नई दिल्ली: दक्षिण का द्वार कहे जाने वाले कर्नाटक में जिस तरह बीजेपी ने जीत हासिल की। वह ऐतिहासिक है। कर्नाटक की 28 सीटों में से बीजेपी ने 25 सीटें जीत ली। उसे 50 फीसदी से ज्यादा वोट हासिल हुए। 

इस जीत ने कर्नाटक में बीजेपी के पैर जमा दिये हैं। इस जीत से पता चलता है कि एक साल पहले 2018 में मई के महीने में ही कर्नाटक की येदियुरप्पा ने मात्र तीन दिन में ही इस्तीफा क्यों दे दिया था। आखिर क्यों नहीं उन्होंने जोड़ तोड़ करके कर्नाटक में अपनी सरकार नहीं बचाई? जबकि वह 104 विधायकों के साथ राज्य विधानसभा में सबसे बड़ी पार्टी थी। उसे 222 सीटों वाली विधानसभा बहुमत के लिए मात्र 8 विधायकों की ही दरकार थी।  

दरअसल कर्नाटक में बीजेपी येदियुरप्पा सरकार की कुर्बानी नहीं देती तो लोकसभा में उसे इतनी बड़ी जीत हासिल नहीं होती। कर्नाटक में कुमारस्वामी और कांग्रेस के झगड़े ने उनकी सरकार को इतना अलोकप्रिय कर दिया था कि जनता ने ऊबकर लोकसभा में बीजेपी को चुन लिया। 

इसके अलावा दक्षिण भारत के एक और बड़े राज्य आंध्र प्रदेश में बीजेपी को तो जीत नहीं मिली। लेकिन उसकी गठबंधन सहयोगी वाईएसआर कांग्रेस को जबरदस्त जीत हासिल हुई। 

आंध्र प्रदेश में लोकसभा की 25 सीटों के लिए चुनाव हुए थे। वहां एनडीए में बीजेपी की सहयोगी पार्टी वाईएसआर कांग्रेस को 22 सीटें हासिल हुई। उसे 50 फीसदी से थोड़े ही कम वोट हासिल हुए। 

आंध्र प्रदेश में विधानसभा के चुनाव भी लोकसभा के साथ ही हुए थे। उसमें भी जगनमोहन रेड्डी की वाईएसआर कांग्रेस ने बाजी मार ली। आंध्र में विधानसभा की 175 सीटों में से उनकी पार्टी को 147 सीटों पर जीत हासिल हुई। 

विधानसभा में भी वाईएसआर कांग्रेस को 50 फीसदी वोट मिले।    

दक्षिण भारत में बीजेपी के लिए तेलंगाना की जीत अप्रत्याशित थी। यहां लोकसभा की 17 सीटों में से बीजेपी को 4 सीटें मिलीं। आदिलाबाद,करीमनगर,निजामाबाद,सिकंदराबाद की यह मात्र 4 सीटें नहीं हैं। इनका महत्व काफी ज्यादा है। तेलंगाना की चार सीटों पर जीत का अर्थ यह है कि इस राज्य का जनता ने पीएम मोदी का संदेश समझा है। इसलिए भविष्य में यहां बीजेपी और सीटें हासिल कर सकती है।  

केरल में बीजेपी ने सीटें नहीं जीती। लेकिन उसके उम्मीदवारों ने कांग्रेस और वामपंथी उम्मीदवारों को कड़ी टक्कर दी। तिरुअनंतपुरम जैसी प्रतिष्ठित सीट पर तो एक बार शशि थरुर खतरे में पड़ गए थे। 

तमिलनाडु में बीजेपी की रणनीति काम नहीं आई। उसने दो दशक से सत्ता में जमी हुई अन्नाद्रमुक के साथ समझौता किया। जिसके खिलाफ चल रहा सत्ताविरोधी रुझान बीजेपी को भारी पड़ा।