अथर्वेद-- यज्ञपदीराक्षीरा स्वधाप्राणा महीलुका ।
             वशा पर्जन्यपत्नी देवां अप्येति ब्रह्मणा  । । 10.10.6
गौमाता (यज्ञपदी) यज्ञकर्म करने की प्रेरण देने वाली–उत्तम मानसिकता और कर्म करने की प्रेरणा देने वाली , (इराक्षीरा) अन्न और दूध देने वाली , (स्वधाप्राणा) अपने  को अपनाने वालों को स्वतंत्र बनाती है, (महीलुका) पृथिवी –गोचर - जिस का विशिष्ट  स्थान है,  वह (वशा) गौ माता (पर्जन्यपत्नी) मेघों से वर्षा के द्वारा सब का पालन करने वाली,  (देवां अप्येति ब्रह्मणा) देवता स्वरूप ज्ञानी जनों को प्राप्त होती हैं  | 

पर्जन्यपत्नी की व्याख्या ;
गृहस्थ में पत्नी जब होती है तब पति पत्नी के साथ रहता है | पत्नी के बिना पति अकेला पड़ कर इधर उधर आवारा फिरता है | गौ और पृथ्वी दोनों ही माता का रूप हैं | बिना गौओं के पृथ्वी भी अधूरी माता है |
 आधुनिक विज्ञान ने यह सिद्ध कर दिया है कि जहां पृथ्वी पर गौएं  होती हैं पर्जन्य – मेघ  भी वहीं वर्षा करते हैं | और पृथ्वी भी जहां गौएं होती हैं वहीं पर  वर्षा के जल को अपने अंदर ऐसे संचित कर के रखती है जैसे रेतस योनि में | 

वर्षा के जल से पृथ्वी वनस्पति रूपी संतान देती है | जहां पृथ्वी पर गौ नहीं होंगी वहां पृथ्वी बांझ हो जाएगी , और मेघ भी वहां वर्षा करने के लिए नहीं आएंगे | जहां पृथ्वी पर गौएं होती हैं वहां वर्षा  से पृथ्वी हरी भरी रहती है |

गोचर का गौ के लिए यह विशेष महत्व है , जो दक्षिण अफ्रीका के वैज्ञानिक एलेन सेवोरी के  अनुसंधान से यह  सिद्ध भी हो गया है |  वह भूमि जहां गौओं का गोबर और गोमूत्र गौओं के खुरों द्वारा मिट्टी में रौंद दिया जाता है वहां  की मिट्टी में वर्षा के जल को सोख लेने की क्षमता बहुत बढ़  जाती है | हरियाली बनी रहती है |  हरियाली में पनप रहे सूक्ष्म जीवाणु  द्वारा आकाश में बादलों को प्रभावित कर ने से वर्षा होतीहै | जिस के परिणाम स्वरूप गोचरों में हरियाली बनी रहती है |  इसी लिए वेद ने गौ को पर्जन्यपत्नी बताया। 

  प्राचीन काल में गोचर बहुत  बड़े  होते थे | जब एक गोचर के क्षेत्र से गौएं घास खा लेती थीं तब जो क्षेत्र घास वाले होते थे वहां चली जाती थीं | इस प्रकार गोचर में घास की कभी कमी नहीं रहती थीं | आधुनिक काल में गोचरों का संचालन managed pastures एक वैज्ञानिक विषय है |  हमारे देश में भी गोचर विकास और प्रबंधन  भी पशुपालन शिक्षा अनुसंधान पर कार्य होना चाहिए |

ऋग्वेद -11/37/11 मरुतो देवता:
त्यं चिद् घा दीर्घं पृथुं मिहो नपातम मृध्रम् !
प्र च्यावयान्ति  यामाभि: !! 

इस वेद मंत्र के तीन भाष्य निम्न लिखित प्राप्त होते हैं

1.महर्षि दयानंद कृत भाष्य से, मरुत देवता , (मिह: ) वर्षा जल से सींचने वाले पवन (यामाभि: )अपने जाने के मार्गों से (घ) ही (त्यम्) उस (नपातम्) जलो को  न गिराने  और (अमृघ्रम्) गीला न करने वाले (पृथुम्) बडे (चित्) भी (दीर्घम्) स्थूल मेघ को (प्रच्यावयान्ति) भूमि पर गिरा देते हैं.

2.सायण भाष्य: (मरुद्गण) निश्चय कर के उस किसी लम्बे चौडे न रोके जाने वाले मेघ के पुत्र (वर्षा) को अपनी यात्राओं के साथ हाँक कर ले जाते हैं.

3.दामोदर सातवलेकर भाष्य: (त्यं चित् घ) उस प्रसिद्ध (दीर्घ) बहुत लम्बे (पृथुं) फैले हुवे (अमृघ्रं) जिस का कोई नाश नही कर सकता ,ऐसे (मिह: न पातं)जल की वृष्टि न करने वाले मेघ को भी यह वीर मरुत् (यामाभि: ) अपनी गतियों से (प्र च्यावयन्ति) हिला देते हैं.

तीनो विद्वत् महानुभावों के उपरोक्त भाष्यों मे एक मुख्य विषय निर्विवादित है कि “ ऐसे लम्बे बडे मेघों से जो वर्षा नही करते मरुद्गण अपने प्रभाव से वर्षा करा देते हैं”

यह कैसे सम्भव होता है इस को आज आधुनिक विज्ञान इस प्रकार बता रहा है.पृथ्वी पर उत्पन्न हरियाली और गले सडे पत्तों मे जो सूक्ष्म जीवाणु पाए जाते हैं उन मे से कुछ को स्यूडिमोनस सिरिंगै के  नाम से जाना जाता है।  यह सूक्ष्म जीवाणु हरे पत्तों पर पलते हैं औरवायुमंडल मे फैल कर आकाश की ओर मेघ मंडल तक पहुंच जाते हैं. इन जीवाणुओं मे मेघ मंडल मे वहां के ताप मान पर ही हिम कण उत्पन्न करने की क्षमता होती है. इसी सूक्षमाणु  के प्रभाव से मेघ मंडल वर्षा करने को बाध्य हो जाता है.

यदि मनुष्य अपने स्वार्थ वश पृथ्वी पर वनस्पति हरियाली की मात्रा को कम कर देता है, या ऐसे वृक्ष लगाता है जैसे पहाडों पर चीड (pine), जिस से पृथ्वी की हरयाली कम या समाप्त हो जाती है तो स्पष्ट है कि पृथ्वी पर वर्षा के उपयोगी मरुद्गणों का अभाव हो जाएगा. जिस के  परिणाम स्वरूप  वर्षा का अभाव हो जाएगा.

ऐसे क्षेत्रों मे जहां पर्याप्त हरियाली और वर्षा उपयोगी मरुद्गण वतावरण मे  उपस्थित हों वहां विशेष यज्ञ द्वारा इन मरुद्गणों को मेघमन्डल मे पहुंचाने मे यज्ञाग्नि सहायक हो कर शीघ्र वर्षा कराती है।  यह कैसे सम्भव होता है इस को आज आधुनिक विज्ञान इस प्रकार बता रहा है। पृथ्वी पर उत्पन्न हरियाली और गले सड़े पत्तों मे जो सूक्ष्म जीवाणु पाए जाते हैं उन मे से कुछ को स्यूडिमोनस सिरिगै के  नाम से जाना जाता है।  यह सूक्ष्म जीवाणु वायुमंडल मे फैल कर आकाश की ओर मेघ मंडल तक पहुंच जाते हैं।  इन जीवाणुओं में मेघ मंडल मे वहां के ताप मान पर ही हिम कण उत्पन्न करने की क्षमता होती है।  इसी के प्रभाव से मेघ मंडल वर्षा करने को बाध्य हो जाता है।
ऐसे क्षेत्रों मे जहां पर्याप्त हरयाली और वर्षा उपयोगी मरुद्गण वतावरण मे  उपस्थित हों वहां विशेष यज्ञ द्वारा इन मरुद्गणों को मेघमंडल मे पहुंचाने मे यज्ञाग्नि सहायक हो कर शीघ्र वर्षा कराती है।

वि वृक्षान् हन्त्युत हन्ति रक्षसो विश्वं बिभाय भुवनामहावधात् ।
उतानागा ईषते वृष्ण्यावतो यत् पर्जन्य: स्तनयन् हन्तिदुष्कृत: ।।  ऋग्वेद 5.83.2


ऋग्वेद के मंत्र अनुसार जो व्यक्ति वृक्ष काटते हैं  वे वर्षा के शत्रु होते हैं उन्हे राक्षसों जैसा दण्ड देना चाहिये.
AV 4.15 वृष्टि प्रार्थना 

1. समुत्पतन्तु प्रदिशो नभस्वतीः सं अभ्राणि वातजूतानि यन्तु  ।
 महऋषभस्य नदतो नभस्वतो वाश्रा आपः पृथिवीं तर्पयन्तु  । ।AV4.15.1
(वर्षा के जल ) बादलों से युक्त उमड़ कर उठें, वायु से सेवित   मेघ मिल कर बड़े वृषभों की तरह गर्जन करते हुए आएं, वेगवती जल की धाराओं से पृथ्वी को तृप्त करें.

2. सं ईक्षयन्तु तविषाः सुदानवोऽपां रसा ओषधीभिः सचन्तां  ।
 वर्षस्य सर्गा महयन्तु भूमिं पृथग्जायन्तां ओषधयो विश्वरूपाः  । । AV4.15.2
बड़े बलशाली महान दान शील मरुत ( सूक्ष्माणु) भलीभांति वर्षा की बौछारों को औषधि तत्वों से परिपूर्ण कर के भिन्न भिन्न स्थानों पर उत्पन्न होने वाले अन्न और औषधीय लताओं वनस्पतियों की वृद्धि करें .

वर्षा  के लोक गीत
3. सं ईक्षयस्व गायतो नभांस्यपां वेगासः पृथगुद्विजन्तां  ।
 वर्षस्य सर्गा महयन्तु भूमिं पृथग्जायन्तां वीरुधो विश्वरूपाः  । । 4.15.3
आकाश में मेघों को देखने की, भिन्न भिन्न स्थानों पर वेग पूर्वक वर्षा की धारओं से विविध रूप वाली वनस्पतियों के उत्पन्न होने की आकांक्षा गायन द्वारा स्तुति की प्रेरणा दें. 

वर्षा के लोक गीत
4. गणास्त्वोप गायन्तु मारुताः पर्जन्य घोषिणः पृथक् ।
 सर्गा वर्षस्य वर्षतो वर्षन्तु पृथिवीं अनु  । ।AV4.15.4
पृथक पृथक स्थानों पर वर्षा के , मेघों के पृथ्वी  पर बरसने के यशोगान हों .

सूक्ष्माणु द्वारा वाष्पीकरण
5. उदीरयत मरुतः समुद्रतस्त्वेषो अर्को नभ उत्पातयाथ  ।
 महऋषभस्य नदतो नभस्वतो वाश्रा आपः पृथिवीं तर्पयन्तु  । । AV4.15.5
समुद्र से जलों को ऊपर अंतरिक्ष में चमकते हुए सूर्य के साथ सूक्ष्माणु  गरजते हुए बादलों से वेगवती जल की धाराओं से भूमि को तृप्त करें
गोचर की समृद्धि

6. अभि क्रन्द स्तनयार्दयोदधिं भूमिं पर्जन्य पयसा सं अङ्धि  ।
 त्वया सृष्टं बहुलं ऐतु वर्षं आशारैषी कृशगुरेत्वस्तं  । । AV4.15.6
गर्जना करते हुए, कड़कते  हुए बादल समुद्र को हिला दें.  जल से भूमि को कांतिमयि बना दें. वर्षा की झड़ी से दुर्बल गौओं के लिए गोपालक (गोचर के लिए)  अच्छी  वर्षा की इच्छा करता है .

7. सं वोऽवन्तु सुदानव उत्सा अजगरा उत  ।
 मरुद्भिः प्रच्युता मेघा वर्षन्तु पृथिवीं अनु  । ।AV4.15.7
अजगर के समान मोटेमोटे जल आकाश से गिरती हुइ जल की धाराएं  सूक्ष्माणुओं से संचालित मेघ पृथ्वी पर सुरक्षा के लिए अनुकूल वर्षा करें

8. आशामाशां वि द्योततां वाता वान्तु दिशोदिशः  ।
 मरुद्भिः प्रच्युता मेघाः सं यन्तु पृथिवीं अनु  । ।AV4.15.8
आकाश में सब दिशाओं में बिजली चमके,सब दिशाओं मे वायु चले, सूक्ष्माणुओं से प्रेरित मेघ भूमि को अनुकूल बनाने के लिए आएं.

9. आपो विद्युदभ्रं वर्षं सं वोऽवन्तु सुदानव उत्सा अजगरा उत  ।
 मरुद्भिः प्रच्युता मेघाः प्रावन्तु पृथिवीं अनु  । ।AV4.15.9
सूक्ष्माणुओं  से प्रेरित मेघों में विद्युत, अजगर के समान मोटे मोटे जल का दान करने वाले वर्षा के झरने पृथ्वी को अनुकूल बना कर रक्षा करें.
वर्षा जल का महत्व

10. अपां अग्निस्तनूभिः संविदानो य ओषधीनां अधिपा बभूव  ।
 स नो वर्षं वनुतां जातवेदाः प्राणं प्रजाभ्यो अमृतं दिवस्परि  । । AV4.15.10
(वर्षा के ) जलों में जो अग्नि गुण हैं ,जलों के शरीरभूत बादलों से मिली हुई , जो इस जलों को ओषधि गुण द्वारा वनस्पतियों की रक्षक और पालक होती हैं वह अग्नि  प्रकट हो कर हमें वर्षा को प्रदान करे. वे जल बुद्धि मान जन जानते हैं कि वे   द्युलोक से आने वाले अमृत रूप धारण करके प्रजा के प्राण हैं .
वर्षा का जल पृथ्वी का वीर्य

11. प्रजापतिः सलिलादा समुद्रादाप ईरयन्नुदधिं अर्दयाति ।
 प्र प्यायतां वृष्णो अश्वस्य रेतोऽर्वानेतेन स्तनयित्नुनेहि  । । AV4.15.11
(प्रजापति) प्रजा का  रक्षक परमेश्वर (सलिल) साधारण  जल को समुद्र को पीड़ित कर-वाष्प बना कर व्यापनशील मेघ के रूप में अन्तरिक्ष की ओर ले जा कर गर्जने वाले मेघ से वीर्य की भांति खूब वृद्धि के लिए पृथ्वी की ओर नीचे वर्षा करता है.

12. अपो निषिञ्चन्नसुरः पिता नः श्वसन्तु गर्गरा अपां वरुणाव नीचीरपः सृज।
 वदन्तु पृश्निबाहवो मण्डूका इरिणानु  । ।AV4.15.12
वर्षा का जल प्राणों को देने वाले मेघ से उत्पन्न हमारा पिता-समान  है , जो बादलों की गड़गड़ाहट की ध्वनि से जलों को नीचे की ओर छोड़ता है, पृथ्वी पर  गड्ढों में रहने वाले  भिन्न भिन्न रंग बिरंगे मेंढक इत्यादि हर्षसे खूब टर्र टर्र करते हैं .

13. संवत्सरं शशयाना ब्राह्मणा व्रतचारिणः ।
 वाचं पर्जन्यजिन्वितां प्र मण्दूका अवादिषुः  । ।AV4.15.13
वृष्टि के लिए वार्षिक व्रत सम्पन्न करने वाले ब्राह्मणो की नांई, साल भर सोये पड़े मेंढक वर्षा से तृप्त हुई वाणीको खूब ज़ोर से  बोलते हैं. 

14. उपप्रवद मण्डूकि वर्षं आ वद तादुरि ।
 मध्ये ह्रदस्य प्लवस्व विगृह्य चतुरः पदः  । ।AV4.15.14
हे मेंढक मेंढकी के परिवार वर्षा को देख कर आनंद से चारों पैर फैला कर खूब क्रीड़ा करो  और बोलो .  
वर्षा की कामना

15. खण्वखा३इ खैमखा३इ मध्ये तदुरि  ।
वर्षं वनुध्वं पितरो मरुतां मन इछत  । ।AV4.15.15
(खण्वखा३इ खैमखा३इ मध्ये तदुरि)   ईड़ा पिंगला सुषम्ना के मध्य ,  मन को केंद्रित  कर के  मरुतों से  अनुकूल  हो कर वर्षा द्वारा हमारा पितरों कि तरह पालन करने की कामना करो..

16. महान्तं कोशं उदचाभि षिञ्च सविद्युतं भवतु वातु वातः ।
 तन्वतां यज्ञं बहुधा विसृष्टा आनन्दिनीरोषधयो भवन्तु  । । AV4.15.16
(आप लोग)  खूब यज्ञादि कर के महान आनंद दायक समृद्धि और ओषधि के कोष को विद्युत और पवन के साथ वर्षा की धाराओं  द्वारा समस्त संसार को सींचो।