अभी कुछ दिन पहले ऐसे ही बातों- बातों में चर्चा होने लगी तो एक मित्र ने बहुत व्यथित होकर पूछा कि यार गौकशी कैसे रुके? कानून बनाकर माना कि बहुत हद तक लगाम लगाई गई है पर फिर भी गौहत्याएं होती हैं और गाय काटने वाले, उनके बेशर्म प्रवृति के समर्थक, लिबरल और बुद्धिजीवी लोग तथा कुछ नास्तिक पर अपनी किताब बेचने को लालायित लेखकगण आवारा गायों और बछड़ो का प्रश्न उठाकर गौहत्या विरोधियों को दोगला, रूढ़िवादी, गंवार, आतंकी, मानवता के दुश्मन, धर्म के ठेकेदार, गुंडे और पता नहीं क्या-क्या कह कर हमें अपराधबोध से भर देते हैं.

निःसन्देह गौहत्या के पीछे कहीं न कहीं से हमारे यानी हम हिंदुओं के नकारेपन का बहुत बड़ा हाथ है. जब देश आज़ाद हुआ तो हमारे प्रधानमंत्री पण्डित नेहरू ने कहा था कि अगर हम गाय की रक्षा करेंगे तो देश बीसवीं से 15 वीं शताब्दी में चला जायेगा. ख़ैर नेहरू जी महान शख़्सियत थे और उनकी बाकी की दूरदर्शी नीतियों को देश आज भुगत ही रहा है सो आईये विषय पर चलते हैं.

गौहत्या रुक सकती है और उसके उपाय भी हैं लेकिन उपायों की चर्चा करने से पहले आईये कुछ आंकड़े देखते हैं.

सन् 2014-16 में भारत में दुग्ध उत्पादन की वृद्धि दर 6.28% रही है जो कि पिछले वर्ष की वृद्धि दर 4% से 2.28% और विश्व दुग्ध उत्पादन दर 2.2% से तीन गुना ज्यादा है.

हम जानते हैं क़ि दुग्ध उत्पादन में वृद्धि का सबसे सीधा असर ग्रामीण क्षेत्र के छोटे पशुपालकों की आय पर पड़ता है. उसकी आय में हुई यह वृद्धि पशुपालन को उसके लिए बोझ के बजाय कृषि में सहयोगी और कृषि के अतिरिक्त आय का एक अलग स्त्रोत बनाता है.

भारत में करीब 70 लाख छोटे और सीमांत ग्रामीण पशुपालक दुग्धउत्पादन में लगे हुए हैं और ये छोटे, मध्यम वर्गीय किसान अथवा भूमिहीन मजदूर वर्ग के लोग प्रतिदिन 1 से 3 लीटर तक दूध उत्पादित करते हैं और यही पूरे देश के उत्पादित दूध का सबसे बड़ा हिस्सा होता है.

मजे की बात यह है कि भारत के लगभग 78% किसान जो छोटे और सीमांत कृषक वर्ग में आते हैं वे देश की पशुधन आबादी का 75 % पालन करते हैं किंतु इस आबादी के लिए भूमि की उपलब्धता केवल 40% ही है. और अगर किसी ग्रामीण पशुपालक किसान की आय देखी जाय तो लगभग एक तिहाई हिस्सा उसमें दूध से आता है और अगर व्यक्ति भूमिहीन है तो फिर आधी आय दूध पर निर्भर रहती है.

भारत सन् 1998 से ही विश्व में दुग्ध उत्पादन में प्रथम है. हमारे पास पशुधन भी सबसे ज्यादा है, विश्व के सर्वाधिक यानी करीब 18.4% दुधारू पशु हमारे पास हैं.

1970 में हमारा सकल दुग्ध उत्पादन 22 मिलियन टन था जो अब सन् 2015-16 में 156 मिलियन टन है यानी हमने पिछले 46 सालों में 700 प्रतिशत की बढ़त हासिल की जिसके परिणामस्वरूप आज भारत में प्रतिव्यक्ति दूध की उपलब्धता 337 ग्राम प्रतिदिन है जो कि पूरे विश्व के प्रतिव्यक्ति दूध की उपलब्धता 229 ग्राम प्रतिदिन से ज्यादा है तो वहीं यदि भारत के कुछ राज्यों के आंकड़े देखें तो यही 337 ग्राम प्रतिव्यक्ति 700 से 900 ग्राम या उससे भी ज्यादा हो जाता है. 
 भारत द्वारा कुल उत्पादित दूध में गाय के दूध की भागीदारी लगभग 40-45 % है शेष 55 % में भैंस और 5% में अन्य पशु यानी बकरी, भेंड़, ऊँट, याक आदि आ जाते हैं.

क्या आप जानते हैं कि यदि दूध उत्पादक किसानों को सहकारी समितियों से जोड़ दिया जाय तो  गौहत्या क्या भैंस की भी हत्या रुक जाएगी और दूध की ये बढ़ी हुई कीमतें भी काबू में आ जाएंगी।  
दरअसल देखा-देखी पुण्य और देखा-देखी पाप की मानसिकता की वजह से हमने एक भयंकर भूल की है. आज़ादी के बाद जब दुग्ध उत्पादन बढ़ाने के लिए तमाम कार्यक्रम चलाये गए और श्वेत क्रांति हुई तो उसी दौर में मशीनीकरण भी तेजी से हुआ हर क्षेत्र में, कृषि इससे बाहर न रह सकी और ट्रैक्टरों के रूप में मशीन ने हल-बैल खेतों से बाहर करने शुरू कर दिए.

और उस समय हमने दूध उत्पादन बढ़ाने के लिए विदेशी नस्ल की गायों को वरीयता देनी शुरू कर दी, अधिकतर ब्रीडिंग और डेवलपमेंट प्रोग्राम एग्जॉटिक ब्रीड कैटल को लक्ष्य करके होते थे कि कैसे उन नस्लों को भारत जैसे गर्म जलवायु के देश में बसाया जाय और इस क्रम में हमने अपनी खुद की लगभग 39 भारतीय नस्लों को भुला दिया और स्थिति ये है कि अगर आज शुद्ध भारतीय नस्ल की गाय की जरुरत हो तो लाले पड़ जाते हैं.

अधिकतर गाएँ क्रॉस ब्रीडिंग की शिकार हो नॉन डिस्क्रिप्ट की श्रेणी में आ गयी हैं जिनकी कोई नस्ल ही नहीं है. इसमें गलती आम लोगों के साथ सरकारी योजनाओं और शोध संस्थानो की भी थी.

आज के समय में A1 और A2 श्रेणी के दूध को लेकर जो बहस चल रही है उसमें हमारी देसी नस्ल की गाएँ सरर्वोत्तम A2 किस्म के दूध के उत्पादन की वजह से वरीयता क्रम में हैं. 
साथ ही अगर देसी नस्लों के पालन की बात हो तो मूलतः इसी जलवायु की होने के कारण उनका प्रतिरोधी तंत्र बहुत अच्छा होता है, उन्हें भारत की गर्मी से ज्यादा परेशानी नहीं होती, प्रबंधन और दवाओं का खर्च कम होता है। 
 एक विदेशी नस्ल की गाय की तुलना में और तो 100% शुद्ध विदेशी नस्ल का पालन सम्भव भी तो नहीं भारतीय जलवायु में, जो गाएँ आती हैं वह अधिकतम 85-90 % ही शुद्ध होती हैं शेष 10% भारतीय सीमन की मिलावट होती है.

आज के समय में देसी नस्ल की गायों की उपयोगिता देखते हुए National Bovine Breeding and Dairy Development Programme (NPBBDD) शुरू किया गया. सन् 2014-15 में प्रारम्भ हुई इस योजना का मुख्य लक्ष्य था दूध की बढ़ती माँग को पूरी करने के लिए एक वैज्ञानिक और कॉम्प्रिहेंसिव मॉड्यूल तैयार करना.

इस योजना के दो भाग हैं – पहला National Bovine Breeding programme (NPBB) जो कि केंद्रित है कृत्रिम गर्भाधान को सुदूर भारत में पहुँचाने और इससे होने वाले गर्भाधारण का अनुपात बढ़ाने, भारतीय नस्ल की गायों के प्राकृतिक ब्रीडिंग क्षेत्रों के सरंक्षण, भारतीय नस्लों के सरंक्षण के साथ विकास को लेकर चल रही अन्य योजनाओं की निगरानी, उन्हें निर्देशन के साथ उनके क्रियान्वयन के लिए और दूसरा National Dairy Development Programme (NPDD), जिसका लक्ष्य है छोटी-छोटी डेयरियों, सहकारी समितियों, मिल्क यूनियन्स/फेडरेशन्स की स्थापना करना, उन्हें इंफ्रॉस्ट्रक्चर उपलब्ध कराना और जो पुरानी छोटी डेयरियां, मिल्क यूनियन्स/फेडरेशन्स, कोऑपरेटिव्स हैं उन्हें दूध के उत्पादन, प्रोसेसिंग, प्रिक्योरमेंट और मार्केटिंग से जुड़ी सहायताएं, नियम और जानकारियाँ प्रदान कर शक्तिशाली बनाना साथ ही आम किसानों, पशुपालकों और डेयरी किसानों को नई जानकारियां उपलब्ध कराने के लिए विजिट्स, ट्रेनिंग और एक्सटेंशन लर्निंग प्रोग्राम चलाना। 
युवा उद्यमियों को आकर्षित करने के लिए और इंटरनेट से जुड़े डेयरी फॉर्मर्स, पशुपालकों को त्वरित जानकारी देने के लिए नेशनल डेयरी डेवलपमेंट बोर्ड ने डिजिटल क्रांति का उपयोग करते हुए गूगल प्ले स्टोर पर उपलब्ध कई एप्लिकेशन भी बनाये हैं जो सामान्य स्वास्थ्य, संतुलित आहार, सामान्य प्रबंधन, मिल्क मार्केटिंग आदि से जुड़ी बहुत ही सटीक और महत्वपूर्ण जानकारियाँ उपलब्ध कराते हैं.

और इन सबका एक मात्र लक्ष्य है व्यक्तिगत तौर पर पशुपालन और गौपालन के साथ छोटे-छोटे डेयरी फॉर्म्स को बढ़ावा देना क्योंकि छोटे-छोटे डेयरी फॉर्म्स एक ऑर्गनाइज़्ड डेयरी फॉर्म की तुलना में ज्यादा रोजगार देने वाले होते हैं.

छोटे पशुपालकों को और डेयरी फॉर्म्स को कोऑपरेटिव सिस्टम से जोड़कर जितने लोगों को रोजगार और नौकरियाँ उपलब्ध कराई जा सकती हैं वह अपने आप में एक रिकॉर्ड है. विश्वास न हो तो AMUL को देखिए।  आनन्द मिल्क यूनियन लिमिटेड की खुद की एक भी गाय नहीं है पर पूरे एशिया का सबसे बड़ा प्लांट अमूल का है और पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा दूध की हैंडलिंग की क्षमता अमूल के पास है.

आज के वक्त में गोचर भूमि की कमी के कारण गौपालन की सबसे बड़ी समस्या हैं आवारा बछड़े और गाएँ; शहरों में गाय पालने वाले अक्सर जगह की कमी के कारण केवल शाम और सुबह में गाय दुह कर उसे बाजार में छोड़ देते हैं और वह गाय भटकती हैं सब्जी की दुकानों पर सब्जी की छीलन, पत्ते और डंठल के लिए, अन्य दरवाजों पर रोटी और अन्य खाद्य पदार्थों की आस में! और दिनभर के इस पेट भरने के उपक्रम में जगह-जगह उसे लाठियाँ पड़ जाती हैं, दुत्कारी और भगाई जाती है। 
कई बार बहुत सी आवारा गाएँ ऐसे ही कहीं चोट ख़ाकर या आपस की लड़ाई में घायल हो, या बीमार हो पड़ी रहती हैं असह्य दर्द में और धीरे-धीरे मृत्यु के आगोश में चली जाती हैं.

वहीं बड़े-बड़े डेयरी फॉर्म्स अनुत्पादक, गम्भीर बीमारी की शिकार, इंफेक्शन जैसे की यूट्रस एडिजन, ओवरी सिस्ट, सर्विक्स इंफेक्शन, फाईब्रस गाएँ, बार-बार थनैला रोग यानी मैस्टैटिस की शिकार गायों की कलिंग यानी छँटाई करते हैं. इस छँटाई में गाएँ बाहरी किसानों को बेची जाती हैं, किसानों को केवल गाय दिखाकर उसके प्रतिदिन के औसत दूध की जानकारी दी जाती है और बाकी बीमारियाँ और इंफेक्शन की बातें छुपा लेते हैं और इस दौरान यदि गाय किसान को पसन्द आ गयी और वह खरीद गया तो ठीक। 
 कई बार individual rearing यानी व्यक्तिगत पालन बहुत बीमार और खराब गायों को भी सुधार देता है सो आशा होती है कि वह गाय ठीक हो जाएगी।  पर यदि गाय नहीं बिकी तो या तो वह मर जाती है या फिर आने-पौने दामों पर पशु – तस्कर पर्दे के पीछे से रहकर उन गायों को खरीदते हैं और वह अवैध कत्लखानों में जाती हैं.

अब बात गाय के बछड़ों की, गाय के बछड़े को लोग छोड़ देते हैं साँड़ के रूप में. चलो अपनी जान छुड़ा ली पर अब पुराना वक्त रहा नहीं कि जंगल और जमीन की बहुतायत हो सो ये साँड़ मजबूर हो बाजारों में फिरते हैं, सब्जी या फलों की दुकानों पर मुँह मारते हैं, गाँवो में किसी के खेतों में घुस उसका नुकसान करते हैं और बदले में आदमी आजिज़ आकर गरम खौलता पानी, तेज़ाब फेंक देता है, लोहे की रॉड और कटीले तारों से मारते हैं, कई बार साँड़ सड़कों पर गाड़ियों से टकरा कर भीषण दुर्घटनाओं के कारण और शिकार दोनों बनते हैं तो वहीं तेजाब और गर्म पानी फेंके जाने पर गहरे-गहरे घाव हो जाते हैं और जिसके इलाज़ के अभाव में पहले तो घाव सड़ता है और फिर धीरे-धीरे वह अल्सर से गैंग्रीन में बदल जाता है और कुछ दिनों बाद उसकी मृत्यु हो जाती है.

अवांछित बछड़ों का वर्तमान परिप्रेक्ष्य में केवल एक उपाय समझ आता है और वह यह कि हम निषेचित वीर्य यानी sexed semen/ sex sorted semen/ sexed (gender selected) semen का प्रयोग करें. इसका सबसे बड़ा फायदा तो यह होगा कि जन्म लेने वाली सन्तान के बछिया होने की निश्चितता 90% होती है जो कि आवारा साँड़ों का सबसे कारगर उपाय है और साथ ही यह Genetic performance को सुधारने में बहुत उपयोगी है क्योंकि आनुवंशिक कारण सर्वाधिक उत्तरदायी होते हैं आगे आने वाली नस्लों के गुणधर्म के लिए.

आईये पहले समझते हैं कि यह है क्या चीज –
सीमेन की सॉर्टिंग के लिए (sperm cells) को एक लेज़र बीम से गुजारते हैं या फिर स्पर्म्स की रंगाई (staining) की जाती है DNA-binding fluorescent dye से.

Sex sorting technology का विकास USDA (United States Department of Agriculture) के शोधार्थियों ने लिवरमोर, कैलिफोर्निया (Livermore, California) और बेल्ट्सविले, मैरीलैंड (Beltsville, Maryland) में किया और इसका पेटेंट कराया “Beltsville Sperm sexing technology” के नाम से.

सेक्सड सीमेन के कॉमर्शियल उपयोग के लिए अमेरिका ने सन् 2001 में एक लाइसेंस यानी अनुज्ञप्ति जारी की ‘Sexing Technologies (ST), Texas’ नाम से। वर्तमान में ST कोमर्शियली sex sorted semen का सफल उतपादन यूरोप, अमेरिका, कनाडा, मैक्सिको, ब्राज़ील, चीन, जापान और कुछ अन्य देशों में कर रहा है.

पर निषेचित सीमन के प्रयोग की कुछ सीमाएँ भी हैं जैसे की इसका मूल्य। सामान्य तौर पर सबसे सस्ते सीमन की भी एक स्ट्रॉ यानी सिंगल डोज जहाँ 25-50 रुपये में मिल जाता है वहीं विदेशी नस्ल की गायों यानी होलस्टीन फ्रीजियन और जर्सी आदि के लिए विदेशी इम्पोर्टेड सीमन अधिकतम 700-800 रुपये तक उपलब्ध होता है पर यही एक निषेचित सीमन का सिंगल डोज 1250 से लेकर 2500 या 5000 रुपये तक भी हो सकता है.

साथ ही तकनीकी समस्या और कीमत ज्यादा होने के कारण अतिकुशल आर्टिफिशियल टेक्नीशियन की आवश्यकता होती है. चूँकि गर्भधारण की दर sex sorted semen में सामान्य conventional semen की तुलना में साधारणतया 10-15% कम होती है पर भारत की परिस्थितियों में यह ज्यादा हो सकती है क्योंकि यहाँ आज भी गर्भाधान कृत्रिम विधि से लगभग 20 से 25 % ही होता है और उसमें भी गर्भधारण की दर लगभग एक चौथाई या उससे थोड़ा ज्यादा है यानी लगभग 25 से 45%. इन्ही कारणों की वजह से इसका प्रयोग heifers यानी ऐसी गाएँ जिन्होंने अभी एक भी बार गर्भधारण न किया हो। 
 अर्थात् पहली ब्याँत के लिए तैयार हों उनपर प्रयोग ज्यादा सफल है या फिर बहुत ही अच्छे स्वास्थ्य की दूसरे या तीसरे गर्भ की गाय भी उपयुक्त होती है.

अब बात आती है इसकी भारत में उपलब्धता की तो वर्तमान में कोई भी भारतीय संस्था शुद्ध भारतीय नस्लों के लिए शुद्ध निषेचित सीमन नहीं बना रही है सो यह विदेशों से आयातित है. अगर भारतीय नस्ल की गायों के लिए बात की जाय तो ABS USA नाम की कम्पनी की ब्राज़ील शाखा अभी केवल ABS Brazil नाम से गीर नस्ल के लिए 100% शुद्ध गीर नस्ल का निषेचित सीमन उपलब्ध कराती है.

भारत के कई राज्य और संगठित डेयरी फॉर्म निषेचित सीमन का प्रयोग कर रहे हैं लेकिन इसके प्रयोग की अनुमति लेनी पड़ती है जिसके निम्न चरण हैं –
चूंकि यह सभी सीमन उत्पादकों के पास उपलब्ध नहीं होता सो पहले इसके प्रयोग के लिए केंद्र सरकार (DADF) और राज्य सरकार के राज्य पशु प्रबंधन विभाग (State AH department) से अनुमति लेनी होती है और इसके आयात के लिए आयात अनुमति यानी import permit Director General of Foreign Trade (DGFT) से प्राप्त करनी पड़ती है. निषेचित सीमन के प्रयोग के पूरे विवरण बनाने होते हैं और उससे हुई संतानों का भी पूरा विवरण रखना सभी उपभोक्ताओं के लिए अतिआवश्यक है.

जानते हैं भारत की पहली सेक्स सॉर्टेड बछिया के जन्म होने का रिकॉर्ड केरल के नाम है. Kerala Livestock Development Board (KLDB) ने प्रथम सेक्सड सीमेन बछिया के जन्म की सूचना Palakkad से दी है उन्होने इसके लिए निषेचित सीमन कनाडा से आयात किया जिसकी कीमत 1250 रुपये प्रति स्ट्रॉ पड़ी.

सन् 2010 में गुजरात के आनन्द में अमूल ने लगभग 43 एकड़ जमीन पर लगभग 1500 नवजात बछिया किसानों से मांगकर लाई थीं और उनकी योजना थी खुद की sexed sorting semen तकनीकी विकसित करने की. यह शायद का देश का पहला प्राईवेट कृत्रिम गर्भधान केंद्र था, उनकी योजना थी कि खुद के विकसित किये गए सेक्सड सीमन से नई वयस्क हुई गायों का गर्भाधान किया जाएगा और गर्भकाल पूरा होने पर बछिया के जन्म के बाद गाएँ किसानों को वापस कर दी जाएंगी. और अगर यह प्रयोग सफल रहा तो अगली बार लगभग 4000 गायों को निषेचित सीमन से गर्भधारण करने का लक्ष्य रखा गया किंतु इसकी वर्तमान प्रगति क्या है यह ज्ञात नहीं पर हाँ आवारा बछड़ों और गायों का यही एक सम्भव और सफल उपाय है.

और अब बारी आती है उन गायों की जो रोगी हैं, अनुत्पादक हैं ऐसी अनुत्पादक जो गर्भधारण ही नहीं कर सकतीं या फिर गर्भधारण के बाद कतिपय कारणों से दूध नहीं देतीं या फिर गैंग्रीन या किसी अन्य कारण से उनके थन बेकार हो गये हैं या बहुत बूढ़ी गाएँ हैं उनका क्या किया जाए?
 
उनकी रक्षा भी सम्भव है और वह माध्यम है गोबर गैस के साथ प्राकृतिक खेती, पंचगव्य चिकित्सा और छोटे - बड़े गौ आधारित उद्योगों का बढ़ावा।

लेखक परिचय:

संजय उपाध्याय 
लेखक शाहजहां उत्तर प्रदेश में कृभको में इंजीनियर के पद पर कार्यरत हैं। गोवंश के प्रति अपने प्रेम से प्रेरित होकर उन्होंने कामधेनु अवतरण अभियान चलाया है।  जो कि ग्राम संस्कृति पुनर्जीवन और गोवंश से संबंधित सभी आयामों पर कार्य करता है। वह कामधेनु अवतरण अभियान के सचिव के तौर पर गोसेवा का पुनीत कार्य कर रहे हैं। उनके प्रयासों से लाखों गायों की जान बची है और हजारों किसान लाभान्वित हुए हैं। लेखक ने गोवंश के संरक्षण और सेवा के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया है।