हड़प्पा संस्कृति की खुदाईयों में राखीगढ़ी सबसे बड़ी मानी जाती है। राखीगढ़ी, हड़प्पा सभ्यता में शहरी विकास के चरमोत्कर्ष को दिखाता है, जो कि जम्मू के मांडा से लेकर महाराष्ट्र के दीमाबाद तक फैला हुआ था। राखीगढ़ी के बारे में सबसे पहले 1963 में पता चला। इसका पहला दस्तावेज सन 1969 में सूरजभान ने प्रकाशित किया था, जिसमें उन्होंने हड़प्पा संस्कृति की समृद्ध परंपराओं, शहर नियोजन और स्थापत्य कला के बारे में लिखा था।   

हरियाणा के हिसार जैसे छोटे से शहर में हड़प्पा सभ्यता के खुदाई स्थलों में राखीगढ़ी सबसे बड़ा है। [1] गणना के मुताबिक 350 एचए, यह अपने समय में हड़प्पा सभ्यता का सबसे बड़ा शहर था(ताजा खुदाई से यह निष्कर्ष निकला है कि राखीगढ़ी मोहनजोदड़ो से भी विशाल था)। पुरावशेष बताते हैं कि यह शहर 2600 बीसीई(ईसा पूर्व) से लेकर 1800 बीसीई तक आबाद रहा।

राखीगढ़ी, हड़प्पा सभ्यता की शहरी बसावट के चरमोत्कर्ष का प्रतीक है, जो कि जम्मू के मांडा से लेकर महाराष्ट्र के दीमाबाद तक लगभग 1600 किलोमीटर के क्षेत्र में फैला हुआ है।  

इस बात पर विशेष रुप से गौर किया जाना चाहिए, कि हड़प्पा सभ्यता का भौगोलिक फैलाव अपनी समकालीन सभ्यताओं मिस्र और मेसापोटामिया से ज्यादा था।[2]

राखीगढ़ी के बारे में सबसे पहली जानकारी 1963 में ही मिल गई था। इसका सबसे पहला ब्यौरा सूरजभान ने सन् 1969 में प्रकाशित कराया था। जिसमें उन्होंने राखीगढ़ी में शहर नियोजन और स्थापत्य जैसी समृद्ध हड़प्पा परंपराओं का विस्तार से दस्तावेजीकरण किया था।    

राखीगढ़ी का ताजा सनसनीखेज समाचार, वहां मिली दो अलग कंकालों की डीएनए जांच से जुड़ा हुआ है। यह जांच तब प्रकाश में आई जब उत्तर प्रदेश के सनौली में एक  “रथ” प्राप्त हुआ, सनौली का विकास काल हड़प्पा संस्कृति के उत्तरार्द्ध अर्थात 2100-1800 बीसीई(ईसा पूर्व) माना जाता है।

इस रथ की खोज सचमुच बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि इतने पुराने समय में रथ होने का यह भारतीय उपमहाद्वीप या शायद पूरे विश्व का पहला प्रमाण है। इससे पहले भारत में जो रथ प्राप्त हुआ था वह ज्यादा से ज्यादा 350 बीसीई(ईसा पूर्व) काल का था। 
संसार में सबसे पहले खुदाई में जो रथ मिले उनको सिंतश्ता सभ्यता(2050-1800बीसीई(ईसापूर्व) का माना जाता है।

लेकिन सिंतश्ता में जो रथ मिले उनके पहिये तीलीयों वाले हैं जबकि सनौली की खुदाई में जो गाड़ी मिली है उसके पहिए ठोस हैं। 

 सनौली में कुल आठ समाधियां मिली हैं। जिसमें से एक समाधि पर सींगों वाला मुकुट अंकित है, जो कि हड़प्पा सभ्यता का बहुत विशिष्ट प्रतीक चिन्ह है।

भारतीय रथ की यह खोज, प्राचीन डीएनए(गुणसूत्र) के अध्ययन में एक बड़ा महत्व रखती है। वरिष्ठ शोधकर्ता वसंत शिंदे के मुताबिक राखीगढ़ी के डीएनए(गुणसूत्र) अध्ययन से कुछ ऐसा निष्कर्ष निकलता है-

“राखीगढ़ी से प्राप्त मानवीय डीएनए(गुणसूत्र) यह स्पष्ट तौर स्थानीय तत्व दिखाई देता है- जिसमें माइटोकांड्रियल डीएनए(गुणसूत्र) बेहद मजबूत होते हैं। इसमें कुछ बाहरी तत्व भी मौजूद हैं, जो कि उनके विदेशी आबादी से मिलने जुलने को दिखाता है। लेकिन डीएनए(गुणसूत्र) स्पष्ट तौर पर स्थानीय हैं। पुरातत्व के आंकड़ों के मुताबिक यह साफ तौर पर संकेत मिलता है, थोड़े बहुत बाहरी संपर्क को छोड़ दें तो वैदिक युग को पूर्ण रूप से स्वदेशी काल कहा जा सकता  था”[3]

 यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि इन खोजों  ने भारत में कई दशक पुरानी पुरातत्तववेत्ताओं और अनुवांशिकता विज्ञानियों के बीच की लड़ाई को फिर से जिंदा कर दिया। उनके बीच जो यह कहते हैं कि सांस्कृतिक सभ्यता बाहर ये आई थी या फिर वह जो इसे स्थानीय बताते रहे हैं।

स्थानीय सिद्धांत वालों ने यह देखा कि इन खोजों से उनके मत की पुष्टि होती है, क्योंकि शुरुआती वैदिक काल में रथ का इस्तेमाल युद्ध के लिए सबसे ज्यादा होता था, जो कि आखिरकार स्थानीय निकला, ना कि तथाकथित आर्यों द्वारा बाहर से लाया हुआ। रथ के साथ दफन किए गए हथियार यह संकेत देते हैं, कि यह समाधि किसी शाही खानदान के व्यक्ति की है। लेकिन इन निष्कर्षों को वह विद्वान विवादास्पद मानते हैं, जिनके मुताबिक आर्य बाहर से आए थे।

 1. वह दफन किए जाने की तारीख पर सवाल उठाते हैं क्योंकि खुदाई स्थल पर कार्बन डेटिंग अब तक नहीं कराई गई। 
2. दो पहियों वाली गाड़ी को वास्तविक रुप में रथ नहीं कहा जा सकता है।

3. खुदाई स्थल से कोई हड्डी नहीं मिली है। यह स्पष्ट नहीं हो रहा है कि गाड़ियां बैलों से खींची जाती थी या फिर घोड़े से।[4]
 

इंडोलॉजिस्ट माइकेल विज़ल का मानना है कि सनौली में मिली हुई गाड़ी रथ नहीं है। “यह दो पूरे पहियों वाली गाड़ी है जो कि हड़प्पा और दीमाबाद में भी पाई जाती हैं” [5]
  

वह मानते हैं कि तलवारों से यह जाहिर होता है कि हड़प्पा सभ्यता के लोग उतने शांतिप्रिय नहीं थे, जितना उनके बारे में लिखा गया है। साथ ही उनका ये मानना है कि राखीगढ़ी में मिले कंकालों की डीएनए(गुणसूत्र) जांच से कोई आखिरी निष्कर्ष नहीं निकाला जाना चाहिए क्योंकि नमूने मात्र दो ही हैं। फिर भी  वह सोचते हैं कि डीएनए(गुणसूत्र) जांच परिणाम, जिसमें मध्य एशिया का  कोई तत्व नहीं मिला है, आर्यों के आक्रमण/विस्थापन सिद्धांत से मेल खाता है,जिसमें कहा गया है कि हड़प्पा संस्कृति द्वारा अस्वीकार किए जाने के बाद भारत आए।

 यहां पर पुरातत्व विज्ञान औऱ अनुवांशिकी विज्ञान में फिर से मतभेद स्पष्ट हो जाते हैं। पुरातत्व विज्ञानियों के लिए हड़प्पा और वैदिक सभ्यता के बीच की निरंतरता स्पष्ट है।

वसंत शिंदे यह मत रखते हैं कि जिस तरह से राखीगढ़ी में समाधियां बनाई गई हैं वह प्रारंभिक वैदिक काल सरीखी है।  साथ ही वह ये भी जोड़ते हैं कि राखीगढ़ी में जिस तरह से समाधि देने  की परंपरा रही है वह आज तक चली आ रही है और स्थानीय लोग इसका पालन  करते हैं। 
 वह आगे बताते हैं, कि राखीगढ़ी की सभ्यता 1800बीसी(ईसा पूर्व) तक चलती रही, यह वही काल है जिसमें आर्यों का भारत में प्रवेश माना जाता है, जैसा कि आर्य आक्रमण सिद्धांत मानने वाले निष्कर्ष निकालते हैं।

यह बात ध्यान  देने योग्य है कि राखीगढ़ी में किसी  तरह की हिंसा, आक्रमण, युद्ध का संकेत नहीं मिलता है। किसी तरह के विनाश  का संकेत नहीं है और कंकालों पर किसी तरह की चोट का निशान नहीं है।

 यह है सबूत नंबर 22...
आर्य आक्रमण सिद्धांत के विद्वानों के लिए, आर्यों के आगमन की तारीख 1800बीसी(ईसा पूर्व) रखा जाना भी समस्याओं से रहित नहीं है। ऋग्वेद कांस्य काल की रचना है। जिसमें इसे अयस कहा गया है।

लौह(श्याम अयस) का सबसे पहले अथर्ववेद में उल्लेख हुआ है। हम जानते हैं  कि भारत में लोहा पिघलाने की शुरुआत 1800बीसी(ईसापूर्व) से शुरु हुआ। हम इन  तथाकथित भारतीय-आर्यों की उपस्थिति 1800बीसी में मध्य पूर्व में पाते हैं।

इन  सब कारणों से, आर्य आक्रमण थ्योरी के विद्वानों द्वारा तथाकथित आक्रमण का समय 1800बीसी के बाद रखना मुश्किल है।
 राखीगढ़ी किसी जमाने में यहां से बहने वाले दृशदवती नदी  के किनारे बसा हुआ था। सरस्वती और दृशदवती नदी के बीच के इस इलाके को वैदिक लोग अपना सबसे पवित्र इलाका  मानते थे। बाद की पुस्तकों में इसे ब्रह्मवर्त कहा गया।

हम इस क्षेत्र में एक पूर्व वैदिक सभ्यता की उम्मीद रखते हैं। इसलिए राखीगढ़ी में जो पुरातत्विक सबूत मिले है, वह आर्य आक्रमण सिद्धांत पर भरोसा करने वालों के लिए मुश्किल का कारण बन सकते हैं। इसलिए यह जरुरी हो जाता है कि सभी उपलब्ध आंकड़ों के आधार पर सही निष्कर्ष निकालने के बाद ही किसी सिद्धांत का निर्माण किया जाए। 

“सिंधु का पतन ?”

सिंधु का पतन के बारे में सामान्य तौर पर बहुत ज्यादा बातें की जाती है, जो कि  भारतीय आर्यों के संचलन से जुड़ी हुई है। आर्य आक्रमण सिद्धांत वाले कुछ विद्वानों का कहना है कि यदि आर्यों ने सिंधु सभ्यता को नष्ट नहीं भी किया हो, लेकिन  इसके पतन  में अप्रत्यक्ष रुप से ही सही वह कारण जरुर बने।

हालांकि  पुरातात्विक साक्ष्यों का परीक्षण करने  से इस तरह की धारणाएं औंधे मुंह गिर जाती हैं। हड़प्पा संस्कृति अपने आखिरी दिनों में पतन या परित्याग का शिकार होने  की बजाए अतिक्रमण और भीड़-भाड़ से पीड़ित होने लगी थी।  

जैसा  कि  सिंधु  पुरातत्ववेत्ता कीनोयर सामने रखते  हैं-

“इन नई खुदाईयों से यह संकेत मिलता है कि उत्तर हड़प्पा काल में इस स्थान पर आबादी बहुत फैली हुई थी जैसा वास्तव में सोचा गया था। पकी हुई ईंटों की इमारतें बनाई गई थीं जिसमें नई ईंटों के साथ पुरानी इमारतों से निकली ईंटों का भी इस्तेमाल किया गया था। हड़प्पा संस्कृति अपने आखिरी दिनों में पतन या परित्याग का शिकार होने  की बजाए अतिक्रमण और भीड़-भाड़ से पीड़ित होने लगी थी। ”

इसके अलावा, सिंधु घाटी और भारतीय उपमहाद्वीप में पहली बार कांच का उत्पादन किया जा रहा था। यह वास्तव में आश्चर्यजनक है कि इस अवधि, जिसमें बड़ी तकनीकी प्रगति भी देखी गई, उसको पतन कहा जा रहा है।

झूठी अनुरूपताएं

आइए हम एक क्षण के लिए हम स्वीकार भी लें कि पश्चिमी इंडोलॉजिस्ट वास्तव में सही हैं और 1800 ईसा पूर्व के बाद भारत-आर्यों ने भारतीय उपमहाद्वीप में प्रवेश किया था।
तो भी यह सवाल अनिवार्य रूप से जरुर उठता है कि कैसे आर्यों का 'आक्रमण' बाद में हुए हूणों के या फिर उस जैसे दूसरे आक्रमणकारियों के हमले  से अलग था।

हमें यह भूलना नहीं चाहिए कि भारत-आर्य, चाहे वे मूल रूप से मंगल के निवासी हों या फिर हरियाणा के, भारतीय सभ्यता के निर्माता वही थे।

यह एक काल्पनिक मान्यता है कि आर्यों ने भारत पर आक्रमण किया, उन्होंने निश्चित रूप से भारत पर आक्रमण नहीं किया क्योंकि उस समय भारत था ही नहीं। वास्तव में, भारत को एक सभ्यता के केन्द्र के रुप में इन तथाकथित 'आक्रमणकारियों' ने ही विकसित किया था।  

वही पश्चिमी पुरातत्ववेत्ता जो आर्यों के भारत के बाहर से आने की सिद्धांत का समर्थन  करते हैं, द्रविड़ भाषा बोलने वाले सिंध के रास्ते भारत में प्रवेश कर रहे थे, क्योंकि ठीक उसी समय आर्य पंजाब से होते हुए भारत में प्रवेश कर रहे थे।

इस परिकल्पना के अनुसार उस समय मुख्य भूमि भारत में बोली जाने वाली भाषा,  'भाषा एक्स' है। प्रोटो-मुंडा बिहार के आसपास के इलाके में बोली जाती थीं। हमारे पास अन्य भाषाओं के बारे में कोई जानकारी नहीं है।

राजस्थान की अहर-बनास सभ्यता अपने साथ लगी हुई सिंधु घाटी सभ्यता से काफी अलग थी। महाराष्ट्र की जोर्वे संस्कृति इन दोनो से बिल्कुल अलग थी।

अब इस स्थिति की तुलना वर्तमान की परिस्थिति से करें जब इस्लामी तुर्कों ने पहली बार भारत पर हमला किया था।

उत्तर-पश्चिम में काफिरकोट के मंदिर किसी भी पश्चिमी-गुंबददार संरचना की तुलना में कांची के कैलासनाथ मंदिर के समतुल्य ज्यादा थे।

इस उल्लेखनीय सभ्यता और सांस्कृतिक एकता को भारतीय सभ्यता के रूप में जाना जाता है, इसकी जड़ें वैदिक संस्कृति में थीं।

इस तरह की समानता दर्शाया जाना एक भ्रामक धोखाधड़ी है। इस तर्क के द्वारा यह सिद्ध किया जा सकता है कि  2002 का खाड़ी युद्ध इराक पर आक्रमण नहीं था और इराक पर हमला नहीं किया जा सकता क्योंकि इराकी अरब स्वयं ही 7 वीं शताब्दी में अरब प्रायद्वीप से आए आक्रमणकारी थे। 
'आक्रमण' शब्द का सार बहुत खो गया है। इसका मतलब है कि इराक किसी भी देश द्वारा आक्रमण के लिए खुला है और हर देश इराक पर आक्रमण को उचित ठहरा सकता है, "देखिए, आप भी आक्रमणकारियों में से एक हैं"।

आखिरकार, यदि वैदिक लोग भारत के लिए विदेशी हैं क्योंकि वे 1500 ईसा पूर्व में कथित रूप से भारत में प्रवेश कर चुके थे, तो फारसियों ने भी 1000 ईसा पूर्व के बाद फारस में प्रवेश किया था, इसलिए वह भी फारस के लिए विदेशी हैं। 2000 ईसा पूर्व के बाद ग्रीस में प्रवेश करने वाले ग्रीक, वहां के लिए विदेशी हैं। फ्रांसीसी फ्रांस के लिए विदेशी हैं क्योंकि फ्रेंच लैटिन लोगों के वंशज है, जिसे पहली शताब्दी ई.पू. में रोमन विजय के दौरान लैटिन उपनिवेशवादियों द्वारा लाया गया था। 

स्पेन के लोग स्पेन के लिए विदेशी है। पांचवीं शताब्दी में इंग्लैंड में एंग्लो सैक्सन द्वारा लाए गए अंग्रेज, इंग्लैंड के लिए विदेशी है। हिंदूओं को शर्मिंदा और अपराधबोध से ग्रसित करने के लिए हिंदू विरोधी लॉबी अक्सर इस तरह के फिजूल तर्क देती है।

हिन्दू भारत के लिए इसलिए विदेशी नहीं हो जाते हैं क्योंकि आर्यों ने कथित तौर पर 1500 ईसा पूर्व भारतीय उपमहाद्वीप में प्रवेश किया था। वैदिक लोग भारतीय सभ्यता के निर्माता हैं। इस तथ्य को कोई भी  नहीं बदल सकता है कि यही वह वैदिक संस्कृति थी जिसने भारतीय सभ्यता के जन्म को जन्म दिया। हिंदू धर्म भारत की मूल संस्कृति है और कुछ भी इस तथ्य को बदल नहीं सकता है। कथित भारत-आर्यन आप्रवासन होने पर भी बाद के हमलों से इसकी तुलना नहीं की जा सकती है।

निष्कर्ष  

'रथ' और डीएनए अध्ययन की उल्लेखनीय खोज वास्तव में हमें वह मूल्यवान जानकारी प्रदान करती है, जो जानकारी दूसरे ऐतिहासिक स्रोतों की अनुपस्थिति के कारकण उपलब्ध नहीं रही थी।  

यह संभव है कि भविष्य में और अधिक खोजें की जाएंगी, जिससे की नए तथ्य़ सामने आ सकते हैं। भविष्य में यदि इस क्षेत्र में तीलियों के पहियों वाला रथ तलाश  कर लिया जाए तो किसी को आश्चर्यचकित नहीं होना चाहिए।

आक्रमण सिद्धांत के विद्वानों को यह स्वीकार कर लेना चाहिए, कि इस प्रारंभिक पूर्व-ऐतिहासिक काल को समझने के लिए अब तक हमारे पास साक्ष्यों की कमी रही है।

राखीगढ़ी जैसे क्षेत्रों की सांस्कृतिक निरंतरता वास्तव में उल्लेखनीय है। जैसा कि उपर बताए गए पुरातत्वशास्त्रियों  ने उल्लेख किया है, इसके कई पहलू आज के समय में भी बिना किसी बदलाव के चले आ रहे हैं। यह एक बार फिर से दिखाता है कि भारतीय सभ्यता की निरंतरता उल्लेखनीय और अनन्त थी।

हिंसक सामूहिक हमलों और उसके सामने सब कुछ नष्ट कर दिए जाने जैसे आसान निष्कर्ष इस निरंतरता को बारीकी से नहीं समझ सकते हैं।

विट्ज़ेल का तर्क फिर भी विचारणीय है, जिसमें वह कहते हैं कि नमूने के छोटे आकार के आधार पर कोई निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता है। यह स्पष्ट है कि वैदिक साहित्य में जिस तीलियों वाले  पहिए के रथ का वर्णन है वह सनौली में वैसा नहीं मिला।

हमें आवश्यकता है सही परिप्रेक्ष्य में सबूतों को एक सीरिज में रखने की, जिससे कि उपलब्ध सबूतों के आधार पर सटीक परिणाम निकाले जा सकें।