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अब दुनिया देखेगी उस शहीद की कहानी, जो कभी नहीं मरा

Arjun Singh |  
Published : Dec 20, 2018, 04:16 PM IST
अब दुनिया देखेगी उस शहीद की कहानी, जो कभी नहीं मरा

सार

72 घंटे तक सैकड़ों चीनी सैनिकों से लड़ता रहा यह अमर सपूत। चीनी सेना को लगा पूरी बटालियन ले रही है मोर्चा। शहीद राइफल मैन जसवंत सिंह रावत की अतुलनीय बहादुरी पर बनी फिल्म '72 ऑवर्स: मार्टियर हू नेवर डाइड’होने वाली है रिलीज।

सच्ची कहानियों को सिनेमा के सुनहरे पर्दे पर उतारने का सिलसिला लगातार जारी है। मिल्खा सिंह, मेरीकॉम, उरी, लक्ष्मीबाई के बाद अब भारत के एक और बेटे की भूली-बिसरी कहानी सिनेमाघरों में दिखेगी। ये कहानी है, भारतीय सेना के उस जवान की जो देश की रक्षा करते हुए शहीद तो हो गया लेकिन कभी मरा नहीं। यह कहानी है चार गढ़वाल राइफल के अमर जवान राइफलमैन जसवंत सिंह रावत की। 1962 की चीन से हुई लड़ाई में जसवंत की बहादुरी ने दुश्मनों का अरुणाचल प्रदेश को हथियाने की साजिश को नाकाम कर दिया। नौरनंग की लड़ाई भारतीय सेना के जवानों की बहादुरी का सबसे चमकदार अध्याय है। 

शहीद जसवंत सिंह रावत के अदम्य साहस पर बनी फिल्म '72 ऑवर्स: मार्टियर हू नेवर डाइड’18 जनवरी को रिलीज हो रही है। इस फिल्म का ट्रेलर 24 दिसंबर को देहरादून में रिलीज होगा। फिल्म में देहरादून के अविनाश ध्यानी ने शहीद जसवंत रावत का किरदार निभाया है। वहीं फिल्म की कहानी लिखने के साथ ही उन्होंने इसका निर्देशन भी किया है। फिल्म को उत्तराखंड के चकराता के वैराट खाई, हर्षिल, देहरादून के इलाकों में शूट किया गया है।

अरुणाचल प्रदेश पर कब्जे के लिए चीनी सेना ने 17 नवंबर 1962 को जोरदार हमला किया। नौरनंग की इस लड़ाई में चीनी सेना ने मीडियम मशीन गन की जोरदार फायरिंग ने गढ़वाल राइफल्स के जवानों को मुश्किल में डाल दिया था। चीनी सेना को रोकना मुश्किल हो गया था। लेकिन ऐसे में जसवंत सिंह ने दो स्थानीय लड़कियों के साथ मिलकर ऐसा साहसिक कदम उठाया जिसने इस युद्ध की दिशा ही बदलकर रख दी। 

कहा जाता है कि 17 नवंबर 1962 को जब चीनी सेना ने यहां हमला किया तो गढ़वाल राइफल्स की चौथी बटालियन के ज्यादातर जवान मारे गए लेकिन जसवंत सिंह अकेले ही 10 हजार फीट की ऊंचाई पर स्थित अपनी पोस्ट पर डटे रहे। जसवंत सिंह ने अकेले ही दो स्थानीय लड़कियों सेला और नूरा की मदद से अलग-अलग जगहों पर हथियार रखे और इसके बाद चीनी सेना पर हमला बोल दिया। 72 दिन तक यह भीषण लड़ाई चली। जसवंत सिंह ने 300 चीनी सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया। चीनी सेना  यही मान रही थी कि भारतीय सेना की एक टुकड़ी उन्हें रोके हुए है। 

माना जाता है कि इस लड़ाई के दौरान जसवंत सिंह को राशन पहुंचाने वाला एक स्थानीय नागरिक चीनी सेना के हाथ लग गया। तब चीनी सेना को पता लगा कि उनकी सेना के होश उड़ाने वाला एक अकेला जवान राइफलमैन जसंवत सिंह है। सेला एक ग्रेनेड हमले में मारी गई जबकि नूरा पकड़ी गई। लड़ाई के दौरान जब जसवंत सिंह को लगा कि वह पकड़े जा सकते हैं तो उन्होंने खुद को गोली खुद को मार ली। चीनी सेना जसंवत सिंह का सिर काटकर अपने साथ ले गई थी। लेकिन जसवंत सिंह की बहादुरी का किस्सा सुनकर उनका कमांडर इतना प्रभावित हुआ कि सिर लौटा दिया गया।

माना जाता है कि जसवंत सिंह की आत्मा आज भी भारत की पूर्वी सीमा की रक्षा कर रही है। उन्हें सेना के सेवारत अधिकारी की तरह सम्मान दिया जाता है। जिस जगह पर वह शहीद हुए, वहां पर एक मंदिर भी बना है। जवान और स्थानीय लोग उसमें पूजा करते हैं। यहां उनके लिए एक बेड लगा है। पोस्ट पर तैनात जवान हर रोज चादर बदलते हैं। बेड के पास पॉलिश किए हुए जूते रखे जाते हैं। इस बहादुरी के लिए जसवंत सिंह को मरणोपरांत महावीर चक्र दिया गया। 

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