नई दिल्ली: कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी का यह कहना कि हम 52 लोग भाजपा से लड़ने के लिए काफी हैं और हम इंच-इंच लड़ेंगे का सीधा मतलब यही है कि कांग्रेस नरेन्द्र मोदी सरकार से केवल टकराव की रणनीति अपनाएगी। 
संसद का टकराव केवल वहीं तक सीमित नहीं रहती, उसका असर देश के पूरे राजनीतिक वातावरण पर पड़ता है। कांग्रेस 16वीं लोकसभा के कार्यकाल में पहले एक वर्ष को छोड़ दें तो लगातार सरकार से मोर्चाबंदी करती रही। इससे उसे कोई राजनीतिक लाभ नहीं हुआ। इसके बावजूद यदि वह उससे ज्यादा तीखी लड़ाई की रणनीति अपना रही है तो फिर इसके उल्टे परिणाम होंगे।
 
संघर्ष के लिए राहुल गांधी ने जिस सिद्धांत को आधार बनाया वह कहीं ज्यादा चिंताजनक है। उन्होंने मोदी सरकार को ब्रिटिश सरकार साबित कर दिया। वस्तुतः इस आपत्तिजनक विशेषण के लिए शब्द तलाशना मुश्किल है। उनसे यह तो पूछा ही जा सकता है कि भारत के मतदाताओं द्वारा संवैधानिक प्रक्रिया के तहत निर्वाचित किसी सरकार को आप ब्रिटिश सरकार कैसे कह सकते हैं? 

क्या नरेन्द्र मोदी सरकार ने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की तरह बाहर से आकर देश पर कब्जा करके हमें गुलाम बनाया है? अगर ऐसी गुलामी होती तो सोनिया गांधी और राहुल गांधी संसदीय सौंध में न अपने संसदीय दल की बैठक कर पाते और न ही वे इतने आक्रामक ढंग से सरकार के खिलाफ बोलते। 

राहुल गांधी कह रहे हैं कि संविधान की, संस्थाओं की रक्षा के लिए हमें लड़ना है। यही बात वे पूरे चुनाव अभियान में बोलते रहे। अब उनका कहना है कि हमें पहले से ज्यादा आक्रामक होना है तथा जोर से बोलना है। यानी हमने पहले उतना जोर से नहीं बोला इसलिए पराजय हो गई। 

वे कहते हैं कि जिस ढंग से ब्रिटिश काल में हमें किसी संस्था से कोई मदद नहीं मिली फिर भी हम जीते उसी तरह हमें किसी संस्था की मदद नहीं मिलेगी लेकिन हम जीतेंगे। कांग्रेस जैसी आज भी राष्ट्रीय स्तर पर दूसरी सबसे बड़ी पार्टी नेतृत्व की यह सोच साफ कर रही है कि वह पूरी तरह दिशाभ्रम का शिकार है और आने वाले समय में उसकी भूमिका सकारात्मक विपक्ष की नहीं होगी।
 
राहुल गांधी ने स्वयं चुनाव परिणाम के बाद कहा था कि उनकी पार्टी सकारात्मक विपक्ष की भूमिका निभाएगी। उससे एक उम्मीद बंधी थी कि कांग्रेस जनता द्वारा नकारे जाने के बाद अपने विचार और व्यवहार में शायद परिवर्तन करने के लिए तैयार हो रही है। 

प्रश्न है कि आठ दिनों में ऐसा क्या हो गया कि सोच और तेवर पूरी तरह बदल गए? शायद राहुल गांधी एवं सोनिया गांधी के रणनीतिकारों ने यह समझाया है कि अगर नरेन्द्र मोदी सरकार के प्रति विनम्र और सहयोगी रहे तो कार्यकर्ताओं और समर्थकों के बीच निराशा का संदेश जाएगा। वे मानेंगे कि कांग्रेस पराजय के आघात के नीचे दब गई है। यह समय उनको यह विश्वास दिलाने का है कि हम चुनाव जरुर हारे हैं, पर लड़ने का माद्दा नहीं खोया है। कांग्रेस के लिए कार्यकर्ताओं और समर्थकों का आत्मविश्वास बनाए रखना जरुरी है 

लेकिन एक तिलमिलाई हुई संतुलन खो चुकी पार्टी का चरित्र ग्रहण करना तो कांग्रेस को नुकसान ही पहुंचाएगा। कांग्रेस के जो विवेकशील कार्यकर्ता और समर्थक हैं वो भी कम से कम इससे सहमत नहीं होंगे कि नरेन्द्र मोदी सरकार ब्रिटिश सरकार है जिसने हमको गुलाम बना लिया है और संविधान को नष्ट कर संस्थाओं का गला दबा दिया है। तो सैद्धांतिक आधार कतई लाभकर नहीं हो सकता। 

दूसरे, राजनीतिक पार्टी को माहौल देखकर सधे तरीके से रणनीति बनानी चाहिए। बयान तो बिल्कुल ऐसा सधा देने की जरुरत होती है जिसकी प्रतिकूल प्रतिक्रिया नहीं हो। चुनाव परिणामों से साफ है कि देश के बड़े भाग में नरेन्द्र मोदी समर्थन की लहर है। इस समय विदेशी सरकार कहकर पहले से ज्यादा आक्रामक और टकराव के आह्वान की देश भर में उल्टी प्रतिक्रिया हो रही है। 

यह भी नहीं भूलना चाहिए कि लड़ने की एक सीमा होती है। कोई राजनीतिक दल सतत लड़ते हुए नहीं रह सकता। आक्रामक होने तथा सरकार पर जोर-जोर से बोलकर हमला करने की एक सीमा होगी। इसमें आप थक जाएंगे और पार्टी को संगठित करने, खोए समर्थन आधार पाने के लिए काम करने की शक्ति और समय नहीं बचेगा। उल्टे ऐसे व्यवहार से मोदी और भाजपा के समर्थक ज्यादा संगठित होंगे। कांग्रेस के लिए यह रणनीति आत्मविनाशक साबित होगी। 

कांग्रेस अगर आत्मविनाश करने पर तुली है तो हम आप कुछ नहीं कर सकते। कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक के अंदर से जितनी खबर आई थी उसके अनुसार राहुल ने कई नेताओं को गुस्से का निशाना बनाया। तीन राज्यों के मुख्यमंत्रियों सहित कई राज्यों के अध्यक्षों द्वारा दिए गए गलत फीडबैक पर उन्होंने प्रश्न किया। यहां तक कहा कि कुछ बड़े नेताओं ने अपने बेटे को टिकट देने का दबाव बनाया और अपना ज्यादा समय उसे जिताने के लिए लगाया। उनका सीधा इशारा, कमलनाथ, अशोक गहलोत और पी.चिदम्बरम की ओर था। अगर राहुल गांधी को अपनी पार्टी नेताओं के चरित्र का पहले से पता नहीं था तो यही माना जाएगा कि वे कांग्रेस के अध्यक्ष है ही नहीं। प्रियंका वाड्रा ने बैठक में कह दिया कि कांग्रेस के हत्यारे इसी कमरे में बैठे हैं। राहुल और प्रियंका यह क्यों नहीं सोचते कि जनता ने उनकी अपील और आक्रामकता को क्यों नकार दिया? 


बहरहाल, कांग्रेस अध्यक्ष के पद से राहुल गांधी ने इस्तीफा देने का प्रस्ताव दिया जिसे कांग्रेस कार्यसमिति ने अस्वीकार किया, पर वे अड़े रहे। पता नहीं उनके मन में अभी क्या है? 

इसी बीच सोनिया गांधी का पत्र सार्वजनिक हुआ जिसमें उन्होंने राहुल गांधी के नेतृत्व की प्रशंसा करते हुए कहा कि वे निडरतापूर्वक लड़े हैं। कठिन समय में अच्छा नेतृत्व दिया पार्टी को। साफ है कि यह पत्र रणनीति के तहत लिखा गया। आखिर एक मां को अपने बेटे के लिए सार्वजनिक रुप से पत्र लिखने की क्या जरुरत हो सकती है? 

खबर यह दी जा रही थी कि राहुल इस्तीफे पर अड़ गए हैं। उन्होंने पार्टी के लोकसभा का नेता होने का मन बनाया है लेकिन अध्यक्ष रहने का नहीं। पार्टी दुर्दशा का शिकार हुई है तो उसकी मूल जिम्मेवारी अध्यक्ष के नाते राहुल के सिर ही आती है। सारी रणनीतिंयां उनके नेतृत्व में बनी। 

चौकीदार चोर है नारा बनाया चाहे जिसने हो, लेकिन आरंभ उन्होंने ही किया। घोषणा पत्र में देशद्रोह कानून खत्म करन से लेकर अफस्पा के महत्वपूर्ण  प्रावधान हटाने, जम्मू कश्मीर में इसकी समीक्षा करने तथा वहां सुरक्षा बलों की संख्या कम करने का वायदा उनकी सहमति से दिया गया था जिसने भाजपा की राष्ट्रवाद और सुरक्षा की पिच को और मजबूत कर दिया। 

संभव है राहुल अध्यक्ष भी बने रहें। सोनिया के पत्र से इसका आधार भी बन गया है। वैसे राहुल अध्यक्ष रहे या कोई और कांग्रेस उस स्थिति में नहीं कि परिवार के नियंत्रण से बाहर जाए। आखिर सोनिया गांधी को संसदीय दल का अध्यक्ष बना ही दिया गया। पार्टी का नेतृत्व परिवार के ही ईर्द-गिर्द रहेगा तो नई दिशा से कुछ हो पाना संभव भी नहीं है चाहे जितनी कवायद की जाए।  

 इन सब घटनाओं को एक साथ मिलाकर देखें तो कई साफ निष्कर्ष सामने आता है। 
एक, राहुल गांधी अमेठी में अपनी पराजय के आघात से उबर नहीं पा रहे हैं। 
दो, कांग्रेस अभी तक यह समझ नहीं पा रही है कि केरल और पंजाब को छोड़कर देश भर में उसकी इतनी बुरी पराजय क्यों हुई? 
तीन, जिस मोदी और भाजपा को वे लोकप्रिय मान चुके थे उसे इतना बड़ा बहुमत कहां से प्राप्त हो गया? 
चार, राहुल और प्रियंका की अपीलों और आक्रामकताओं का असर क्यों नहीं हुआ? पांच,उसके साथ सहयोगी दलों को भी जनता ने क्यों नकार दिया? 

और सबसे बढ़कर उन्हें इस प्रश्न का उत्तर नहीं मिल रहा कि आखिर राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस का दुर्दिन खत्म क्यों नहीं हो रहा? यह ऐसा प्रश्न है जिसका उत्तर मिलना तभी संभव होगा जब सोनिया गांधी, राहुल गांधी और उनकी सलहाकार मंडली भी सामने दिखते सच को देख सके। जब आप नहीं देखते तो यह समझ नहीं पाते कि आगे क्या करना है। इसी मानसिक अवस्था में आप देश की सरकार को औपनिवेशिक सरकार कहकर सांसदों-नेताओं का लगातार लड़ने का आह्वान करते हैं ताकि लगे कि उनका नेता वाकई हार मानने वाला नहीं है। 

जाहिर है, इस रास्ते कांग्रेस केवल अपना नुकसान करेंगी और चूंकि भाजपा के बाद वही एकमात्र राष्ट्रीय पार्टी है, इसलिए लोकतंत्र भी इससे बुरी तरह प्रभावित होगा। काश, कांग्रेस को सुबुद्धि आए, वह अपनी नीति-रीति और नेतृत्व की भूलों को समझकर पार्टी के व्यापक आंतरिक सुधार की दिशा में आगे बढ़े और आत्मविनाश से स्वयं को बचा सके। इस समय की अवस्था देखते हुए तो लगता नहीं कि कांग्रेस को सुबुद्धि मिलने वाली है। 

अवधेश कुमार
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और विश्लेषक हैं)