ठीक सौ साल पहले, यानि 1918 में साहित्य सम्मेलन में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने हिंदी भाषा को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए पहल की थी। गांधी जी ने हिंदी को जनमानस की भाषा भी बताया था और सौ साल बीत जाने के बाद भी, क्या हिंदी राष्ट्र और उसके जनमानस की भाषा बन पाई है? इसे विस्तार से समझने की जरूरत है। आमतौर पर यह पखवाड़ा हिंदी भाषियों के लिए खुशफहमी में रहने वाला पखवाड़ा होता है। क्योंकि सरकारी आदेश और अनुशासन में 1 सितंबर से 14 सितंबर तक भारत सरकार के विविध कार्यालयों में हिंदी को आजादी के इतने वर्षों बाद भी पखवाड़े में याद करने के विविध क्रिया-कर्म की योजनाएँ चल रहीं हैं।

इसका कारण यह है कि इस पूरे पखवाड़े में सरकारी कार्यालयों के बड़े – बड़े अंग्रेजीदा अधिकारियों को भी अपने कार्यालय के मुहाने पर हिंदी पखवाड़े का बैनर लगाना निहायत ही अनिवार्य है और नहीं लगाना हिंदी का घनघोर अपमान है। हिंदी का अपमान राष्ट्र का अपमान, क्योंकि हिंदी को संविधान की कुछ लाइनों में कुछ विशेष शर्तों के सानिध्य में राष्ट्रभाषा कह दिया गया है। अब क्यों कहा गया,किसलिए कहा गया—  इसकी अनेक व्याख्याएँ हैं और विवाद भी, लिहाजा विवादों से बचना चाहिए और इसकी कुछ चिंताओं को स्पष्ट किया जाना चाहिए।

चिंता इस बात की नहीं होनी चाहिए कि हिंदी का क्या होगा या क्या हो रहा है, बल्कि चिंता इस बात की होनी चाहिए कि अंग्रेजी पढ़ने, अंग्रेजी जीने, अंग्रेजी ओढ़ने-बिछाने वाले उन सभ्य और आधुनिक सुसंस्कृत अधिकारियों पर क्या बीत रहा होगा, जिन्हें अपने प्यून, माली, ड्राइवर, गेटकीपर, सफाईकर्मी आदि की भाषा के लिए इतनी जद्दोजहद करना पड़ रहा है, जबकि उन्हें इस योजना और प्रावधान का क ख ग भी पता नहीं होगा कि सरकारी स्तर पर उनकी भाषा के लिए कितनी मेहनत हो रही है, जिसे बोलने में वह साहबों के सामने खुद हीन भावना से ग्रसित रहते हैं तथा अंग्रेजी के आतंक के बीच खुद को कितना निरीह और लाचार पाते हैं।

राष्ट्रभाषा का विषय न तो बहुत आसान है और न ही जटिल है। आसान इसलिए नहीं है कि इसे संवैधानिक शर्तों के साथ स्वीकार किया गया है और भारत में जिसे संवैधानिक शर्तों के साथ स्वीकार किया जाता है वह आसान तो कत्तई नहीं होता, बल्कि अच्छा-भला राजनैतिक जरूर हो जाता है। इसका मतलब यह भी नहीं कि वह बहुत जटिल है। जटिल तो बिलकुल नहीं। सीधा-सीधा प्रावधान है, जिसकी लकीर के अनुरूप काम करने की भागीरथी कोशिश जारी है।

अब इसके संवैधानिक पक्ष को समझने की जरूरत है कि आखिरकार हिंदी पखवाड़ा क्यों? क्या यूरोप के देशों में भी पखवाड़े में राष्ट्रभाषा प्रेम की कोई योजना है? क्या अरब के देशों में भी ऐसा भाषा प्रेम है? क्या या अफ्रीका के देशों में ऐसा कोई कानूनी प्रावधान है, जो हर साल पखवाड़े में इतना सक्रिय हो जाता है? शायद नहीं! और यदि कहीं होगा भी तो इतना भावनात्मक और जुझारू नहीं होगा, यह माना जा सकता है। कानूनन लागू करने के पीछे हिंदी को लेकर कैसी मानसिकता रही होगी, इसका अनुमान इसके विकास के विविध पक्षों को देखकर लगाया जा सकता है।

वैसे तो हिंदी भारत में सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है और सौभाग्य या दुर्भाग्य से इसे राजभाषा का भी दर्जा प्राप्त है। 14 सितंबर 1949 को विविध शर्तों और प्रावधानों के साये में संविधान सभा में हिंदी को राजभाषा का दर्जा दिया गया था। हिंदी के महत्व को बताने और इसके प्रचार-प्रसार के लिए राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के अनुरोध पर 1953 से प्रतिवर्ष 14 सितंबर को हिंदी दिवस के तौर पर मनाया जाता है। इसके पीछे भी एक महत्वपूर्ण कारण है। वह यह कि 1949 में स्वतन्त्र भारत की राजभाषा के प्रश्न पर 14 सितंबर 1949 को काफी विचार-विमर्श के बाद यह निर्णय लिया गया, जिसे भारतीय संविधान के भाग 17 के अध्याय की धारा 343(1)में बताया गया है कि राष्ट्र की राज भाषा हिंदी और लिपि देवनागरी होगी। चूंकि यह निर्णय 14 सितंबर को लिया गया था, इसी वजह से इस दिन को हिंदी दिवस के रूप में घोषित कर दिया गया।

इसके तहत सरकारी विभागों में हिंदी की प्रतियोगिताएं आयोजित की जाती हैं, साथ ही सरकारी खर्चे पर हिंदी प्रोत्साहन पखवाड़ा का आयोजन भी किया जाता है,जो पहले सप्ताह के रूप में था, लेकिन जैसे-जैसे हिंदी का विकास हो रहा है आयोजन की अवधि और खर्च दोनों का विस्तार हो रहा है।

क्या वास्तव में हिंदी के लिए पखवाड़े जैसे सरकारी दबाव की आवश्यकता है? कहीं ऐसा तो नहीं कि यह सिर्फ हिंदी भाषी लोगों को खुश करने का एक सीधा-सदा हथियार है। हिंदी दिवस से या हिंदी सप्ताह या पखवाड़ा से हिंदी का विकास-विस्तार का कोई भी संबंध नहीं है। भारत में न्याय की भाषा, शिक्षा की भाषा(कुछ गरीब और असहाय लोगों को छोड़ दिया जाय तो), कार्यालयों में संवाद की भाषा, योजनाओं-परियोजनाओं क्रियान्वित होने की भाषा तो अँग्रेजी ही है। फिर यह नाटक किसलिए?

भारत में अँग्रेजी के विकास के लिए न तो कोई योजना बनी, न ही कोई दिवस-सप्ताह या पखवाड़े का आयोजन हुआ, न ही कोई सरकारी अनुदान दिया गया और न ही अंग्रेज़ शासन और सत्ता में है,फिर भी अँग्रेजी हमारे जीवन के हर पहलू में रचती-बसती गई। इसका मतलब साफ है कि हिंदी की छतरी के नीचे अँग्रेजी का पोषण हुआ है। यह कहना गलत नहीं होगा कि हिंदी को लागू करने या उसको समृद्ध बनाने की कभी कोई राजनीतिक मंशा ही नहीं रही है, सिवाय विदेशों में राजनीतिक भाषणों द्वारा मतदाताओं को सम्मोहित करने के।

 ऐसे में यह प्रश्न उठाना स्वाभाविक है कि सरकारी कार्यालयों में हिंदी पखवाड़ा मनाने का उद्देश्य क्या है? इस पर जो खर्च आ रहा है उससे हिंदी को कितना और किस रूप में फायदा हो रहा है? आज हमारा समाज जिस दौर में और जिस तरह के सामाजिक-आर्थिक माहौल में जी रहा है, साथ ही जैसी शिक्षा व्यवस्था का तेजी से विकास हो रहा है,उसमें हिंदी पखवाड़ा एक प्रशासनिक छद्म लगता है। इसलिए अब सरकार को इस पर पुनर्विचार करना चाहिए। इसके हानि-लाभ की समीक्षा होनी चाहिए, जिससे यह स्पष्ट हो सके कि वास्तव में सत्तर सालों की यात्रा के बाद तथाकथित यह राष्ट्रभाषा  कहाँ खड़ी है। क्या दुनिया के सामने हम गर्व से कहने की स्थिति में पहुँच गए हैं कि हिंदी हमारी राष्ट्र भाषा है और यदि नहीं तो फिर यह पखवाड़े के पाखंड से दूर होने की जरूरत है।