यूपी के प्रतापगढ़ के सदर बाजार की रहने वाली दिव्यांग रंजना सिंह के हौसलों के आगे लाचारी भी हार गई। भले ही वह खुद के पैरों पर खड़ी नहीं हो सकती हैं, पर सैकड़ों महिलाओं को अपने पैरों पर खड़े होने का गुर सिखाया।
प्रतापगढ़। यूपी के प्रतापगढ़ के सदर बाजार की रहने वाली दिव्यांग रंजना सिंह के हौसलों के आगे लाचारी भी हार गई। भले ही वह खुद के पैरों पर खड़ी नहीं हो सकती हैं, पर सैकड़ों महिलाओं को अपने पैरों पर खड़े होने का गुर सिखाया। MY NATION HINDI से बात करते हुए रंजना सिंह कहती हैं कि 10 साल की उम्र में ही वह मायलिटिस रोग की चपेट में आ गईं। इस लाइलाज बीमारी से उनके रीढ़ की हड्डी इतनी प्रभावित हुई कि खुद के पैरों पर खड़ा होने को कौन कहे, शरीर के सीने के नीचे का हिस्सा सुन्न हो गया। करवट बदलने के लिए भी किसी न किसी का सहारा लेना पड़ता है। शरीर में सिर्फ ब्रेन और हाथ ही काम करते हैं।
2012 से अब तक 2 हजार महिलाओं को दे चुकी हैं ट्रेनिंग
ऐसी विपरीत परिस्थतियों में भी रंजना सिंह ने हार नहीं मानी। बीए, एमए, एलएलबी और एमएसडब्लू की पढ़ाई पूरी की। खुद की संस्था 'परिवर्तन पथ' चलाती हैं और महिलाओं को ब्यूटीशियन, सिलाई, कढ़ाई, फैब्रिक पेंटिंग का प्रशिक्षण देकर अपने पैरों पर खड़े होने में मदद करती हैं। साल 2012 से अब तक वह करीबन 2000 महिलाओं को ट्रेनिंग दे चुकी हैं। उनकी बीमारी ऐसी है कि अभी लेटे-लेटे ही उनके पैर में फ्रैक्चर हो गया है। फिर भी उनका हौसला कम नहीं हुआ है। बेड पर लेटे हुए ही वह भविष्य के ताने बाने बुनने में जुटी हुई हैं।
पांचवीं क्लास में हो गई लाइलाज बीमारी मायलिटिस
रंजना सिंह बचपन से ही तेज दिमाग की थीं। वह कहती हैं कि साल 1992 की बात है। पांचवीं क्लास में पढ़ रहे थे। उसी दरम्यान पैर में दर्द शुरु हुआ और फिर धीरे-धीरे शरीर के नीचे का हिस्सा सुन्न हो गया। इलाज के दौरान पता चला कि मुझे लाइलाज बीमारी मायलिटिस है। लखनऊ के एसजीपीजीआई, वाराणसी के बीएचयू और मुंबई तक डॉक्टर्स को दिखाया गया। पर सभी ने जवाब दे दिया। मुझे तभी समझ में आ गया था कि मेरे साथ कुछ अच्छा नहीं हो सकता है। डॉक्टर्स कहते थे कि लड़की का दिमाग अच्छा है, इसको पढ़ाइये।
एलएलबी एग्जाम देने गईं तो प्रोफेसर ने मारा ताना
रंजना के हाईस्कूल में 71% मार्क्स थे। इंटरमीडिएट में 64% और बीए में 50% मार्क्स मिलें। रंजना कहती हैं कि बीए के बाद सोचा कि हम क्या कर सकते हैं? कोई रास्ता दिखाने वाला नहीं था। फिर सूझा कि वही काम करें, जो हम घर पर रहकर कर सकें। सभी एग्जाम भी उन्होंने परीक्षा हॉल में लेट कर ही दिए। उनके भाई गोद में उठाकर परीक्षा दिलाने के लिए ले जाते थे। जब एलएलबी का एग्जाम देने कॉलेज गईं तो एक प्रोफेसर ने यहां तक ताना मारा कि अब इनको एलएलबी करने की क्या जरुरत है। पर रंजना हिम्मत हारने वालों में से नहीं थी। उन्होंने दोगुने जोश के साथ परीक्षा दी और 55 फीसदी अंक के साथ एलएलबी की परीक्षा पास की। एमएसडब्लू भी किया।
...ऐसे मिली एलएलबी करने की प्रेरणा
रंजना की तबियत अक्सर खराब हो जाती थी। एक बार वह इलाज के लिए इलाहाबाद के एक हॉस्पिटल में एडमिट हुईं। डॉक्टर्स से बेधड़क अपनी बात कहती थी। चाहे केस हिस्ट्री बताना हो या दवाइयों और आपरेशन से जुड़े मसलों पर डिस्कस करना हो, उनकी बात सुनकर एक वरिष्ठ डॉक्टर ने उन्हें सलाह दी कि तुम्हारा दिमाग तेज चलता है, एलएलबी कर लो। बैठे-बैठे लोगों की काउंसिलंग कर सकती हो। लोग आनलाइन सुझाव भी मांगते हैं। यह बात रंजना को जंच गई और उन्होंने एलएलबी करने का दृढ निश्चय किया।
महिलाओं को ट्रेनिंग के साथ बच्चों को ट्यूशन भी
रंजना कहती हैं कि पढ़ने लिखने का लाइफ में फर्क पड़ा पर उस डिग्री का हम यूज नहीं कर पाएं। महिलाओं के लिए ट्रेनिंग क्लास चलाने से हमें घर बैठे काम मिल गया तो हम बिजी रहने लगे। घर पर बच्चों को मिनिमम फीस में ट्यूशन भी पढ़ाते हैं। साल 2012 से महिलाओं को प्रशिक्षण देना शुरु किया था। 12 लड़कियों से क्लास शुरु हुई थी। एक समय ऐसा आया कि 30-30 लड़कियों का बैच चलता था। अब कोविड महामारी के बाद एडमिशन कम आते हैं। बीमारी ऐसी है कि खुद से करवट भी नहीं बदल सकते। बेट पर लेटे-लेटे बेडसोर हो जाता है।
परिवार के साथ ट्रैवल भी करती हैं रंजना
रंजना के पिता जयसिंह बहादुर सिंह एफसीआई में मैनेजर थे। कोविड के सेकंड वेब में उनकी डेथ हो गई। अब परिवार में मॉं निर्मला सिंह, भाई आनंद और आशीष हैं। वह रंजना को सपोर्ट करते हैं। घूमने फिरने से लेकर हर चीज में फैमिली का सपोर्ट रहता है। चाहे सिनेमा देखने जाना हो या टूरिस्ट स्पॉट और तीर्थ स्थलों का भ्रमण। रंजना अपने परिवार के साथ ट्रैवलिंग भी इंज्वाय करती हैं।
दोस्तों-रिश्तेदारों से मांगा घर का कबाड़ और शुरु कर दिया परिवर्तन पथ
रंजना सिंह शुरुआती दिनों में एक प्ले ग्रुप स्कूल चलाना चाहती थीं। पिता से इसके लिए जिद भी करती थी। पर वह रंजना की शारीरिक हालत देखकर मंजूरी नहीं देते थे। ऐसे में परिवर्तन पथ संस्था की शुरुआत करना आसान नहीं था। रंजना ने संस्था शुरु करने के लिए पिता से परमिशन या पैसा लेने के बजाए दोस्तों और रिश्तेदारों से हेल्प के रूप में उनके घर का कबाड़ मांगा। वह कहती हैं कि उनके मन में विचार आया कि यदि कोई कुछ भी नहीं देगा तो क्या अपने घर का कबाड़ भी नहीं देगा। लोगों ने हेल्प की और फिर उनकी संस्था की शुरुआत हुई।
ब्यूटिशियन कोर्स शुरु किया तो लोगों ने कहा-तुम नहीं कर पाओगी
रंजना ने पहले ब्यूटीशियन कोर्स शुरु करने का फैसला लिया। वह कहती हैं कि ब्यूटी पॉर्लर चलाने वाली पड़ोस की एक महिला की मदद से कोर्स के लिए लड़कियों को जोड़ा। सिर्फ 10 लड़कियों का एडमिशन होना था, पर पहली बार में ही 12 लड़कियों का एडमिशन हुआ। किसी ने सुझाव भी दिया कि छह महीने के बजाए दो महीने का कोर्स कराओ। लोगों ने यह भी कहा कि तुम नहीं कर पाओगी। पर रंजना ने छह महीने के कोर्स को दो महीने में ही पूरा करा दिया। उसके बाद उनके यहां एडमिशन शुरु हो गएं।
रंजना ने कही ये बड़ी बात
रंजना कहती हैं कि एक समय ऐसा था कि हम अपने परिवार पर बोझ थे। पर अब जब हमारे प्राण छूटेंगे तो कोई नहीं कहेगा कि मैं परिवार पर बोझ थी। किसी व्यक्ति को गंभीर से गंभीर रोग हो, पर यदि उसके दिमाग पर हावी न हो। व्यक्ति हमेशा पॉजिटिव रहे, मेंटली डिस्टर्ब न हो तो रोग मायने नहीं रखते हैं। आज हमें ऐसा नहीं लगता है कि हम जीवन में कुछ नहीं कर सकते हैं।
Last Updated Sep 3, 2023, 12:32 AM IST