को खत्म करने के लिए हड़ताल और नारेबाजी की गई थी, लेकिन उनकी स्थिति आज भी वैसी ही बनी हुई है। लेफ्ट विंग ने पश्चिम बंगाल में अपनी शक्ति को बनाये रखने के लिए भूख हड़ताल तक को दवा दिया था।

सीपीआई के महासचिव सीताराम येचुरी ने अपने भाषण में नरेंद्र मोदी पर खुद को “जनता का चौकीदार” कहने वाली बात को लेकर तंज किया और प्रधानमंत्री को “पॉकेटमार” कहकर भी बुलाया। लोकिन इस रैली में सीपीआई अपनी पार्टी के द्वारा बंगाल में किसानों और भूमिहीन मजदूरों के खिलाफ किए गए पापों को भूल गई है। जहां उन्होंने तीन दशक से ज्यादा समय तक राज किया है।

अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज और अमर्त्य सेन, जिन्हें लेफ्ट विंग का से सहानुभूति रखने वाला कहा जा सकता है। उन्होंने वामपंथी शासनकाल में बंगाल में भूख के कारण होने वाली मौतों को देखा है। कैसे बंगाल में भूख ने हजारों लोगों की जान ले ली। भूख के कारण हुई मौतें केवल अमलापुर या पश्चिम मेदिनीपुर तक ही नहीं, बल्कि सिटी ऑफ जॉय कही जाने वाली राजधानी कोलकाता में भी दर्ज की गई थीं।

विशेषज्ञों ने 2004-05 से राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण (एनएसएस) के आंकड़ों का हवाला देते हुए बताया कि पश्चिम बंगाल में भुखमरी राष्ट्रीय औसत से अधिक थी। राज्य की स्थिति दोनों ही श्रेणियों में बहुत बुरी थी। पहली जिसमें परिवार जो पूरे साल में दो समय मुश्किल से खाना जुटा पाते थे और दूसरी जिसमें कुछ परिवारों के पास साल के कुछ महीनों में भोजन जुटाना मुश्किल होता था।   

जहां पूरे देश में 1.7 फीसदी ग्रामीण परिवार साल के कुछ महीनों तक पर्याप्त भोजन के बिना ही रहे। ग्रामीण बंगाल में 10 फीसदी परिवारों को साल में कई महीनों तक पर्याप्त भोजन के बिना रहना पड़ा। पूरे भारत की तुलना में वामपंथी शासन के तहत पश्चिम बंगाल में भोजन की सालाना अपर्याप्तता बहुत अधिक थी।


पश्चिम बंगाल में लेफ्ट सरकार ने गरीबी हटाने के नाम पर जो राजनीति की और खोखले दावे किये थे, उनकी एनएसएस के आंकड़ों ने पोल खोल कर रख दी थी। खरीफ फसल के महीनों के दौरान भी बड़ी संख्या में ग्रामीण परिवार भुखमरी से जूझते रहे। इसका मतलब है कि तथाकथित भूमि सुधार या अन्य गरीबी को दूर करने वाले वादे झूठे थे। वे सब बस राजनीति करने के उद्देश्य से ही लगाए जाते थे।  

एनएसएस के 2007 के आंकड़ो के अनुसार गरीबी के मामले में उड़ीसा दूसरे नंबर पर था। यह सच है कि लेफ्ट सरकार के दौरान ग्रामीण बंगाल के गांवों में गरीबी में गिरावट देखी गई, लेकिन यह गिरावट देश के बाकी हिस्सों की तुलना में धीमी थी।

जनसंख्या का कौन सा हिस्सा भुखमरी से ज्यादा प्रभावित रहा? अध्ययनों से पता चला है कि मजदूरों, कृषि और गैर-कृषि कार्य में लगे मजदूरों में गरीबी ज्यादा देखी गई है। पूरे पश्चिम बंगाल में लेफ्ट शासन के दौरान भूमिहीन मजदूरों की संख्या कई गुना बढ़ गई थी। यह राज्य का वह समय था, जब लोग भुखमरी का सामना कर रहे थे। ब्रिटिश उपनिवेशवाद में भारत के कृषि श्रमिकों पर होने वाले अत्याचार जैसी घटनायें बंगाल में लेफ्ट सरकार के दौरान देखी गईं।

लेफ्ट सरकार में भूमि अधिग्रहण की घटनाएं हुईं और इसके परिणामस्वरूप सिंगुर और नंदीग्राम में किसान हिंसा हुई। इस सरकार के दौरान छोटे किसान, भूमिहीन मजदूर, सीमांत किसान और खेतिहरों को परेशान किया।

मोदी शासन के दौरान लोकतंत्र के लिए मगरमच्छ के आंसू बहाने वाले लोग पश्चिम बंगाल में लोकतंत्र के साथ छेड़छाड़ कर रहे थे। उन्हें जूट भूत कहा जाता था। यह जूट एक पार्टी का कैडर होता था जो वोटिंग मशीन को कवर करने वाले जूट पर्दे के पीछे खड़ा रहता था, यह देखने के लिए कि कौन पार्टी के लिए मतदान कौन कर रहा है और कौन नहीं। सत्ता संरक्षण की योजना में पर्यवेक्षण महत्वपूर्ण था क्योंकि इसी के जरिए कैडर और मतदाताओं को पुरस्कृत किया जाता था और असंतोषियों को दंडित किया जाता था। 

एक गांव के तालाब को बांधने और सीमा पर लाल झंडा लगाने का अभ्यास कैसे लोकतांत्रिक हो सकता था? केवल पार्टी कैडर और मतदाता ही इससे पानी खींच सकते हैं। बाकि अगर वे प्यासे हैं या उन्हें आराम करना है तो उन्हें उसके लिए मील दूर जाना पड़ता था। 

इस खराब रिपोर्ट के कुछ अनुमानों के मुताबिक लेफ्ट सरकार ने लगभग 4200 परिवारों या लगभग 16000 लोगों को बुरी स्थिति में जीने के लिए मजबूर कर दिया था और ये नमुद्रा दलित थे।

जो लोग उनके साथ खड़े हैं जैसे कांग्रेस और आम आदमी पार्टी ने आसानी से लेफ्ट के इन विरोधाभासों को स्थापित किया है। यह सच है कि राजनीति में लंबे समय तक कोई भी मित्र या दुश्मन नहीं होता है।  और सवाल जब अस्तित्व का हो तो कुछ भी संभव है।

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