प्राइवेट कंपनी में कंप्यूटर ऑपरेटर की नौकरी करने वाले अनिल सिंह ने नौकरी से तौबा कर ली है। नौकरी और रोजमर्रा की उलझन से निकल कर वो कुछ बड़ा करना चाहते हैं। अनिल सिंह ने अपने सपनों को उड़ान देने के लिए कड़ाही और कल्छी को चुना है। उन्होंने छोले-कचौड़ी की दुकान खोली है, जो उनका पुश्तैनी व्यवसाय भी रहा है।


अनिल अपने फैमिली बिजनेस को दोबारा जमा रहे हैं। वो मानते हैं कि ऐसा करने के पीछे प्रधानमंत्री का बयान उनके लिए प्रेरणा रहा। 


दरअसल अनिल के दादा के बनाए छोला-कचौड़ी के दीवाने बनारस के लोग थे। ये बीते दौर की बात है जब आज की तरह 500-2000 हजार के रुपये नहीं चला करते थे बल्कि आने की बड़ी कीमत होती थी। लोग 1-2 आने में छोले-कचौड़ी खरीदते थे और उस दौर में भी अनिल के दादाजी शाम को दुकान बढ़ाने से पहले तक लगभग 200 आने कमा लेते थे।


बनारस के अनिल सिंह ने लंबे अरसे से बंद पड़ी अपने दादा की छोला-कचौड़ी की दुकान को नए सिरे से खोला है। अनिल फेरीवालों के तर्ज पर गली-गील में लोगों को छोले-कचौड़ी पहुंचाते हैं। पकौड़े बचने के अपने इस तरीके पर अनिल कहते हैं कि, “मैं चाहता तो किसी एक जगह से अपने पकवान बेच सकता था पर मैंने पूरे शहर में घूम-घूमकर इसको इसलीए बेचने का फैसला किया ताकि ज्यादा से ज्यादा डिश का स्वाद चख सकें। लोग अब अपने-अपने इलाकों में मेरे आने का इंतजार करते रहते हैं”।


अनिल याद करते हैं कि, किसा तरह उनके दादाजी भूलन सिंह बिना लहसुन-प्याज के पकवान बनाते थे और लोग उसपर टूट पड़ते थे। अनिल के दादा भूलन सिंह व्यंजन बनाने में 25 तरह के मसालों का इस्तेमाल करते थे। अपने दादा के पैटर्न पर ही वो देसी घी वाली छोला-कचौड़ी बना रहे हैं।


पीएम मोदी ने जब कहा कि पकौड़ा भी रोजगार का एक साधन हो सकता है, तो अनिल के मन में अपने पुराने पारिवारिक बिजनस को फिर से खड़ा करने का विचार आया।