पाकिस्तान में कट्टरपंथ की जड़ें जमाने वाले मौलाना मौदूदी को पाकिस्तान का धर्मपिता कहा जाता है। वे पाकिस्तान को केवल मुस्लिम बहुल देश नहीं इस्लाम के सिद्धांतों पर आधारित कट्टरतावादी और जिहादी देश भी बनाना चाहते थे।वही आज पाकिस्तान बन भी गया है। देश का मुसलमान उनके साथ हो गया। आज का पाकिस्तान जिन्ना का पाकिस्तान नहीं मौलाना मौदूदी का पाकिस्तान है।

मौलाना मौदूदी अविभाजित भारत में औरंगाबाद में जन्मे थे, विभाजन से पूर्व ही वे लाहौर चले गए जहां 1942 में उन्होंने जमाते इस्लामी की बुनियाद डाली। अपनी मृत्यु तक वे अपनी इस संस्था के अध्यक्ष बनकर रहे। यह संस्था इस्लामी कट्टरतावादी संस्था थी। मौदूदी ने असंख्य पुस्तकें लिखीं और भारतीय उप महाद्वीप  के मुसलमानों को एक ही संदेश दिया कि उनकी मुक्ति निजामे मुस्तफा में है। 

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आज तालिबान और अन्य जिहादी जिसतरह की  इस्लामी सरकार की स्थापना करना चाहते हैं उसे किसी ने स्वर दिया था तो वे मौलाना मौदूदी ही थे। उन्होंने अपना सारा जीवन इस्लाम की व्याख्या करने और उसके सन्देश को सामान्य लोगों तक पहुंचाने तथा इस्लामी जीवन-व्यवस्था क़ायम करने की कोशिश में लगा दिया। 1942 से 1967 ई0 के बीच उन्हें चार बार जेल जाना पड़ा। मौलाना मौदूदी ने 100 से भी अधिक पुस्तकें लिखीं जो बेहद लोकप्रिय साबित हुईं। 

मौदूदी विभाजन के बाद पाकिस्तान चले गए। पर जमीयते इस्लामी की विचारधारा पर उनका प्रभाव कायम रहा। जमात-ए-इस्लामी के नामकरण के बारे में स्वयं मौदूदी ने लिखा, 'इस्लाम के पुश्तैनी और कदीमी (पुरातन) तरीकों से जमात का काम चलता है, इसलिए इसका नाम जमात-ए-इस्लामी है।' 

उनकी हर बात इस्लामी उग्रवाद की झलक होती थी। प्रारम्भ से ही यह संस्था राष्ट्रवाद तथा देशभक्ति की विरोधी थी। वे कहते थे कि एक मुसलमान सिर्फ एक मुसलमान ही हो सकता है, इसके अलावा कुछ नहीं। अगर वह कुछ होने का दावा करता है तो मैं यह गांरटी के साथ कह सकता हूं कि वह पैगम्बर साहब के मुताबिक मुसलमान नहीं है। 

मौदूदी ने राष्ट्रवाद को शैतान तथा देशभक्ति को शैतानी वसुल (बड़ी बुराई) बतलाया। उन्होंने 'नेशनलिज्म' को मुसलमानों के लिए एक जहालत (मूर्खता) बतलाया। मौदूदी हिन्दुओं तथा मुसलमानों के मिले-जुले राष्ट्र को बनाने की मांग को स्वीकार नहीं करते थे। इसे स्पष्ट करते हुए मौदूदी कहते हैं कि हम समस्त संसार में पूरी आबादी में, केवल दो ही पार्टियां देखते हैं- एक अल्लाह की पार्टी, (हज्ब-ए-अल्लाह) तथा दूसरी शैतान की पार्टी (हज्ज-उल-शैतान)।' 

वह इस्लाम को कोई प्रचारकों का संगठन न मानकर 'खुदा की दैवीय सेना का संगठन' मानते थे, जिसका उद्देश्य विश्व में इस्लामी राज्य की स्थापना करना तथा विश्व में इस्लाम का अन्य मत-पंथों-मजहबों पर वर्चस्व स्थापित करना है। 

मजेदार बात यह है कि जब जिन्ना ने पाकिस्तान का राग अलापा तब  मौदूदी ने उसे 'नापाकिस्तान' करार देकर उसकी आलोचना की कि इस्लाम विश्व का मजहब है तथा इसे राष्ट्रीय सीमाओं में नहीं बांधा जा सकता। परन्तु पाकिस्तान बनने पर उन्होंने अपनी भाषा बदली वे उस मुल्क के धर्मपिता बन बैठे। उन्होंने देश में धर्मनिरपेक्षता की नई पौध जलाकर कट्टरपंथ का बीज बो दिया तथा  पाकिस्तान में उनका अपना उद्देश्य इस्लामी राज्य की स्थापना बताया। यह भी कहा कि पाकिस्तान का राजनीतिक विकास मजहबी नेताओं द्वारा संचालित होना चाहिए। 

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1947 में  देश के विभाजन  के बाद जमात-ए-इस्लामी कई टुकड़ों में बंट गयी। भारत, पाकिस्तान, बंगलादेश, श्रीलंका आदि में इसकी स्वतंत्र ईकाइयां स्थापित हुईं। इनमें जमात-ए-इस्लामी-पाकिस्तान शक्तिशाली संगठन  के रूप में उभरी। वह कभी चुनाव नहीं जीती मगर  देश की विचारधारा  पर उसका जबरदस्त असर है जो लगातार बढ़ता रहा है। 
पाकिस्तान के कायदे आजम जिन्ना के जीवनकाल ही में पाकिस्तान में राज्य-व्यवस्था में इस्लाम की भूमिका पर बहस शुरू हो गयी थी। पाकिस्तान के पिता कहे जानेवाले जिन्ना मुस्लिम बहुल  पाकिस्तान के समर्थक थे मगर धार्मिक उग्रवादी नहीं थे। 

उन्हें पाकिस्तान के धर्मपिता यानी जमात-ए-इस्लामी के संस्थापक मौलाना मौदूदी ने चुनौती दी जो पाकिस्तान में इस्लामी व्यवस्था कायम करना चाहते थे। मौलाना मौदूदी कहते थे जिन्ना ने भारत के मुसलमानों का जितना नुकसान किया, किसी ने नहीं किया जो पाकिस्तान में रहे, वे अमेरिकी ईसाइयों की कठपुतली बन गए और जो हिंदुस्तान में रह गए, उनकी हैसियत काफि़रों के राज में ''भेड़-बकरी की-सी बन गई'' 1950 में ही मौलाना मौदूदी ने खुल कर संविधान-सभा के ख़िलाफ़ मोर्चा खोल दिया था यह कहा था उसमें सब ‘नाक़ाबिल’ लोग घुस गये हैं, जो इसलामी संविधान बना ही नहीं सकते। 

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जिन्ना के बारे में तो कहना था कि उन्हें तो इस्लाम के बारे में कतरा तक पता नहीं है। आखिरकार यह संविधान सभा भंग करनी पड़ी.इस तरह इस्लामी कट्टरतावाद को मुख्य मुद्दा बनाकर उन्होंने  इस्लामी कट्टरपंथ का बीज बो दिया। 

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हर मसले पर उन्होंने इस्लाम का मजहबी नजरिया ही अपनाया ।इस्लाम के हिसाब से मोहम्मद पैगंबर को आखिरी पैगंबर न माननेवाला मुसलमान नहीं हो सकता। इसलिए मौदूदी की जमात ने 1953 में अहमदिया मुसलमानों के खिलाफ अभियान छेड़ दिया, जिसमें लगभग 2000 अहमदिया मुसलमान मारे गए। 
पंजाब में मार्शल लॉ लगा तथा गुलाम मोहम्मद के मंत्रिमण्डल को इस्तीफा देना पड़ा। मौलाना मौदूदी ने अहमदियाओं की समस्या पर इतना बवाल किया  कि अदालत ने उन्हें मौत की सजा सुना दी।  

हालांकि यह सजा उन्हें नहीं मिल पाई लेकिन इस बारे में जस्टिस मुनीर  रिपोर्ट ने साफ कहा कि अगर देवबंदियों की हुकूमत होगी तो सारे बरेलवी काफिर हो जाएंगे।  संप्रदाय के मुताबिक, मुसलमान की परिभाषा बदल जाएगी। उन्होंने चेताया कि अगर पाकिस्तान की हूकूमत ऐसी ओछी हरकतों में उलझी रही तो अनर्थ होगा।

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लेकिन पाकिस्तान के हुक्मरानों ने इस चेतावनी पर कोई ध्यान नहीं दिया. पाकिस्तान जैसे इस्लामी देश में तो अहमदियाओं के साथ भेदभाव सारी हदें पार कर चुका है। वहां 40 लाख अहमदिया रहते हैं लेकिन 1978 में पाकिस्तान की संसद ने प्रस्ताव पारित कर घोषणा की कि अहमदिया गैर मुस्लिम हैं। और देश के संविधान में संशोधन कर कहा गया कि मुस्लिम केवल वही है जो मोहम्मद को अंतिम पैगंबर मानता है। 

1984 में जनरल जिया ने गैर मुस्लिम गतिविधियों को रोकने के नाम पर अध्यादेश जारी किया जिससे अहमदियों के स्वयं को मुस्लिम कहलाने पर रोक लगाई गई। ना ही वे अपने पूजा स्थलों को मस्जिद कह सकते हैं, न ही सार्वजनिक तौर पर अपने धर्म का प्रसार कर सकते हैं, न ही गैर अहमदी मस्जिदों में नमाज पढ़ सकते हैं, न ही अपनी धार्मिक सामग्री प्रकाशित कर सकते हैं। पाकिस्तान में इस अहमदिया विरोधी माहौल के कारण ही देश भर में अहमदियाओं पर हमले होने और उन्हें परेशान किए जाने की खबरें आती रहीं। 
सेकुलर समझे जाने वाले जुल्फिकार अली भुट्टो ने सत्ता की खातिर घुटने टेके और मुल्लाओं की बन आई। जनरल जियाउल हक ने चिनगारी को अंगारा बनाया और अब शोले भड़क रहे हैं।

पाकिस्तान के गॉडफादर और जमात-ए-इस्लामी के संस्थापक मौलाना मौदूदी ने पाकिस्तान के पिता जिन्ना को जल्दी ही हाशिए पर डाल दिया। वहां मजहबी नेताओं का प्रभाव बढ़ा। उन्होंने एक सच्चे मुसलमान का विचार सामने रखा जिसमें कहा कि सिर्फ मुसलमान होने से कोई मुसलमान नहीं हो जाता, उसे इस्लामिक कानूनों और नियमों का भी अक्षरश: पालन करना चाहिए। 

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मौलाना मौदूदी के इसी विचार का विस्तार आम जन मानस में “पाकिस्तान का मतलब क्या? ला इलाह लिलल्लाह” के रूप में घर कर गया।इस बात पर जोर दिया जाने लगा कि इस्लामी तरीके से बादत ही नहीं देश में इस्लामी व्यवस्था लागू होना भी बेहद जरूरी है। उनके नेतृत्व में जनवरी 1951 में पाकिस्तान के प्रमुख संप्रदायों के 31 उलेमा एकत्रित हुए। उनके सम्मेलन ने एक राय से इस्लाम की 22 सिद्धात तय करके सरकार को भेजे।

उनमें कुछ प्रमुख इस प्रकार हैं।
1) देश और कानून में अल्लाह संप्रभु होगा।देश का कानून कुरान और सुन्नाह पर आधारित होगा। 
2) सरकार उनके खिलाफ किसी भी तरह कानून नहीं बना सकती।
3) दुनिया के सभी मुस्लिमों एकता और भाईचारे को सजबूतला बनाना सरकार के लिए बंधनकारक होगा। देश का प्रमुख कोई मुस्लिम पुरूष ही होगा।संविधान की कोई ऐसी व्याथ्या नहीं की जा सकती जो कुरान और सुन्नाह के विरूद्ध हो।

पाकिस्तान के पहले संविधान में यानी 1956में कुछ निर्देशों को शामिल किया गया था। देश के नाम में इस्लामिक शब्द जोड़ा गया था। यह संविधान दो बार यानी 1962 और 1973  में बदला गया। 

1973 के संविधान में प्रावधान किया गया था कि इस्लाम राजधर्म होगा। कुरान और सुन्नाह से सुसंगत होने की शर्त्त तो हर संविधान में थी।1998 में नवाज शरीफ ने प्रधानमंत्री बनने के बाद घोषणा की थी अब इस्लाम यानी कुरान और सुन्ना आदि धर्मग्रंथ देश का सबसे बड़ा कानून होंगे। पाकिस्तान का पूरीतरह से इस्लामीकरण किया जाएगा और उसके लिए संविधान में संशोधन किया जाएगा।

इस घोषणा से मौलाना मौदूदी के प्रयत्न फलीभूत हुए। जमात ने पाकिस्तान में इस्लामी राज की स्थापना करने का समर्थन  तथा पश्चिमीकरण का विरोध किया। उनकी संस्था जमात ने 'शरीयत बिल' के लिए आंदोलन किया । 

पाकिस्तान पर 1976 से एक दशक तक लोहे की-सी तानाशाही पकड़ से हुकूमत करने वाले और मौदूदी के चेले जनरल जिया उल ह़क ने उदारवादियों को एक सीधे-सादे सवाल से निरुत्तर कर दिया था— अगर पाकिस्तान की स्थापना इस्लाम के लिए नहीं की गयी थी, तो वह फिर क्या था,मह़ज दूसरे दर्जे का हिन्दुस्तान? इसके बाद जिया ने शरियत के कानूनों को स़ख्ती से लागू करके,  शासन को ‘नि़जामे-मुस्त़फा’ में बदलने की कोशिश की थी। 

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लेकिन संविधान का इस्लामीकरण जिया से पहले ही हो चुका था और जिया की विरासत को पलटने के प्रयास सफल नहीं हुए, क्योंकि धार्मिक कट्टरपंथ का रेशा पाकिस्तान की सोच में मौजूद है। पाकिस्तान को तालिबान-नुमा इस्लामी अमीरात बनाने की कोशिशें किसी-न-किसी रूप में, ते़ज या धीमी ऱफ्तार से जारी हैं। 
मौदूदी ने कई किताबे लिखी मगर लोगों का ध्यान 1927 में प्रकाशित उनकी पुस्तक अल जिहाद फिल इस्लाम यानी इस्लाम में जिहाद के कारण आकर्षित हुआ। तब वे सिर्फ 24वर्ष के थे। वे जिहाद के बारे में लिखते हैं –गैर इस्लामी शासन पद्धति को खत्म कर इस्लामी शासन लाना ही जिहाद है।

इस्लाम ऐसी क्रांति को दुनिया के हर देश में लाना चाहता है।ऐसी क्रांति की सहायता करना हर मुस्लिम का धार्मिक कर्तव्य है। मौलाना मौदूदी ही थे जिन्होंने मुजाहिद (इस्लाम के लड़ाकों) का विचार पुनर्जीवित किया और पाकिस्तान में मुसलमानों को दीन के लिए मुजाहिद होने का पैगाम दिया।यह जिहाद करने के लिए पाकिस्तान में आतंकवादी संगठनों की बाढ़ आई हुई है।यही वह जमीन थी जिस पर आगे चलकर पाकिस्तान के हुक्मरानों ने तालिबान और अफगान मुजाहिदीन,लश्कर ए तौयबा,जैश –ए-मोहम्मद की फसल तैयार की।

 शिया समुदाय से संबंध रखनेवाले भुट्टो हों या कि कट्टरपंथी सुन्नी संप्रदाय से ताल्लुक रखनेवाले जिया उल हक। मौलाना मौदूदी ने इसके लिए जमीन तैयार कर दी थी । इसके बाद पाकिस्तान में आतंकवाद ही राष्ट्रीय विचारधारा हो गयी । जनरल जिया उल हक के बाद चाहे वो बेवजीर भुट्टो आयीं हों या फिर नवाज शरीफ। आतंकवाद की राष्ट्रीय नीति से किसी ने छेड़छाड़ नहीं की क्योंकि इसे वहां की सेना का संरक्षण हासिल हो चुका था।

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इस तरह जिन्ना का पाकिस्तान मौदूदी का पाकिस्तान बन गया जिसके खून में  कट्टर इस्लामवाद और जिहादी मानसिकता हिलोरे मार रही है।उग्रवाद आज इतना मगरूर हो गया है कि  जजों की हत्या करने की धमकी दे रहा है। आर्मी चीफ कमर जावेद बाजवा के खिलाफ बगावत करने व अपशब्दों का इस्तेमाल कर रहा हैं, सेना के खिलाफ बगावत के लिए भी लोगों को उकसा रहा हैं। 

सतीश पेडनेकर

(लेखक वरिष्ठ  पत्रकार और स्तंभकार हैं। वह अपनी बेबाक लेखनी के लिए जाने जाते हैं)

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