हाल ही में एक सफल तमिल फिल्म परियेरम  पेरुमल आई जिसने बहुत अच्छा काम किया, ये एक दिल दहला देने वाली फिल्म है। फिल्म में  दक्षिणी तमिलनाडु के आसपास की जगह में रह रहे दलितों पर वहीँ आसपास की बड़ी जातिओं के द्वारा किये जा रहे अपमानजनक बर्ताव को बड़े ही संजीदगी से दर्शाया गया है। कहानी का एक दृश्य हमें क्लाइमेक्स तक ले जाता है जहाँ, नायक (एक दलित जो कहानी में पीड़ित की भूमिका में है) कहता है, "कौन जानता है, क्या पता कि कल कुछ बदल भी सकता है या नहीं!"; नायक एक शून्य भाव सी प्रतिक्रिया देता है: "मुझे पता है, जब तक तुम (दमनकारी जाति के लोग) तुम ही बने रहोगे और जब तक तुम हमसे कुत्ते ही बने रहने की उम्मीद करते रहोगे तब तक कुछ भी नहीं बदल सकता है।" इस भयावह लाइन को फिल्म के अंत में समेटा गया है।  यह अवसाद से भरी हुई है और दलित पीड़ितों के जबरदस्त संयम को चित्रित करती है (हालांकि इस फिल्म की दलित आंदोलन के जाने माने लेखकों द्वारा आलोचना की गई है।) दुर्भाग्यवश ऐसी आलोचना पर परियेरम पेरुमल की किसी निर्देशक या प्रोड्यूसर का कोई बयान नहीं आया है।  फिल्म में दर्शाए गए जातिगत भेदभाव ने तमिलनाडु की स्थिति  पर प्रकाश डाला है और इससे यह साबित होता है कि राज्य में अब भी कुछ भी नहीं बदला है।

फिल्म के सबसे दुखद भाग में, नंदीश जो दलित आदी-द्रविड़ जाति से संबंधित 25 वर्षीय लड़का है और स्वाती 22 वर्षीय उसकी नव-विवाहिता पत्नी शामिल हैं।  स्वाति प्रमुख वन्नियार जाति से सम्बंधित है, दोनों तमिलनाडु में होसूर के पास सुदागोंडापल्ली गांव में रह रहे हैं।नंदीश और स्वाती चार साल से एक दुसरे को पसंद करते थे और दोनों ने अगस्त में शादी कर ली। इसके बाद  स्वाती के पिता और उनके रिश्तेदारों ने स्वाति का अपहरण कर हत्या कर दी थी। बाद में कर्नाटक के मंड्या जिले के शिवसममुद्र के पास कावेरी नदी में  उनके शरीर मिले।

हत्या करना अधर्म है लेकिन आगे दिखाए गये भाग में तो यह 'बेवकूफी' भरा है, क्योंकि नदी से निकल कर अपराधी इस पर भी नहीं रुकते हैं वो हत्या के बाद में शरीर ने टुकड़े कर देते है ताकि शरीर की पहचान ना हो। हत्यारों को गिरफ्तार कर लिया जाता है, लेकिन ये ही एक अकेला मामला नहीं है। हाल ही में अभी एक और युवा जोड़े को जातिवाद का शिकार होना पड़ा था, तमिलनाडु में द्रविड़ सरकार के लंबे दावों के बावजूद हो रहीं ऐसी घटनाओं के बाद भी तमिलनाडु को प्रगतिशील राज्य माना जा रहा है।

दलित कार्यकर्ताओं के अनुसार, अकेले पिछले पांच वर्षों में तमिलनाडु में जाति के आधार पर लगभग 200 हत्याएं हुई हैं – यह एक ऐसा आंकड़ा है जिससे राज्य के शीर्ष राज्यों में शामिल होने पर संदिग्धता बन गई है, जहां अक्सर ऐसी हत्याओं के मामले सामने आ जाते हैं। ये संख्या तो एक अनुमान ही हो सकती है क्योंकि ऐसी जातिवादी हत्याओं में पुलिस और हत्यारों के बीच  सांठगांठ बाद  बिना किसी रिपोर्ट के इन हत्याओं को 'आत्महत्या' का रूप दे दिया जाता है या ऊपरी जाति समूहों के दबाव देने से इस तरह के मामले बंद  कर दिए जाते हैं। जयललिता सरकार के शासन में पुलिस के अधिकतर ऊंचे  पदों पर उच्च  जाती के लोगों को बैठा दिया गया था, ऐसा शशिकाला के मन अनुसार हुआ क्योंकि वे खुद थेवार समुदाय जैसे उच्चे परिवार से संबंध रखती हैं, जो एक आक्रामक उच्च  जाति समूह है–खैर ये कहानी और किसी दिन के लिए छोड़ देना बेहतर होगा।

बहुत कम मामलों में ही हिंसा और हत्याओं के दोष सिद्ध होते हैं। पिछले साल इन दुर्लभ हत्यों में एक दलित शंकर की हत्या की गई जिसने थेवार जाती की गोवालय से शादी की थी। मदुरै के एक दलित कार्यकर्ता वी सुरेश कहते हैं, "प्रणाली हमारे खिलाफ है। कानून के कक्षों की राह दलितों के लिए एक भूलभुलैया बन कर रह गई है। शक्तिसंपन्न समूह आसानी से हमें विचलित या गुमराह कर देते हैं और कभी भी हमें न्याय तक पहुंचने नहीं देते।"

राज्य में जाति गतिशीलता के अध्ययन में पीएचडी की विद्वान विसलाक्षी सुगुमार के अनुसार, "तमिलनाडु का मुद्दा विरोधाभास से भरा हुआ है। यह देश को अपने स्कूलों, कॉलेजों और नौकरियों जैसी सभी क्षेत्रों में प्राथमिकता दे कर आगे बड़ तो रहा है। लेकिन यह साथ ही दलितों के साथ जातिगत हिंसा के मामले में भी शीर्ष पर है। लेकिन यदि आप द्रविड़ राजनीति के परे सुनना चाहेंगे तो असल मुद्दा भी समझ में आ जायेगा।" द्रविड़ आंदोलन, जिसने राज्य में चली आ रही ब्राह्मणिक विरासत को तोड़ कर रख दिया, यह समाज में वास्तविक दलित उत्पीड़न को ख़त्म करने में सरासर नाकाम रहा है। दक्षिण भारत में उपनगरीय अध्ययन से जुड़ी प्रोफेसर हेमालता संतोष के अनुसार, "मध्यस्थ जातियों ने खुद को कल्पना से परे स्थूल बना लिया है। वे बड़ी संख्या में एक  साथ  रहते हैं लेकिन उनमें कोई बल नहीं है।"

"द्रविड़ आंदोलन ने ब्राह्मण जाती को एक दलदल के रूप में परिभाषित किया है। उदाहरण के लिए, राज्य में मुदलियारों ने कुछ समय तक अकादमी क्षेत्र में हावी होना शुरू कर दिया था और छात्रियो  ने वित्तीय संस्थानों में। लेकिन दलितों की स्थिति में कभी कोई सुधार नहीं हुआ। हालाँकि मध्यस्थ जाति ने ब्राह्मणों को हमेशा से एक खलनायक के रूप में प्रस्तुत किया गया है, पर वे वास्तविकता से बहुत दूर हैं।" यदि कुछ भी घटना होती है तो मीडिया ही उन  हत्यारों की उनकी जाती के नाम से  रिपोर्ट दिखती है।" या हत्याओं को ऊपरी जाती के क्रोध के फलस्वरुप बता कर उन गहरे घावों पर मरहम की पट्टी लगा दी जाती है। ऐसा राज्य जहां ब्राह्मण ही अकेले तकनीकी रूप से ऊंची जाति रहे हैं, आज अन्य उच्च जातियों ने उनकी इस छवि को धुमिल कर दिया है पर बस इसी तरह यहाँ ये जातिवाद नियंत्रित हो रहा है।

एक लोकप्रिय और व्यापक रूप से सम्मानित तमिल साहित्य-संबंधी: बी जेमोहन, जो पाठक वर्ग के लिए जानी मानी वेबसाइट चलते हैं, ने हाल ही में द्रविड़ आंदोलन को जनवादी शासन के रूप में वर्णित किया, जिसका एकमात्र बड़ा एजेंडा ब्राह्मणवाद का विरोध था।

जेमोहन का मानना रहा है कि द्रविड़ आंदोलन जो पेरियार की अगुवाई में चलाया गया था, उसने दलितों के हित में कोई महत्वपूर्ण कदम नहीं उठाये हैं। लेकिन द्रविड़ विचारधारा के अनुसार वे इस पक्षपात का अपराध जल्द ही अपने सर ले लेते हैं, उनके अनुसार, पेरियार और डॉ बीआर अम्बेडकर, दोनों ही दलितों के प्रति एक ही दृष्टीकोण रखते हैं। हेमलता के अनुसार , "द्रविड़ आंदोलन को अम्बेडकर के अच्छे काम से तौला जाये तो द्रविड़ आंदोलन एक शर्म की बात बन कर रह जायेगा। यदि द्रविड़ राजनीति  वास्तविक रूप में दलितों के लिए काम करती, तो वे (दलित) अभी भी चिंताजनक स्थिति में नहीं होते।"

2011 की जनगणना के अनुसार, तमिलनाडु की 72 मिलियन आबादी में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति का, 20.01% और 1.10% का योगदान है। ब्राह्मण लगभग 5% हैं जबकि अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) राज्य की आबादी के 68% हैं। लगभग 38% की आबादी के साथ वानियार तमिलनाडु का सबसे बड़ा जन समुदाय है।    

"आबादी के संदर्भ में देखे जाने पर, आप समझेंगे कि 69% आरक्षण नीति के साथ तमिलनाडु में कितनी विसंगतियां हैं जबकि देश के बाकी हिस्सों में आरक्षण के लिए 50% पर एक स्लैब है। यहाँ कोई इस बात पर सहमत नहीं है की आरक्षण नहीं होना चाहिए। लेकिन जब 69% समुदाय लाभ से वंचित किनारे पर खड़ा  है तो यह आरक्षण राज्य व्यवस्था का मजाक उड़ाता हुए दिखता है। विसलाक्षी के अनुसार  इस तरह की विचारधाराओं ने हमारे वातावरण में वास्तविक पीड़ितों की स्थिति को और दूभर बना दिया है।

राज्य आपराधिक ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक, थेवार और गौंडर के साथ वन्नियर्स, दलितों के खिलाफ हिंसा में साथ हैं। तमिलनाडु में लगभग सभी हालिया जाति हत्याओं में ये तीन प्रमुख ताकत शामिल हैं। चूंकि तमिलनाडु की राजनीतिक पृष्टभूमि पर जातिवाद हावी है (वर्तमान सीएम टीएन एडप्पादी पलानिसमी एक गौंडर है और  डिप्टी सीएम ओ पनेरसेल्वम एक थेवार है। राज्य मंत्रिमंडल में वानियारों को उच्च प्रतिनिधित्व दिया जाता है और डॉ रामदास के वानियार्स समर्थित पीएमके उत्तरी तमिलनाडु में एक महत्वपूर्ण राजनीतिक संगठन है), इसलिए कुछ ऐसे वर्ग हैं जो दलितों पर हो रहे हमलों को राजनीतिक से ज्यादा जातिवादी तरीके से  देखते हैं।

एक अंग्रेजी समाचार पत्र के पत्रकार एम भास्कर ने लिखा है,"इन हत्याओं को राजनीतिक हत्याओं के रूप गिना जाना चाहिए। अधिकांश राजनीतिक दल वोटबैंक की चाह में इन आक्रामक जाती समूहों की जीहुजूरी करते है। जबकि दलित राजनीतिक समूह अलग थलक पड़ गये हैं। राजनेता इस वास्तविकता को जानते हैं और यह उनके दृष्टिकोण के अनुरूप हैं इसलिए इस मुद्दे पर कोई बात नहीं होती ।"

कुछ दलितों ने इस बिंदु को हत्याओं के रूप में देखना शुरू कर दिया है जहां राजनीति और जाति आपस में मिले हुए है। दलित विचारधारा के वक्ता वासुगी भास्कर ने कल एक ट्वीट पोस्ट किया जिसमें उन्होंने कहा कि "ऑनर किल्लिंग" को 2,000 से अभी अधिक वर्षों से हो रहे जातिवाद के साथ मिलाना नहीं चाहिए। यह एक चुनावी मुद्दा बन गया है जिसे सिर्फ चुनाव के समय नकाला जाता है। जातिवाद तीव्र हो गया है, और आगे भी तीव्र होता चला जायेगा। 

भास्कर के शब्दों में भी आलोचना थी (जातिवाद के खतरे को कम करने के लिए), लेकिन इस मुद्दे का तथ्य यह भी है कि इस तरह की विचारधारा अब दलितों सहित अन्य लोगों के दिमाग में भी रेंग रही हैं। जबकि राजनीतिक दलों ने जातिगत हत्याओं की निंदा की है, लेकिन इनके इस तरह के बयानों से अब किसी को भी मूर्ख नहीं बनाया जा सकता। तमिलनाडु का मानना है कि वे होंठ बंद रखे पर इससे राज्य की समस्या में कोई सुधार नहीं आने वाला है, वास्तव में इससे कुछ भी नहीं बदलेगा। यह बातें ज़ाहिर है, हमें वापस पेरीयरम पेरुमल के भविष्यवाणी के शब्दों की याद दिलाता है।