लखनऊ: उत्तर प्रदेश में बीएसपी और सपा ने मिलकर महागठबंधन बनाया था। जिसका नाम दिया गया था ‘साथी’। लेकिन कैमरों के सामने दोस्ती का दम भरने वाले यह साथी अंदर ही अंदर एक दूसरे की जड़ें काटने में किस तरह लगे हुए थे, यह चुनाव परिणामों ने दिखा दिया। 

1.    सपा की कीमत पर बसपा ने अपना वोट प्रतिशत बढ़ाया 

यूपी में बसपा ने सपा का किस तरह इस्तेमाल कर लिया। यह राज्य में इस बार हुए मतदान के प्रतिशत से दिखाई देता है। यहां समाजवादी पार्टी को 2014 में 22.34 फीसदी वोट पड़े थे। लेकिन इस बार यानी 2019 में अखिलेश की पार्टी के हिस्से में महज 17.96 प्रतिशत वोट ही आए। यानी उसे कुल 5 फीसदी वोटों का नुकसान हुआ। राजनीति में 5 फीसदी वोट मायने रखते हैं। 

वहीं बसपा को 2014 में 19.76 फीसदी वोट मिले थे। जबकि 2019 में उसे 19.26 फीसदी वोट मिले। यानी पिछली बार से आधी फीसदी कम। लेकिन कम वोट प्रतिशत हासिल करके भी बसपा ने अपनी सीटों की संख्या बढ़ा ली। यह दिखाता है कि कैसे मायावती ने अखिलेश का इस्तेमाल अपने फायदे के लिए कर लिया। 

2014 में यूपी में बसपा को  1,59,14,194 और सपा को 1,79,88,967 वोट मिले थे। जबकि बीजेपी को 2014 में 3,43,18,854 वोट मिले थे। 

2.    मायावती के साथ से अखिलेश को हुआ निजी तौर पर नुकसान

उत्तर प्रदेश में इस बार का लोकसभा चुनाव पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के लिए निजी तौर पर बड़ा झटका रहा। उनके पत्नी डिंपल यादव सहित यादव परिवार के कई लोग चुनाव हार गए। बदायूं से अखिलेश के भाई धर्मेन्द्र यादव और फिरोजाबाद से अक्षय यादव तो हार ही गए। अखिलेश कन्नौज से अपनी पत्नी डिंपल यादव की सीट भी नहीं बचा पाए।

हालांकि मैनपुरी से मुलायम सिंह यादव, आजमगढ़ से खुद अखिलेश यादव, रामपुर से आजम खान, मुरादाबाद से एस टी हसन और संभल से शफीकुद्दीन बर्क सपा के टिकट पर जीते। लेकिन अखिलेश को पत्नी और भाईयों की हार अगले पांच साल तक तकलीफ देती रहेगी। 

दरअसल यह इसलिए हुआ क्योंकि अखिलेश की अपील पर उनके समर्थकों ने तो बसपा उम्मीदवारों को जिता दिया। लेकिन शायद मायावती के वोटों का ट्रांसफर यादव परिवार के लिए नहीं हो पाया। यहां बसपा प्रमुख मायावती की बारीक राजनीति सामने आई, जिसका अंदाजा अखिलेश नहीं लगा पाए। 

3.    सपा के सहयोग से बसपा को मिला पुनर्जीवन

साल 2014 के चुनाव में बसपा शून्य पर थी। लोकसभा में उसका कोई प्रतिनिधित्व नहीं था। मायावती के लिए यह उनके जीवन का बड़ा झटका था। लेकिन इस बार उन्होंने सपा से गठबंधन करके अपने दस उम्मीदवार जिता लिए।      
 
बसपा के टिकट पर गाजीपुर से अफजाल अंसारी, अंबेडकरनगर से रितेश पांडे, बिजनौर से मलूक नागर, घोसी से अतुल राय, लालगंज से संगीता आजाद, सहारनपुर से हाजी फजलुर्रहमान, श्रावस्ती से राम शिरोमणि, नगीना से गिरीश चंद्र, जौनपुर से श्याम सिंह यादव और अमरोहा से कुंवर दानिश अली जीते। 

यानी इस बार की लोकसभा में मायावती के इशारे पर दस सांसदों की आवाज गूंजेगी। यह कोई छोटी उपलब्धि नहीं है। खास तौर पर उस पार्टी के लिए जिसे 2014 में समाप्त माना जा रहा था। यह रुतबा मायावती ने अखिलेश यादव की पार्टी सपा की कीमत पर हासिल किया है। 

4.    पूरे चुनाव के दौरान मायावती ने अपनी नाक सपा के ऊपर रखी

खास बात यह रही कि किन्ही भी दो दलों में जब गठबंधन होता है तो बराबरी की शर्तों पर होता है। लेकिन यूपी में सपा बसपा ने जो महागठबंधन बनाया उसमें मायावती हमेशा उपर दिखीं। अखिलेश यादव का दर्जा मायावती के नीचे ही दिखा। ये हैं कुछ उदाहरण

मायावती के जन्मदिन पर अखिलेश यादव पत्नी सहित उनके घर गए। डिंपल ने मायावती के पैर भी छुए।

जौनपुर में मायावती ने गठबंधन की शर्त का पालन नहीं किया, लेकिन अखिलेश कुछ भी नहीं कर पाए।

गाजीपुर में मायावती ने उन्हीं अंसारी बंधुओं पर भरोसा जताया, जिनकी वजह से यादव परिवार में घमासान हुआ था। यहां भी अखिलेश की एक नहीं चली।

सिर्फ अखिलेश ही नहीं मायावती ने सपा कार्यकर्ताओं को डांटने फटकारने और नसीहत देने में कोई कसर नहीं छोड़ी। 
 
राजनीति में हाव भाव बड़े मायने रखते हैं। क्योंकि इसका प्रभाव बड़ा गहरा होता है। जमीनी स्तर पर राजनीति कार्यकर्ताओं के लिए राजनीति नाक की लड़ाई होती है। पूरे प्रचार के दौरान मायावती ने अपनी नाक हमेशा सपा से उपर रखी। 

5.    मायावती की ताकत अखिलेश से दोगुनी

2019 के परिणाम आने के बाद लोकसभा में अखिलेश यादव के सांसदों की संख्या 5 है जबकि मायावती के सांसदों की संख्या 10 है। यानी लोकसभा में मायावती की ताकत अखिलेश के दोगुनी है। 

ऐसे में स्वाभाविक रुप से उनकी राजनीतिक मोलभाव की क्षमता भी ज्यादा हो गई है। उन्हें अब इससे आगे  का रास्ता तय करना है। जबकि अखिलेश यादव के सामने अपना किला बचाने की चुनौती है। हालांकि मायावती ने जो सीटें जीती हैं उससे बीजेपी का नुकसान हुआ है। लेकिन ऐसा उन्होंने समाजवादी पार्टी की मदद से किया है। लेकिन इस मदद का अखिलेश यादव को कोई फायदा नहीं हुआ। अनुभवी समाजवादी मुलायम सिंह यादव वास्तविक स्थिति से वाकिफ थे, उन्होंने अखिलेश को चेतावनी भी दी थी। लेकिन उन्होंने इसे नजरअंदाज कर दिया, जिसका खमियाजा चुनाव परिणामों में दिखाई देता है।

अखिलेश यादव की हालत पर यही कहा जा सकता है कि ‘ना तो खुदा मिला और ना ही विसाले सनम