नई दिल्ली: ऐसी खबर है कि जम्‍मू-कश्‍मीर में कल से लैंडलाइन फोन शुरू हो सकते हैं। वहां सोमवार से स्कल कॉलेज खोले जा सकते हैं। सुरक्षा के लिहाज से घाटी में मोबाइल, इंटरनेट और लैंडलाइन फोन सेवाएं अभी तक पूरी तरह बंद रखी गई थीं। लेकिन अलगाववादी नेताओं को जेल में बंद करने के बाद अब घाटी में हालात सामान्‍य हो रहे हैं।

आम  लोगों और सरकार दोनों के लिए यह बहुत बड़ी राहत की खबर है कि जम्मू कश्मीर में पिछले पांच दिनों में कोई हिंसा की बड़ी घटना सामने नहीं आई है। 

उधर कश्मीर की सामान्य होती स्थिति पाकिस्तान को चिंता में डाल रही है। एक तरफ वह पूरे अंतरराष्ट्रीय समुदाय के सामने इसे मानवाधिकार हनन, सामूहिक जेल जैसी बातों की दुहाई दे रहा है। लेकिन जम्मू कश्मीर का आम इंसान अब पाकिस्तान की चाल से दूर हो रहा है। कश्मीर के सामान्य होते हालात इसकी तरफ इशारा कर रहे हैं। 

लेकिन अब पाकिस्तान को पता नहीं चल रहा कि आगे करना क्या है। उसने विश्व बिरादरी के सामने उसने अनुच्छेद 370 का मुद्दा काफी उठाया लेकिन उसकी किसी ने भी नहीं सुनी। चीन को छोड़कर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा के सभी देशों ने उसे निराश लौटा दिया। इसीलिए विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी ने विश्व समुदाय के सामने दुखड़ा सुनाया कि 'गए तो सबकी दहलीज पर लेकिन भाव किसी ने नहीं दिया'। 

अब चीन के दबाव में संयुक्त सुरक्षा परिषद् के देश बंद कमरे में कश्मीर पर चर्चा करने के लिए सहमत हो गए हैं। वहां पर ना तो मीडिया की कोई पहुंच होगी और ना ही पाकिस्तान या उसके किसी समर्थक देश की। वहां मौजूद देश में चीन के सिवा पाकिस्तान के पक्ष में बोलने वाला कोई नहीं है। वह भी इसलिए क्योंकि  चीन का बहुत कुछ पाकिस्तान में दांव पर लगा है। 

संयुक्त राष्ट्र चीन के गिड़गिड़ाने पर कश्मीर मुद्दे पर शुक्रवार को देर रात बंद कमरों के पीछे एक बैठक करेगा।
 
 ऐसा कभी नहीं हुआ कि संयुक्त राष्ट्र जैसी मुखिया संस्था को बंद दरवाजे के पीछे बैठक करनी पड़े लेकिन पाकिस्तान के इशारे पर चीन ने यह भी करवा के दिखा दिया। संयुक्त राष्ट्र के इतिहास में यह दूसरा मौका है जब कश्मीर मुद्दे पर कोई बैठक होने जा रही है। पहली बैठक 1971 में हुई थी। तब पाकिस्तान के पास यहां बहुत समर्थन था। 

लेकिन यूनाईटेड नेशन सिक्योरिटी काउंसिल के कुल 10 अस्थाई देशों में अध्यक्ष होने के नाते पोलैंड मध्यस्थ की भूमिका में पाकिस्तान के साथ खड़ा दिखने के लिए मजबूर हो रहा है। पोलैंड फिलहाल यूएनएससी का रोटेटिंग प्रेसिडेंट है, इसलिए उसके सामने बैठक कराना ही अंतिम विकल्प है। वह अस्थाई देशों की ओर से बैठक की मेजबानी कर रहा है ना कि पाकिस्तान के साथ खड़ा है। 

पोलैंड के अलावा बेल्जियम, कोट डीवोएर, डोमिनिक रिपब्लिक, इक्वेटोरियल गुएनी, जर्मनी, इंडोनेशिया, कुवैत, पेरू और साउथ अफ्रीका पाकिस्तान को पूरी तरह नकार चुके हैं। 

संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में वीटो की प्रबल प्रक्रिया है. किसी भी एडॉप्शन (प्रस्ताव) को हरी झंडी मिलने या उसे नकारने में इसका रोल काफी अहम है। संयुक्त राष्ट्र चार्टर की ओर से तय शर्तों के तहत, सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्यों के वीटो का अधिकार प्रतिबंधित है, अर्थात यह मुख्य रूप से सुरक्षा परिषद के कामकाज से संबंधित के मामलों में लागू नहीं होता है।

ऐसी स्थिति में, सुरक्षा परिषद को निर्णय लेने के लिए नौ सदस्यों के समर्थन की जरूरत होती है, भले ही वे सुरक्षा परिषद के स्थायी या गैर-स्थायी सदस्य हों। गैर-स्थायी सदस्यों की शक्तियां भी "वीटो के सामूहिक अधिकार" की तरह मजबूत होती हैं (यदि सुरक्षा परिषद के कम से कम सात गैर-स्थायी सदस्य किसी ए़डॉप्शन के खिलाफ वोट देते हैं, तो भी समर्थन नहीं मिलता है)। 

संयुक्त राष्ट्र की यह बैठक बंद दरवाजे की पीछे चलेगी और इसमें पाकिस्तान का शामिल होना नामुमकिन है क्योंकि पाकिस्तान न तो स्थाई सदस्य है और न ही अस्थाई। बंद कमरे की बैठक का प्रसारण नहीं किया जाएगा. मतलब, पत्रकारों की उसमें पहुंच नहीं होगी। ऐसे में पाकिस्तान का सहारा मात्र चीन ही है।

चीन पाकिस्तान का साथ किसी रिश्ते की वजह से नहीं दे रहा है। बल्कि उसने बेल्ट रोड इनीशिएटिव यानी बीआरओ में इतना पैसा लगा रखा है कि पाकिस्तान को पालना उसकी मजबूरी बन गया है। चीन ने इस प्रोजेक्ट के पीछे अपना  अरबों युआन झोंक दिया है। जिसे बचाए रखने के लिए चीन पाकिस्तान का साथ देने के लिए मजबूर हो रहा है। 

लेकिन जम्मू कश्मीर के सामान्य होते हालात पूरी दुनिया के सामने एक अहम तथ्य की तरह हैं।