कुछ दिन पहले ही राष्ट्रपति कोविंद ने पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई को राज्यसभा के लिए नामित किया। रंजन गोगोई भारत के 46 वें मुख्य न्यायाधीश थे, जिन्हें कई अहम फैसलों को पारित करने का श्रेय दिया जाता है। वहीं जिन्होंने सेवानिवृत्त होने से पहले राम जन्मभूमि के सदियों पुराने राजनीतिक और धार्मिक विवाद को सुलझाने में हमारी मदद की थी! और उन्होंने ही केरल के सबरीमाला मंदिर में महिलाओं को प्रवेश करने की अनुमति का आदेश दिया था।

मैं अपनी राय इस मामले में दूं, इससे पहले हम लोगों को राज्यसभा में मनोनीत सदस्यों की भूमिका और नियुक्ति के बारे में समझना होगा। हालांकि उनकी नियुक्ति को लेकर सोशल मीडिया में कई तरह के बयान आए थे। अनुच्छेद (0 (1) (क) जब भारत के संविधान के अनुच्छेद (0 (3) के साथ पढ़ा जाता है, यह प्रावधान करता है कि राष्ट्रपति 12सदस्यों को संसद के ऊपरी सदन यानी राज्य सभा में नामांकित कर सकता है, जिसमें 250 सदस्य होते हैं। ये सदस्य ऐसे व्यक्तियों होते हैं जिन्हें जिन्हें साहित्य, विज्ञान, कला और सामाजिक सेवा जैसे मामलों के संबंध में विशेष ज्ञान या व्यावहारिक अनुभव होता है।

इन नामांकनों के पीछे कारण यह है कि जिन लोगों के पास अपने-अपने क्षेत्रों का अनुभव है और अपने-अपने क्षेत्र में समृद्ध हैं, वे बगैर किसी चुनाव प्रक्रिया में शामिल होने के  बाद देश की  सेवा उच्च सदन से कर सकते हैं। राज्यसभा के लिए नामांकन केवल उनकी योग्यता की मान्यता नहीं है, बल्कि ये सदस्य बहस और चर्चाओं के दौरान संसद को अपने ज्ञान और विविधता को जोड़ने के मामले में भी मदद भी करते हैं। अगर मैं 13 मई 1953 में लोकसभा में दिए गए पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का जिक्र करूं तो उन्होंने कहा था कि ये सदस्य राजनीतिक दलों या किसी भी चीज़ का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं, लेकिन वे वास्तव में साहित्य या कला या संस्कृति के उच्च मापदंडों का भी प्रतिनिधित्व करते हैं।

पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई की राज्यसभा में नियुक्ति ने सोशल मीडिया पर काफी हंगामा मचाया हुआ है, जिसमें लोग न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर सवाल उठाते हैं। रंजन गोगोई के मामले में विपक्षी नेताओं का कहना है कि रंजन गोगोई ने जो भी फैसले दिए थे वह सरकार के पक्ष में थे और ये फैसले राज्यसभा सीट के बदले में किए गए थे। लेकिन मुझे लगता है कि वे भूल गए कि रंजन गोगोई के पिता केशब चंद्र गोगोई कांग्रेस के नेता थे,  और वह वर्ष 1982 में दो महीने के लिए असम के मुख्यमंत्री भी रह चुके हैं।

अयोध्या का फैसला 5 न्यायाधीशों वाली पीठ का सर्वसम्मत फैसला था। जिसमें न्यायमूर्ति बोबड़े (हमारे भारत के वर्तमान मुख्य न्यायाधीश), न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ (भारत के हमारे मुख्य न्यायाधीश), न्यायमूर्ति अशोक भूषण और न्यायमूर्ति एस शामिल थे। ? अब्दुल नज़ीर? इसी तरह, क्या राफेल तीन न्यायाधीशों वाली पीठ का फैसला नहीं था? बेंच में कोई भी न्यायाधीश अकेले निर्णय नहीं ले सकता। इसके अलावा, कोई भी निर्णय राजनीतिक रूप से प्रेरित नहीं किया जा सकता है या किसी के द्वारा प्रभावित नहीं किया जा सकता है। सभी निर्णय एक कानूनी कार्रवाई या कार्यवाही में याचिका के अधिकारों और देनदारियों के तहत अदालतों के निर्णय हैं।

निर्णयों में किसी विशेष निर्णय के कारण को भी शामिल करने की आवश्यकता होती है। ये इस बात की जानकारी देता है किसी कारण के तहत ज्यूडिशियल बेंच अपने अंतिम फैसले में पहुंचा। और कम से कम कहने के लिए, सभी निर्णयों को हमारे देश के कानून, भारत के संविधान को बनाए रखना चाहिए। इसलिए, यह कहना कि हमारे निर्णय आंशिक रूप से भारत के संविधान की अवहेलना हैं। सिर्फ इसलिए कि एक न्यायिक पीठ एक अलोकप्रिय निर्णय सुनाती है, जो उन्हें आंशिक नहीं बनाती है। वे सभी निर्णय कानूनी रूप से और संवैधानिक हैं और भविष्य के लिए मिसाल में जोड़े जाएंगें।

पूर्व न्यायाधीशों के राजनीतिक प्रणाली का हिस्सा होने के कारण, यह किसी भी कानूनी या संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन नहीं करता है। दरअसल, इसके लिए कोई प्रावधान नहीं हैं। और इससे पहले कि हमारे विरोधी हम पर उंगली उठाएं, कई पूर्व न्यायाधीश पहले राजनीतिक दलों में शामिल हो चुके हैं, जिसमें उनकी अपनी पार्टी भी शामिल है। यही नहीं 2018 में रिटायर्ड जज जस्टिस अभय थिप्से को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हो चुके हैं।

इससे पहले भारत के मुख्य न्यायाधीश रंगनाथ मिश्रा और पी. सदाशिवम, जस्टिस बहारुल इस्लाम, केएस हेगड़े, विजय बहुगुणा और एम. राम जोस जैसे जज अलग-अलग दलों में शामिल हुए हैं। ये जज अपने कार्यकाल को समाप्त करने के बाद राजनैतिक दलों में शामिल हुए हैं। अगर मैं अपने पाठकों को एक और घटना की याद दिला सकता हूं। जस्टिस बहरुल इस्लाम की बदनाम कहानी है। वह पहली बार 1972 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सदस्य के रूप में राज्य सभा के लिए चुने गए थे।

उन्होंने गुवाहाटी उच्च न्यायालय में जज बनने के लिए राज्यसभा से इस्तीफा दे दिया। गुवाहाटी उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के रूप में सेवानिवृत्त होने के बाद, उन्हें उच्चतम न्यायालय में न्यायाधीश बनाया गया। यह बिल्कुल अभूतपूर्व था! इस्लाम ने ही शहरी सहकारी बैंक घोटाले में आरोपी तत्कालीन कांग्रेस बिहार के मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्रा की अनुपस्थिति में फैसला सुनाया था। इसके बाद उन्होंने सुप्रीम कोर्ट से इस्तीफा  दिया और कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़े और राज्यसभा सदस्य बने।

मुझे लगता है कि ये घटना इतिहास में दबा दी गई क्योंकि इतिहास को लिखने वाले पक्षपाती इतिहासकार थे। लेकिन रंजन गोगोई किसी भी राजनैतिक दल में शामिल नहीं हुई हैं। वह राज्यसभा के लिए नामित किए हैं।  इसलिए, मुझे लगता है कि मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई की राज्यसभा में नियुक्ति केवल अनावश्यक सनसनीखेज है, कुछ वायरल पोस्ट और कुछ सोशल-मीडिया प्रचार जीतने के लिए!

(अभिनव खरे एशियानेट न्यूज नेटवर्क के सीईओ हैं, वह डेली शो 'डीप डाइव विद अभिनव खरे' के होस्ट भी हैं। इस शो में वह अपने दर्शकों से सीधे रूबरू होते हैं। वह किताबें पढ़ने के शौकीन हैं। उनके पास किताबों और गैजेट्स का एक बड़ा कलेक्शन है। बहुत कम उम्र में दुनिया भर के 100 से भी ज्यादा शहरों की यात्रा कर चुके अभिनव टेक्नोलॉजी की गहरी समझ रखते है। वह टेक इंटरप्रेन्योर हैं लेकिन प्राचीन भारत की नीतियों, टेक्नोलॉजी, अर्थव्यवस्था और फिलॉसफी जैसे विषयों में चर्चा और शोध को लेकर उत्साहित रहते हैं।

उन्हें प्राचीन भारत और उसकी नीतियों पर चर्चा करना पसंद है इसलिए वह एशियानेट पर भगवद् गीता के उपदेशों को लेकर एक सफल डेली शो कर चुके हैं। अंग्रेजी, हिंदी, बांग्ला, कन्नड़ और तेलुगू भाषाओं में प्रासारित एशियानेट न्यूज नेटवर्क के सीईओ अभिनव ने अपनी पढ़ाई विदेश में की हैं। उन्होंने स्विटजरलैंड के शहर ज्यूरिख सिटी की यूनिवर्सिटी ईटीएच से मास्टर ऑफ साइंस में इंजीनियरिंग की है। इसके अलावा लंदन बिजनेस स्कूल से फाइनेंस में एमबीए (एमबीए) भी किया है।)