आजादी के आंदोलन और आजाद भारत में बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर देश की आर्थिक स्थिति को सुधारने के लिए अपना मत रखते थे। अंबेडकर का कहना था कि जबतक गावों को खत्म करने के लिए उन्हें शहर नहीं बनाया जाएगा देश से सवर्ण राजनीति का सफाया नहीं किया जा सकता। बाबा साहेब ने कहा कि देश की ग्रामीण अर्थव्यवस्था सवर्णों के हित की है लिहाजा इसे कुचले बिना देश में आर्थिक विकास को रफ्तार देना उचित नहीं होगा।

वहीं वेस्टर्न फिलॉसफी में फ्रेडरिक हीगल भौतिकवाद का द्वंद प्रतिपादित करते हैं। आगे चलकर कार्ल मार्क्स इस द्वंद को सिर के बले खड़ा कर देते हैं। बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर ने भी महात्मा गांधी के आर्थिक विचारों को सिर के बल खड़ा करने की बात कही।

हाल के दिनों में कई शोध के जरिए सामने आया कि जब देश आजादी की लड़ाई लड़ रहा था, बाबा साहेब देश की अर्थव्यवस्था में अहम योगदान दे रहे थे। आजादी से काफी पहले देश को करेंसी देने में अहम भूमिका अदा करने वाले बाबा साहेब देश के अर्थशास्त्रियों में शुमार थे। 

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एक रीसर्च पेपर के मुताबिक मौजूदा समय में देश के सामने खड़ी कई आर्थिक चुनौतियों को खत्म करने का सही तरीका बाबा साहेब ने सुझाया था। बाबा साहेब आजादी से पहले देश के पहले चंद  अर्थशास्त्र में शुमार थे जिन्हें इस बात की समझ थी कि भारत की क्या आर्थिक चुनौतियां हैं और उन्हें दूर करने के लिए किस रास्ते को चुना जा सकता है। रीसर्च पेपर के मुताबिक यदि आज देश बाबा साहेब के आर्थिक सिद्धांतों पर चलता तो हमारे सामने एक समावेशी भारत खड़ा होता।

जवाहर लाल नेहरू और सरदार पटेल भी कंधे से कंधा मिलाकर चले। आजाद भारत की राजनीति ने उन्हें आमने-सामने कर दिया। सवाल उठा, नेहरू महान थे या पटेल? ठीक इसी तरह गुलाम भारत में महात्मा गांधी और बाबा साहेब अंबेडकर ने अनेक मुद्दों पर मत रखे। दोनों ने गुलामी की जंजीरों को तोड़ने की वकालत की और आजाद भारत की एक तस्वीर सामने रखी।

आजादी के सात दशक बाद गांधी की तरह अंबेडकर की प्रासंगिकता बनी हुई है। वजह यही है कि अंबेडकर ने गांधी के आर्थिक विचार को अपने द्वंद में उलट दिया।

ग्रामीण भारत, जाति प्रथा और छुआ-छूत पर अंबेडकर और गांधी विपरीत बैठे हैं। हालांकि दोनों अंबेडकर और गांधी की कोशिश सामाजिक न्याय और एकता पर आधारित समाज बनाने की है लेकिन इन्हें प्राप्त करने के लिए दोनों ने रास्ता अलग-अलग सुझाया है।

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गांधी कहते हैं कि जाति व्यवस्था से छुआ-छूत जैसे अभिशाप को बाहर कर दें यह सामाजिक व्यवस्था के लिए अच्छा रहेगा। इसके लिए गांधी ने गांव को एक पूर्ण समाज बोलते हुए गांव को उन्नति के केन्द्र में रखने की बात कही।

अंबेडकर ने जाति व्यवस्था को ही खत्म करने की बात कही। अंबेडकर ने कहा कि जाति व्यवस्था को खत्म नहीं किया गया तो नई-नई शक्ल में छुआ-छूत जैसे अभिशाप हमारे सामने रहेंगे। लिहाजा, जाति व्यवस्था के केन्द्र में गांव पहले से बैठा है और इसलिए गांव को शहरों के नजदीक लाकर ही जात-पात और छुआछूत के अभिशाप को खत्म किया जा सकता है।

गांधी चाहते थे कि लोग गांव का रुख करें। फैक्ट्री के सहारे इतनी बड़ी जनसंख्या का पेट नहीं भरा जा सकता है। वहीं अंबेडकर का अर्थशास्त्र कहता है कि लोगों को गांव छोड़कर शहर का रुख करना चाहिए। समावेशी समाज के लिए शिक्षा बेहद जरूरी है। शिक्षा से आर्थिक उन्नति का रास्ता साफ होता है।

आजादी के बाद कांग्रेस सरकार के कार्यकाल में गांधी के आदर्शों पर चलते हुए ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत करने की कवायद होती रही। नतीजा हमारे सामने है। सत्रहवीं लोकसभा के चुनावों चल रहे हैं और सभी राजनीतिक दलों का चुनावी गणित जाति के आंकड़ों पर टिका है। ग्रामीण इलाकों में वोट पर चर्चा भी सिर्फ जाति के आंकड़ों को लेकर है। क्या आज भारत अधिक समावेशी होता यदि हम शहरों को केन्द्र में रखते और शिक्षा के जरिए आर्थिक स्थिति में परिवर्तन लाते?