नेताजी सुभाष चंद्र बोस के आजाद हिंद फौज के स्थापना दिवस पर दिए गए प्रधानमंत्री मोदी के बयान के गहरे निहितार्थ हैं। यह सच है, कि अगर देश का नेतृत्व नेताजी सुभाष चंद्र बोस के हाथों में होता तो हमारा भारत कुछ और ही होता। 

-    इस कड़ी में सबसे पहली बात तो यह है, कि अगर सुभाष बाबू होते तो हमें आजादी के साथ देश का विभाजन नहीं झेलना पड़ता। मुख्यभूमि भारत के साथ पाकिस्तान और बांग्लादेश भी हमारे साथ होते और तब भारत की शक्ति क्या होती, इसकी सिर्फ कल्पना की जा सकती है। 
क्योंकि सुभाष चंद्र बोस देश को मात्र जमीन का टुकड़ा नहीं बल्कि जीवंत माता के रुप में देखते थे और कोई भी पुत्र अपनी मां के टुकड़े करने की बात सोच भी नहीं सकता। 
नेताजी का एक प्रसिद्ध कथन है- 
"ये हमारा कर्तव्य है कि हम अपनी स्वतंत्रता का मोल अपने खून से चुकाएं। हमें अपने बलिदान और परिश्रम से जो आज़ादी मिलेगी, हमारे अन्दर उसकी रक्षा करने की ताकत होनी चाहिए।"
नेताजी के इस बयान से झलकता है, कि आजादी को लेकर उनके विचार क्या थे। वह बड़ी कीमत देकर पाई गई आजादी का मोल समझते थे और उसके लिए हर बलिदान देने के लिए तैयार रहते थे। ऐसे में यह तय है, कि वह देश के विभाजन की बात किसी कीमत पर स्वीकार नहीं करते भले ही इसके लिए कितनी भी बड़ी कीमत चुकानी पड़ती।

कहा जाता है, कि खुद गांधी जी ने इस बात को स्वीकार किया था, कि अगर नेताजी होते तो देश का विभाजन नहीं होता। 

इस बात को कई और लोग समझते हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अखिल भारतीय कार्यकारिणी के सदस्य और प्रखर बुद्धिजीवी इंद्रेश कुमार ने भी 23 जनवरी 2016 को स्पष्ट कहा था, कि यदि नेताजी सुभाष जीवित रहते देश आजाद भी होता और विभाजन भी नहीं होता।

-    प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने नेताजी पर दिए अपने अभिभाषण में दूसरी अहम बात यह कही, कि ‘'आजाद हिंद सरकार केवल नाम नहीं था। नेताजी के नेतृत्व में इस सरकार ने हर क्षेत्र में नई योजना बनाई थी। इस सरकार का अपना बैंक था, अपनी मुद्रा थी, अपना डाक टिकट था, गुप्तचर सेवा थी।’

पीएम मोदी का यह कथन एक ऐतिहासिक रुप से प्रमाणित तथ्य है। नेताजी सुभाषचंद्र बोस की प्रशासनिक सूझ बूझ बहुत जबरदस्त थी। 

इसलिए यह निर्विवाद रुप से कहा जा सकता है, कि आजादी मिलने के बाद बरसों तक भारत जिस नीतिगत दिशाभ्रम का शिकार रहा, नेताजी के रहते वैसा नहीं होता। देश की आर्थिक, सामरिक और वैश्विक नीति में एक दूरदृष्टि होती जिसकी वजह से हम भारतीयों का जीवन ज्यादा सुगम होता। 

उदाहरण के तौर पर हमने देखा है, कि जिस अर्थनीति पर हम 1947 से 1991 तक कायम रहे उसे बदलना पड़ा जिसके बाद देश ने विकास के नए कीर्तिमान गढ़े। आर्थिक मोर्चे पर 44 साल की यह दिशाहीनता देश को बेहद भारी पड़ी। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की छवि गरीब देश की बनी रही। भूख और गरीबी के कारण अनगिनत जानें गईं। 

नेताजी यदि होते तो देश ऐसी दिशाहीन परिस्थिति में नहीं भटकता। इसकी मूल वजह यह है, कि नेताजी बेहद कुशाग्र बुद्धि के स्वामी थे। उनका प्रशासनिक अनुभव कमाल का था। सुभाष बाबू ने 1920 में ही अपने जमाने की सबसे कठिन मानी जाने वाली आईसीएस की परीक्षा पास कर ली थी।

जैसा कि प्रधानमंत्री मोदी ने भी बताया, कि उनके पास सरकार के हर क्षेत्र की योजना मौजूद थी। उनका अपना बैंक, मुद्रा, डाक टिकट और गुप्तचर सेवा थी। जो कि यह दर्शाता है, कि नेताजी की सोच कितने आगे की थी और राज-काज को लेकर उनकी सोच में कितनी स्पष्टता थी। जो कि उनके समकालीन लोगों में सिर्फ वल्लभ भाई पटेल में देखने को मिलती थी।  

-    तीसरी बेहद अहम बात यह है, कि अगर नेताजी जीवित होते तो देश में राष्ट्रवाद का एक स्वाभाविक प्रवाह होता। जिसकी वजह से वामपंथी नक्सलियों या आतंकवाद जैसी समस्याएं इतने गंभीर स्वरुप में नहीं होतीं। 
नेताजी सुभाषचंद्र बोस के कुछ बेहद अहम कथन हैं, जो आध्यात्मिक राष्ट्रवाद की उनकी चेतना को दर्शाते हैं- 

"स्वामी विवेकानंद का यह कथन बिलकुल सत्य है ,यदि तुम्हारे पास लौह शिराएं हैं और कुशाग्र बुद्धि है ,तो तुम सारे विश्व को अपने चरणों में झुक सकते हो !"
              
"राष्ट्रवाद मानव जाति के उच्चतम आदर्श सत्य, शिव और सुन्दर से प्रेरित है।"

"भारत में राष्ट्रवाद  ने ऐसी सृजनात्मक शक्ति का संचार किया है, जो सदियों से लोगों के अंदर सुसुप्त पड़ी थी।"

नेताजी सुभाषचंद्र बोस के यह विचार उनके अंदर ज्वलंत आध्यात्मिक राष्ट्रवाद की चेतना को दर्शाते हैं। जिसे कई दशकों तक कांग्रेस ने दबाने का काम किया। भारत की यह स्वाभाविक अध्यात्मिक चेतना सुभाष बाबू में कूट कूटकर भरी थी। वह विवेकानंद के बड़े प्रशंसक थे। उनकी बुद्धिमत्ता का कारण उनके अंदर की आध्यात्मिक अनुभूति थी। 

यदि आजादी के बाद भारत का नेतृत्व नेताजी के हाथ में होता तो आध्यात्मिक राष्ट्रवाद का यह प्रवाह बाधित नहीं होता और देश के अंदर अलगाववादी, आतंकवादी और नक्सलवादी विचारधाराएं इतनी प्रबल नहीं हो पातीं।
आध्यात्मिक राष्ट्रवाद की चेतना के लिए काम करने वाले आरएसएस जैसे संगठनों से नेताजी की नजदीकी थी। 

'भारतवर्ष की सर्वांग स्वतंत्रता' के लेखक नरेन्द्र सहगल ने अपनी किताब में दावा किया है कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस भी संघ के काम से प्रभावित थे। ‘1928 में हुए कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में हेडगेवार भी कांग्रेसी नेता के रूप में भाग लेने गए थे। वहां पर उन्होंने सुभाष चंद्र बोस सहित कई दिग्गज नेताओं से भेंट की।’ हेडगेवार और बोस के बीच भविष्य में संयुक्त रूप से स्वतंत्रता आंदोलन को एक निश्चित दिशा और गति देने जैसे विषयों पर विस्तारपूर्वक चर्चा हुई। संघ के काम को देखने और समझने के बाद बोस ने कहा था कि केवल ऐसे आधारभूत कार्य से ही राष्ट्र का सच्चा पुनरुद्धार किया जा सकता है।' 

 यही नहीं सुभाष बाबू को आजाद हिंद फौज बनाने का आइडिया भी वीर सावरकर से मिला था। जिनसे वह जिन्ना के अनुरोध पर मिलने पहुंचे थे।  जब सुभाष बाबू, विनायक दामोदर सावरकर से मिलने पहुंचे तो सावरकर ने सुभाष बाबू को महान क्रांतिकारी रायबिहारी बोस के साथ हुए पत्रव्यवहार के बारे में बताया। सावरकर ने उनको बताया कि रायबिहारी बोस, युद्धबंदी भारतीयों को एकत्रित करके एक सेना बनाने की योजना बना रहे हैं। 

बाद में सुभाष बाबू ने आजाद हिंद फौज बनाने के लिए इसी कार्य योजना पर अमल किया।  इसके बाद जो हुआ वह इतिहास ही बन गया। पूरी दुनिया में अब तक आजाद हिंद फौज जैसा कोई दूसरा उदाहरण नहीं मिलता जहां 1,50,000 युद्ध बंदियों को संगठित, प्रशिक्षित कर ऐसे साम्राज्य के सामने खड़ा किया गया, जिसके बारे में यह कहा जाता था, कि उसका सूरज कभी नहीं डूबता। 

-    भले ही देश की आजादी के पहले ही नेताजी नेपथ्य में विलीन हो गए। लेकिन सच तो यही है, कि देश को आजादी उन्हीं की वजह से मिली। हम बिना खड्ग बिना ढाल की जिस आजादी के तराने सुनते आए हैं, वह कांग्रेसी प्रचार से ज्यादा कुछ और नहीं है। उनकी बनाई आजाद हिंद फौज भी क्षत-विक्षत हो गई। लेकिन कहते हैं कि शहीदों का खून अपना रंग दिखा ही देता है और आखिरकार उसने ही हमें आजादी भी दिलाई। आईए जानते हैं कैसे- 

द्वितीय विश्वयुद्ध जीतने के बाद आजाद हिंद फौज के अधिकारियों का लाल किले में कोर्ट मार्शल किया गया। जिसके खिलाफ पूरे देश में प्रदर्शन हुआ और अंग्रेजी सेना के भारतीय फौजियों में दुविधा फैल गई। क्योंकि फटी वर्दी पहने, आधा पेट भोजन किये, बुखार से तपते, बैलगाड़ियों में सामान ढोते और मामूली बन्दूक हाथों में लिये बहादूरी के साथ“भारत माँ की आजादी के लिए” लड़ने वाले आजाद हिन्द सैनिकों को हराकर एवं बन्दी बनाकर लाने वाले ये भारतीय जवान ही तो थे, जो “महान ब्रिटिश सम्राज्यवाद की रक्षा के लिए” लड़ रहे थे!

अंग्रेजी सेना के भारतीय जवानों की इस दुविधा ने आत्मग्लानि का रुप लिया, फिर अपराधबोध का और फिर यह सब कुछ बगावत के लावे के रुप में फूटकर बाहर आने लगा।

फरवरी 1946 में, जबकि लालकिले में मुकदमा चल ही रहा था, रॉयल इण्डियन नेवी की एक हड़ताल बगावत में रुपान्तरित हो गई। कराची से मुम्बई तक और विशाखापत्तनम से कोलकाता तक जलजहाजों को आग के हवाले कर दिया गया। देश भर में भारतीय जवान ब्रिटिश अधिकारियों के आदेशों को मानने से इनकार कर दिया। मद्रास और पुणे में तो खुली बगावत हुई। इसके बाद जबलपुर में बगावत हुई, जिसे दो हफ्तों में दबाया जा सका। 45 का कोर्ट-मार्शल करना पड़ा।

यानी लालकिले में चल रहा आजाद हिन्द सैनिकों का कोर्ट-मार्शल देश के सभी नागरिकों को तो उद्वेलित कर ही रहा था, सेना के भारतीय जवानों की प्रसिद्ध “राजभक्ति” की नींव को भी हिला कर रख देता है जबकि भारत में ब्रिटिश राज की रीढ़ सेना की यह “राजभक्ति” ही है!

बिल्कुल ऐसी ही घटनाक्रम की कल्पना नेताजी ने की थी, जब (मार्च’44 में) वे आजाद हिन्द सेना लेकर इम्फाल-कोहिमा सीमा पर पहुँचे थे। उनका आह्वान था- जैसे ही भारत की मुक्ति सेना भारत की सीमा पर पहुँचे, देश के अन्दर भारतीय नागरिक आन्दोलित हो जायें और ब्रिटिश सेना के भारतीय जवान बगावत कर दें।

जो आन्दोलन एवं बगावत 1944 में नहीं हुआ, वह डेढ़-दो साल बाद होता है और लन्दन में राजमुकुट यह महसूस करता है कि भारतीय सैनिकों की जिस  “राजभक्ति” के बल पर वे आधी दुनिया पर राज कर रहे हैं, उस “राजभक्ति” का क्षरण शुरू हो गया है… और अब भारत से अँग्रेजों के निकल आने में ही भलाई है। 

वर्ना जिस प्रकार शाही भारतीय नौसेना के सैनिकों ने बन्दरगाहों पर खड़े जहाजों में आग लगाई है, उससे तो अँग्रेजों का भारत से सकुशल निकल पाना ही एक दिन असम्भव हो जायेगा… और भारत में रह रहे सारे अँग्रेज एक दिन मौत के घाट उतार दिये जायेंगे।

अंग्रेजों के मन में 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम की भयावह यादें ताजा हो गईं। जिस डर से उन्होंने भारत छोड़ने की घोषणा कर दी। 

वरना द्वितीय विश्वयुद्ध में जीत के बाद जब पूरी दुनिया में ब्रिटिश साम्राज्य एक बार फिर स्थापित हो चुका था। वैसी परिस्थिति में अंग्रेज भारत जैसे लाभदायक उपनिवेश को क्यों छोड़ते। 

देश की आजादी के वास्तविक नायक नेताजी सुभाष चंद्र बोस ही हैं और यह सौ प्रतिशत सच है, कि अगर वह जीवित होते तो देश की परिस्थितियां कुछ और ही होतीं।