देहरादून से हरीश तिवारी की रिपोर्ट

उत्तराखंड में पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत की सक्रियता से कांग्रेस के नेताओं की नींद उड़ने लगी है। विरोधी खेमे एकजुट होकर रावत और उनके करीबियों को कमजोर करने की रणनीति बनाने में जुटे हैं। आने वाले दिनों में रावत की सक्रियता राज्य के राजनैतिक तापमान में इजाफा कर सकती है। अगले साल मई तक लोकसभा चुनाव होने हैं और रावत ने अपनी ओर से तैयारियां शुरू कर दी हैं। इससे कई नेताओं को अपना राजनैतिक वजूद खतरे में पड़ता दिख रहा है। 

हाल ही में कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव हरीश रावत ने सोशल मीडिया के जरिये ऐलान किया कि वह आगामी लोकसभा चुनाव लड़ने को तैयार हैं। हालांकि उन्होंने ये नहीं बताया कि कहां से लड़ेंगे। उनके करीबियों की मानें तो रावत ने हरिद्वार और नैनीताल से चुनाव लड़ने की तैयारियां शुरू कर दी हैं। उन्होंने पार्टी में अपने विरोधियों को यह मैसेज देने की कोशिश की है कि भले ही वह राज्य की राजनीति से बाहर हैं लेकिन जल्द ही वापसी करेंगे। पार्टी के कई नेताओं का मानना है कि हरीश रावत राज्य में पार्टी का ब्रांड बन चुके हैं और भविष्य में उनकी दमदार स्थिति को नकारा नहीं जा सकता। फिलहाल रावत के कद का राज्य में कोई नेता नहीं है, जो मौजूदा सरकार को अपने सधे हुए अंदाज में जवाब दे सके। रावत के पास सरकार और संगठन चलाने का अनुभव है।

हरीश रावत भी प्रदेश की राजनीति में सक्रिय होने को लेकर बेचैन हैं। यह इसी बात से समझा जा सकता है कि पार्टी की केंद्रीय कार्यसमिति का सदस्य और महासचिव होने के बावजूद वह ज्यादा समय राज्य को देते हैं। हाल ही में सोशल मीडिया में दिए गए बयान में रावत ने कहा कि हार के बावजूद योद्धा हूं मैं, 2019 के धर्मयुद्ध में तटस्थ नहीं रह सकता। यानी मायने साफ हैं कि वह राज्य के जरिये राष्ट्रीय राजनीति में भी दखल रखना चाहते हैं। विधानसभा चुनाव में अभी काफी समय है। इसलिए लोकसभा के जरिये वह राष्ट्रीय राजनीति में दमखम दिखाना चाहते हैं। रावत यूपीए सरकार में जल संसाधन एवं संसदीय कार्य मंत्रालय संभाल चुके और 2014 में कांग्रेस आलाकमान ने तत्कालीन मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के विकल्प के तौर पर उन्हें उत्तराखंड भेजा था। हालांकि बाद में बहुगुणा ने कांग्रेस को छोड़कर भाजपा का दामन थाम लिया। यही नहीं बहुगुणा के अलावा सतपाल महाराज और कैबिनेट मंत्री डॉ. हरक सिंह रावत समेत दस विधायक पार्टी को छोड़कर भाजपा में चले गए थे। इन नेताओं ने रावत पर पार्टी को राज्य में प्राइवेट कंपनी के तौर पर चलाने का आरोप भी लगाया था। यही नहीं विधानसभा चुनाव से पहले रावत के कैबिनेट के ही सदस्य यशपाल आर्य भी कांग्रेस का दामन छोड़कर भाजपा के पाले में जा खड़े हुए थे। इसका परिणाम ये हुआ कि विधानसभा चुनाव में कांग्रेस 70 सदस्यीय विधानसभा में महज 11 सीटों तक जा सिमटी। रावत स्वयं हरिद्वार ग्रामीण और किच्छा दोनों सीटों से चुनाव हार गए। भाजपा 57 सीटें जीतकर राज्य की सत्ता पर काबिज हुई।

उनकी कांग्रेस आलाकमान पर पकड़ को इसी बात से समझा जा सकता है कि 23 सदस्यीय कांग्रेस वर्किंग कमेटी (सीडब्ल्यूसी) में भी रावत को शामिल किया गया है। कांग्रेस के नेता राज्य में विधानसभा चुनाव की हार के लिए हरीश रावत को जिम्मेदार मानते हैं। यही नहीं उन्हें महासचिव के साथ ही असम राज्य का भी प्रभार दिया गया है, जहां पर पार्टी विपक्ष में है। अगर देखा जाए तो राज्य बनने के अठारह साल के दौरान रावत राज्य की राजनीति से दूर नहीं गए। कांग्रेस ने 2002 में कांग्रेस ने चुनाव हरीश रावत के प्रदेश अध्यक्ष रहते हुए लड़ा और जीता भी। लेकिन आलाकमान की कृपा से रावत की दावेदारी को किनारे करते हुए नारायण दत्त तिवारी को मुख्यमंत्री बनाया गया। उस दौरान भी रावत ने राज्य को नहीं छोड़ा और उसके बाद 2012 में जब कांग्रेस फिर से सत्ता में आई तब विजय बहुगुणा को मुख्यमंत्री बनाया गया। हालांकि उस दौरान रावत केंद्र में मंत्री थे। लेकिन उन्होंने राज्य में अपने राजनैतिक वजूद को बनाए रखा। कुछ ऐसे ही हालत मौजूदा समय में भी है। रावत राज्य की राजनीति से बाहर हैं और फिर से राज्य में सक्रिय हो रहे हैं। जो उनके विरोधी गुट के लिए शुभ संकेत नहीं है।

सूत्रों का कहना है कि मौजूदा पार्टी अध्यक्ष प्रीतम सिंह गुट और विधानसभा में विपक्ष की नेता इंदिरा ह्दयेश गुट के बीच पिछले कुछ दिनों में नरमी आई है। दोनों गुटों के नेताओं का मानना है कि हरीश रावत की राज्य में बढ़ती सक्रियता राजनैतिक तौर पर उनके लिए नुकसानदेह हो सकती है। चर्चा है कि पिछले दिनों राज्य के कांग्रेसी नेताओं की भाजपा नेता और कैबिनेट मंत्री सतपाल महाराज के घर पर आयोजित एक कार्यक्रम में काफी देर तक गुफ्तगू हुई है। हालांकि इन नेताओं का कहना था कि यह एक पारिवारिक कार्यक्रम है और राजनीति से इतर भी नेताओं के आपस में रिश्ते होते हैं। लेकिन कहीं न कहीं हरीश रावत की सक्रियता से राज्य के कांग्रेसी एक साथ एक मंच पर आ रहे हैं। पिछले दिनों रावत के करीबी नेताओं में शुमार आशा मनोरमा शर्मा डोबरियाल को पार्टी द्वारा कारण बताओ नोटिस देना भी रावत समर्थक नेताओं को कमजोर करने की कोशिश के तौर देखा जा रहा है।