बेगूसराय: रश्मिरथी में दिनकर लिखते हैं कि ‘दृग हो तो दृश्य अकांड देख, मुझमें सारा ब्रह्मांड देख’...  अगर इसे राजनीति के संदर्भ में देख लिया जाय तो सच में राजनीति का ब्रह्मांड है बेगूसराय। बेगूसराय लोकसभा क्षेत्र और भोजपुरी में लाउडस्पीकर पर बजते चुनावी प्रचार के गाने... कुछ टूटी, कुछ फूटी सड़कें, कच्ची गलियाँ, कुछ पक्के कुछ कच्चे मकान, कुछ पहने और कुछ अधनंगे लोग, हर आने वाले को कौतूहल भरी नजरों से देखते कभी उछलते कभी चिल्लाते बच्चे। 

जितने लोग मिलें अगर उतनी बातें न हो, उतने विचार न आये तो फिर वह कैसा बेगूसराय और कैसा बिहार। देशभर के चुनाव पर कुछ समझना और बतियाना हो तो आप बिहार चले जाइए। देश की राजनीति को हर कोण से देखने समझने वाले बिना किसी खर्च के मिल जाएंगे और यदि उसमें भी बेगूसराय पहुँच गये तो खेत की मेढ़ पर बैठा किसान, चाय की दुकान चलाने वाला दुकानदार, गाड़ी चलाने वाला ड्राइवर बैठे-बैठे राजनीति के हर पहलू को आपके सामने उतार देगा और अगर गलती से गाँव वाले मास्टर साहब मिल गये तो समझिए आपका काम पूरा।

 
वैसे तो दिल्ली वाले चुनावी पंडित बेगूसराय को लेकर तरह-तरह के आंकड़े और भविष्यवाणियाँ कर ही रहे हैं लेकिन वह बेगूसराय ही क्या जो आंकड़ों और भविष्यवाणियों से समा जाय। नहीं समाता, बार-बार बाहर निकल जाता है। ठीक वैसे ही जैसे दिनकर की कविताओं से भारत की संस्कृति और उसका स्वरूप। 


इस चुनाव की स्थिति को देखने जानने से पहले बेगूसराय की भौगोलिक स्थिति और पिछले चुनावों के आंकड़ों को समझ लेना आवश्यक है। बेगूसराय लोकसभा में कुल सात विधानसभाएं हैं। जिनमें चेरिया बरियारपुर, बछवाड़ा, तेघड़ा, मटिहानी, साहेबपुर कमाल, बेगूसराय और बखरी हैं। जहां तक 2015 के विधानसभा चुनाव की बात है तो उस वक्त राजद, जदयू और कांग्रेस एक साथ थे जबकि भाजपा मुख्य विपक्षी पार्टी थी। परिणाम यह हुआ कि सभी सात सीटों पर भाजपा हार गई। इसमें 2 सीटों पर जदयू, 2 सीटों पर राजद, 2 सीटों पर कांग्रेस की जीत हुई, जबकि एक सीट पर राजपा की जीत हुई। वहीं 2010 के विधानसभा चुनाव का परिणाम इसके उलट था। इसमें भाजपा और जदयू एक साथ लड़े थे तो 3 सीटों पर भाजपा, तीन सीटों पर जदयू और एक पर सीपीआई की जीत हुई थी।
  
अब पिछले लोकसभा चुनावों पर एक दृष्टि डालने की आवश्यकता है तभी बेगूसराय के वास्तविक अतीत के बारे में सही समझ बन पायेगी। प्राप्त आंकड़ों के अनुसार इस सीट से सिर्फ एक बार 1967 में कम्युनिस्ट पार्टी को लोकसभा में जाने अवसर मिला है। 2004 और 2009 में यह जदयू के खाते में रहा जबकि 2014 में इस पर भाजपा की ओर से स्व.भोला सिंह जी विजयी हुए थे। 

पिछले चुनाव में भी इस सीट से राजद के वर्तमान प्रत्याशी तनवीर हसन ही थे। 2014 के चुनाव में सभी प्रत्याशियों को जो मत मिले उसमें भाजपा के भोला सिंह जी को 4,28,227 जबकि राजद के तनवीर हसन को 3,69,892 मत मिले। वहीं सीपीआई के राजेन्द्र प्रसाद सिंह को 1,92,639 मत मिले थे। 

इस सीट के बारे में जो बात मीडिया द्वारा बताई जा रही है कि यह वामपंथियों का गढ़ रहा है वह अर्धसत्य है। असल में यहाँ वामपंथियों का एक खास तरह का कैडर है जिसमें कुछ लिखने-पढ़ने वाले छात्रों-अध्यापकों, कुछ मंचीय कलाकारों-नाटककारों, कुछ राजनीतिक कार्यकताओं के रूप में सक्रिय हैं लेकिन उनकी संख्या सीमित है। हाँ एक बात जरूर है कि पिछले कई लोकसभा चुनावों से लगातार वे एक खास मत प्रतिशत के साथ चुनाव में सक्रिय रहे हैं और इसमें सभी वर्गों के लोग हैं। 


बेगूसराय में काम करने वाले कुछ जानकारों का मानना है कि इस सीट पर एक अच्छी संख्या भूमिहार मतदाताओं की है। मुसलमान और यादव भी मिलकर भूमिहारों के लगभग बराबर ही हैं। कुर्मी तथा अन्य पिछड़ी जतियों के साथ ठीक-था संख्या अनुसूचित जाति के मतदाताओं की भी है।

पिछले चुनाव में मुसलमान-यादव समीकरण के सहारे तनवीर हसन लगभग लोकसभा के दरवाजे पर दस्तक दे रहे थे जिन्हें उसी समीकरण को ध्यान में रखते हुए राजद ने पुनः मैदान में उतार दिया है। पिछले चुनाव में भाजपा-जदयू गठबंधन नहीं था लेकिन इस बार है। यह गठबंधन 2004 और 2009 में करामात दिखा चुका है, अंतर बस इतना है कि पहले यहाँ जदयू का प्रत्याशी होता था इस बार भाजपा का प्रत्याशी है। जिसे ना केवल पार्टी का सहारा है बल्कि वह बिहार भाजपा का कद्दावर चेहरा है और हिंदुत्व की राजनीति का धुरंधर भी है। 


जमीनी हकीकत यह है कि राजद इस बार अपना चुनाव कुछ तिकड़मों के सहारे लड़ रहा है और  उसका सबसे पहला हिस्सा है वामपंथी पार्टियों को गठबंधन में शामिल न करना। इस सीट से तीसरे उम्मीदवार सीपीआई के कन्हैया कुमार हैं जो जेएनयू के छात्र नेता रहे हैं और भाजपाविरोधी, गैरहिंदुत्व और राष्ट्रवाद विरोधी शक्तियों के कृपापात्र भी रहे हैं और अभी भी हैं। कन्हैया कुमार राष्ट्र विरोधी ताकतों के एकमात्र अखिल भारतीय चिराग हैं। जिनके सहारे कभी जेएनयू में टुकड़े-टुकड़े गैंग ने अपना काम किया था। कन्हैया की कुल राजनीतिक पूंजी यही है, साथ ही युवा भी हैं, उत्साह और आकांक्षा भी है। 


इस चुनाव की जो सबसे बारीक बात है उसे समझना सर्वाधिक आवश्यक है। पूरे लोकसभा में कहीं भी कन्हैया ने राजद के शासन, लालू यादव की राजनीति, तेजस्वी का गठबंधन में न लेना और तनवीर हसन का प्रत्याशी के रूप में कार्य पर कोई बातचीत नहीं की है और यही स्थिति तनवीर हसन की भी है। उनके निशाने पर कन्हैया हैं ही नहीं। 

 यानी दोनों हमलावर हैं सिर्फ भाजपा और गिरिराज सिंह पर और यही दोनों की आंतरिक सहमति और सहयोग को उजागर भी कर रहा है, जिसे स्थानीय लोग बता भी रहे हैं। यह पूरा चुनाव हिंदुत्व बनाम गैर हिंदुत्व पर आगे बढ़ रह है। अब देखना यह होगा कि इसमें हिंदुत्व और विकास बाजी मारता है या फिर इसके विरोधी।

चूंकि यह सीट भूमिहार बाहुल्य है और यह चर्चा जोरों पर है कि यही देखकर कन्हैया कुमार को वामपंथी उम्मीदवार भी बनाया गया है। लेकिन जमीन पर जिस बात की सर्वाधिक चर्चा है उसमें यह भी है कि नक्सलवादियों की गतिविधियों से सबसे ज्यादा पीड़ित भी वहां के भूमिहार ही रहे हैं। 

दूसरी ओर लालू यादव के शासन काल में पलायन को मजबूर डकैती, अपहरण और फिरौती को अभी भी वहाँ के भूमिहार भूले नहीं है और इसकी चर्चा उस समय खुब हुई थी जब कन्हैया कुमार लालू यादव से मिले थे और पैर छूकर उनका आशीर्वाद लिया था। 

स्थानीय स्तर पर चर्चा तो यह भी है कि कन्हैया को चुनावी मजबूती देने में राजद कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रहा है। इसमें आंतरिक और आर्थिक सहयोग की भी स्थानीय पत्रकार चर्चा कर रहे हैं। 

जहां तक कन्हैया को मिलने वाले मतों की बात है तो वह भी बहुत स्पष्ट है। वामपंथ का कैडर वोट उनको मिलेगा साथ ही निश्चित तौर पर अपने सगे संबंधी भूमिहारों का भी कुछ मत मिल सकता है लेकिन उसकी संख्या बहुत कम और नगण्य जैसी ही होगी। फिर भी राजद इसी रास्ते अपनी जीत को सुनिश्चित करने की दिशा में आगे बढ़ रह है। 


अब जमीन पर जो चुनावी दृश्य बन रहा है उसमें लड़ाई भाजपा के गिरिराज सिंह और राजद के तनवीर हसन के बीच है। कन्हैया कुमार इस चुनाव का कोरस गायन भर कर रहे हैं। 

यह सच है कि वे जितना अच्छा गाएँगे राजद का रास्ता उतना ही साफ होगा। लेकिन यह भी कोरा कयास ही है। जनता इससे अलग भी अनेक दृष्टिकोणों से सोच रही है जिसे समझ पाना और लिख पाना आसान नहीं है। 

प्रधानमंत्री और नीतीश कुमार दोनों का कार्य और चेहरा भी बेगूसराय के चुनाव का हिस्सा है, जो बड़े तबके को प्रभावित कर रहा है। ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि किसकी रणनीति उसे लोकसभा तक पहुंचाती है।  

संतोष राय
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं और राजनीतिक मामलों के जानकार हैं)