जगदंबा माता पार्वती सदैव परमपिता सदाशिव से ज्ञान प्राप्त करने के लिए आतुर रहती थीं। एक बार उन्होंने प्रभु महादेव से अनुरोध किया, हे परमेश्वर! अभी तक आपने मुझे जो ज्ञान दिया वह मोक्षपरक है। यानी इस ज्ञान से जीव को जीवन चक्र से मुक्ति प्राप्त होती है। किंतु यह प्रक्रिया बड़ी ही कठोर और नीरस है। क्या दुनिया में कोई ऐसा ज्ञान है, जो भोग के जरिए मोक्ष प्रदान करता हो।

इस सृष्टि के समस्त ज्ञान के आगार परमपिता सदाशिव माता पार्वती का प्रश्न सुनकर मुस्कुराए। उन्होंने कहा, देवि! भोग और मोक्ष एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। मोक्ष भी आत्मा का भोग ही है। मुक्ति प्राप्त करने की इच्छा भी एक प्रकार का बंधन है। जब तक जीव इस संसार में है वह माया अर्थात तुम्हारी शक्तियों से पृथक नहीं हो सकता। दरअसल यह प्रश्न करके तुमने अपने(माया) जरिए मुझे(ब्रह्म) प्राप्त करने का तरीका पूछा है। दर्शन की भाषा में इसे ही विशिष्टाद्वैत कहा गया है। हे देवि, मैं तुम्हें यह ज्ञान प्रदान करता हूं।

ऐसा कहकर भगवान शिव ने माता पार्वती को योगिनी कौल मत यानी मुद्रा तंत्र का ज्ञान देना शुरु किया।

भगवान शिव ने माता को कमल के एक विशाल पत्ते पर बिठाकर यह ज्ञान दिया था। उस कमल के पत्ते के नीचे एक छोटा सा मछली का बच्चा छिपा हुआ था। जिसने यह ज्ञान सुन लिया। 

दरअसल यह भी महादेव की अलौकिक लीला थी। क्योंकि जगदंबा किसी भी रुप में महादेव से अलग नहीं हैं। जो भी ज्ञान महादेव  पास है, वह स्वाभाविक रुप से जगदंबा  के पास भी है।
लेकिन भगवती और सदाशिव के बीच यह प्रश्नोत्तरी दरअसल योगिनी कौल मत यानी विशिष्टाद्वैत का गूढ़ ज्ञान दुनिया के सामने लाने के लिए ही था।

और इस बार इसका माध्यम बना वह मछली का बच्चा। जब परमपिता का उद्देश्य पूर्ण हो गया अर्थात् जब उन्होंने योगिनी कौल मत का वह पूर्ण ज्ञान प्रेषित कर दिया। तब उन्होंने उस मछली के बच्चे को वरदान देते हुए कहा, कि अब तुम मनुष्य का शरीर धारण करके दुनिया में जाओ और समस्त संसार को त्राण देने वाले इस ज्ञान को दुनिया में फैलाओ। क्योंकि माया से युक्त इस संसार में यही ज्ञान सबसे ज्यादा प्रचलित होगा।

उस मछली यानी मत्स्य या मीन ने जब मानव स्वरुप धारण कर लिया तो महादेव ने स्वयं उसका संस्कार किया और उसका नाम रखा मत्स्येन्द्रनाथ, जिन्हें जन सामान्य की भाषा में मीननाथ भी कहा गया।

गुरु मत्स्येन्द्रनाथ ने ही नाथ संप्रदाय की स्थापना की। जिस संप्रदाय के पहले गुरु स्वयं सदाशिव हैं। जिनकी उपासना आदिनाथ के नाम से होती है। दूसरे सांसारिक शरीर रुपी गुरु हुए मत्स्येन्द्रनाथ। नाथ परंपरा में नौ प्रमुख गुरु हैं। नौ नाथों की आखिरी श्रृंखला संसार प्रसिद्ध गुरु गोरखनाथ भी हुए, मत्स्येन्द्रनाथ के सबसे प्रिय शिष्य थे।  

गुरु मत्स्येन्द्रनाथ को नाथ संप्रदाय में दादागुरु की संज्ञा दी जाती है। जो सबपर अपनी कृपा बरसाते हैं।

गुरु मत्स्येन्द्रनाथ की महिमा इतनी बड़ी है, कि एक बार उन्होंने भगवान शिव के प्रमुख गण वीरभद्र का भी द्वंद युद्ध में मान मर्दन कर दिया था। ये वही वीरभद्र हैं, जिन्होंने दक्ष यज्ञ ध्वंस के समय स्वयं श्रीहरि विष्णु को भी परास्त कर दिया था। लेकिन गुरु मीननाथ के सामने उनकी भी एक न चली।

गुरु मत्स्येन्द्रनाथ की महिमा अपरंपार है। उनके शिष्य अनगिनत हैं। यहां तक कि बौद्ध, जैन, भोट जैसे धर्मों में भी गुरु मत्स्येन्द्रनाथ की पूजा की जाती है। यहां तक कि मुसलमान भी गुरु मत्स्येन्द्रनाथ के शिष्य बनकर स्वयं को धन्य महसूस करते हैं। पाकिस्तान के रावलपिंडी में नाथपंथियों की गद्दी है। जहां कई मुसलमान योगी दीक्षा लेते हैं। संसार प्रसिद्ध सांई बाबा भी नाथ पंथ ये योगी है। इसलिए उन्हें साईंनाथ के नाम से जाना जाता है।

दरअसल गुरु मत्स्येन्द्रनाथ ने जिस योगिनी कौल मत की स्थापना की थी,वह विशिष्ट विधि गृहस्थों और सांसारिक प्राणियों के लिए बेहद अनुकूल है। क्योंकि इसमें माया को त्याज्य नहीं माना गया है। बल्कि माया रुपी रज्जु(रस्सी) का आश्रय लेकर परमब्रह्म तक पहुंचने का मार्ग दिखाया गया है।

इसलिए संसार भर में गुरु मत्स्येन्द्रनाथ के अनगिनत शिष्य हैं। किंतु माया के बीच रहकर ब्रह्म का साधना करना इतना आसान नहीं है। स्वयं गुरु मत्स्येन्द्रनाथ को भी कौलिक साधना करते हुए माया की प्रचंड शक्ति का आभास हो गया था।

महान गुरु मत्स्येन्द्रनाथ भी महामाया के पाश से नहीं बच सके और पूर्वोत्तर की रानी मैनाकिनी के मोहपाश में आबद्ध हो गए। जहां से उनके पुत्र के समान शिष्य गोरखनाथ से बड़ी ही मुश्किल से मुक्त कराया।

लेकिन आज भी गुरु मत्स्येन्द्रनाथ का योगिनी कौल मत यानी विशिष्टाद्वैत संसार की सबसे प्रसिद्ध दार्शनिक प्रणाली है। इसे आधुनिक काल में रामानुजाचार्य ने फिर से परिभाषित किया। यानी संसार के बीच रहकर भी असार रहना और परमात्मा को प्राप्त करना। यही गुरु मत्स्येन्द्रनाथ का संदेश है-

मीन यानी मछली की तरह जल में रहकर भी जल यानी माया से अलिप्त रहना।